Wednesday, September 22, 2010

अब नीतीश पर 'नजर' डालिए..


(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र हैं और फिलहाल 'स्टार न्यूज' में कार्यरत हैं. ) 


मनोज मुकुल 
जॉर्ज, नीतीश जिंदाबाद, ललन,दिग्विजय जिंदाबाद।
नीतीश कुमार का जब तक राजतिलक नहीं हुआ था बिहार में कुछ ऐसे नारे लगते थे। 2005 से पहले के बैनर अगर किसी को याद है तो उनको ये नारा भी याद होगा। प्रचार के दौरान बैनरों पर सबसे ऊपर कुछ ऐसा ही लिखा होता था। लेकिन 2005 में जब नीतीश सत्तासीन हुए तो हालात बदल गये। 2010 आते आते हालात बहुत ज्यादा बदल चुके हैं। नीतीश को 2005 में सत्ता के करीब ले जाने वाले जिन चार नामों का जिक्र उस वक्त होता था उन चार में से तीन नाम आज नीतीश से दूर हैं। 
मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश ने सबसे पहले अपने राजनीतिक गुरु जॉर्ज को ठिकाने लगा दिया। शरद यादव ने पार्टी में जॉर्ज की जगह ले ली। राजनीतिक जीवन के आखिरी समय में जॉर्ज की जो स्थिति है उससे कोई अंजाना नहीं है। 20 साल तक नीतीश की राजनीति का प्रबंधन देखने वाले ललन सिंह नीतीश से दूर जा चुके हैं। 2005 में जब पार्टी सत्ता में आई थी ललन सिंह प्रदेश अध्यक्ष थे, जॉर्ज राष्ट्रीय अध्यक्ष।प्रभुनाथ सिंह को नीतीश ने दरकिनार करना शुरू किया नतीजा आज वो लालू के साथ गलबहियां कर रहे हैं। इन नामों के अलावा नीतीश को सत्ता के शिखर पर ले जाने में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्विजय सिंह का नाम भी प्रमुख है। बांका से सांसद रहे दिग्विजय दक्षिणी बिहार में पार्टी की कमान संभालते थे। बुद्धजीवियों का बड़ा वर्ग दिग्विजय के जरिये ही पार्टी के करीब था। लेकिन सत्ता में आने के बाद नीतीश ने दिग्विजय सिंह को भी साइड कर दिया। एनडीए की सरकार में समता पार्टी कोटे से तीन मंत्री हुआ करते थे जॉर्ज, नीतीश और दिग्विजय। पार्टी बनने के वक्त से ही दिग्विजय पार्टी के हर फैसले के गवाह रहे थे। लेकिन नीतीश ने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें बांका से पार्टी का उम्मीदवार तक नहीं बनाया। लेकिन दिग्विजय न सिर्फ पार्टी से बगावत कर इस सीट से जीते बल्कि पार्टी के उम्मीदवार को लड़ाई के लायक भी नहीं छोड़ा। हालांकि दिग्विजय अब इस दुनिया में नहीं हैं। कहने का मतलब ये कि नीतीश को सत्ता के शीर्ष तक ले जाने वाले चेहरे सिर्फ बैनर पोस्टर से ही नहीं नीतीश के आसपास से भी दूर जा चुके हैं। सीएम बनने के बाद एकएक करके नीतीश ने पुराने साथियों को साइड करना शुरू किया तो नए नए लोगों को अपनी सिपहसलार बनाया। ये वो वक्त था जब लोकतांत्रिक पार्टी की जगह जेडीयू व्यक्ति विशेष के प्रभाव वाली पार्टी बनती जा रही थी। 2005 के चुनाव में बिहार ने नीतीश को वोट नहीं दिया.. वोट लोगों ने बदलाव को दिया और उस बदलाव का नेतृत्व नीतीश को दिया गया था। नेतृत्व देने वाले लोगों को ही नीतीश ने किनारा कर दिया। नीतीश की छवि इस वक्त पार्टी में तानाशाह की तरह उभरने लगी थी। इसकी पृष्ठभूमि नीतीश धीरे धीरे 2004 लोकसभा चुनाव के वक्त से ही लिख रहे थे... जब जॉर्ज को नालंदा सीट छोड़ने के लिए कहा और खुद नालंदा से लड़ने गये। नीतीश और जॉर्ज के बीच मनमुटाव की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन बिहार में लड़ाई बदलाव की थी सो अंहकार को फिलहाल साइड रखा गया। हालांकि नीतीश की स्क्रिप्ट के मुताबिक राजनीति का खेल जारी था। एक जमाने में समता पार्टी का साथ छोड़कर गए शिवानंद तिवारी, वृषण पटेल ने लालू का साथ छोड़ फिर से नीतीश का दामन थाम लिया था। नीतीश ने गले लगाया और अहम जिम्मेदारियों से नवाजा। जिंदगी भर कांग्रेस की सियासत करने वाले जगन्नाथ मिश्रा 2004 में ही नीतीश के शरणागत हो गये थे। 
रामाश्रय प्रसाद सिंह भी नीतीश कुमार के साथ हो गए। जगन्नाथ मिश्रा के सुपुत्र को बिहार में मंत्री बनाया गया तो रामाश्रय सिंह खुद नीतीश सरकार में मंत्री बने। (यहां याद दिलाते चलें कि जब बिहार में कांग्रेस के कमजोर होने का दौर शुरू हुआ था जगन्नाथ मिश्रा ने अलग पार्टी बना ली थी तब बिहार में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे रामाश्रय सिंह) लालू का साथ छोड़ कर नीतीश का साथ देने आए मोनाजिर हसन जैसे नेता भी नीतीश के करीबी हो गये और कैबिनेट मंत्री बनाकर अहम मंत्रालय दिया गया। ये तो बात रही सत्तासीन होने के बाद के शुरुआती दिनों की.. लेकिन धीरे धीरे जैसे समय बीतता गया नीतीश ने अपने आसपास से पुराने वफादार नेताओं को साइड करना तेज कर दिया। नीतीश को कोई मलाल नहीं था कि उनके साथ कौन से लोग जुड़ रहे हैं और कौन से लोग उनसे दूर जा रहे हैं। लालू को जानने वाले लोग रंजन यादव को नहीं भूल सकते। लालू के बाद नंबर दो का दर्जा मिला था। बाद में लालू को धोखेबाज कहते हुए अलग हो गये थे। एक वक्त कहा जाता था कि लालू की पार्टी में लालू से ज्यादा रंजन यादव के समर्थक विधायक हैं। वो रंजन यादव नीतीश की टीम में शामिल हो गये। बाद में जेडीयू के टिकट पर पटना से सांसद बने। 2009 लोकसभा चुनाव के बाद तो परिस्थितियां बिल्कुल ही बदल गई। 25 में से 20 सीट जीतने के बाद नीतीश आसमान में थे और यही वक्त था जब नीतीश को और आसमान में ले जाने वाले लोग उनसे जुड़कर अपना नंबर सेट करने लगे। नीतीश तो प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में गिने जाने लगे थे। खैर चुनाव के तुरंत बाद विधानसभा उपचुनाव का जब वक्त आया तो रमई राम और श्याम रजकजैसे लालू के दाएं-बाएं बैठने वाले नेता नीतीश के साथ आ गए। (रमई राम के बारे में बता दें आपको लगातार चार बार से विधायकी जीत रहे थे.. पार्टी में दलितों का सबसे बड़ा चेहरा। लगातार लालू-राबड़ी राज में मंत्री, बेटी को लालू ने विधान पार्षद बनवाया। लोकसभा का टिकट नहीं दिया तो पार्टी छोड़ दी।) श्याम रजक जो लालू राबड़ी की शान में कसीदे गढ़ते थे। जो लालू के किचन कैबिनेट के मेंबर हुआ करते थे। उन्होंने भी लालू से किनारा किया तो नीतीश ने अपने गले लगा लिया। हालांकि नीतीश की पार्टी से रमई राम और श्याम रजक दोनों विधानसभा उपचुनाव हार गये। आगे बढ़िये तो विजय कृष्ण, जो विजय कृष्ण कई बार बाढ़ से सांसद रहे और 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को जिन्होंने हरा दिया था, 2009 चुनाव हारने और हत्या के एक केस में फंसने के बाद नीतीश के शरणागत हो गये। दर्जन भर से ज्यादा मुकदमों के आरोपी तस्लीमुद्दीन का नाम सुना होगा आपने, देवेगौड़ा की सरकार में मंत्री थे लेकिन गृह राज्यमंत्री के पद से हटा दिया गया था। नीतीश राज में कानूनी शिकंजा कसने का डर सताया तो नीतीश की शरण में ही चले गये। नीतीश ने इस बाहुबली नेता को तहे दिल से गले लगाया। उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार सिंह जैसे पुराने नेता समता पार्टी के संस्थापकों में से रहे लेकिन सरकार बनने के बाद ही नीतीश से इनके संबंध खराब हो गये... लेकिन राजनीतिक मजबूरी देखिए ललन सिंह की कमी को पाटने के लिए अरुण कुमार को वापस लाया गया है। बताते हैं कि ललन सिंह उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में वापस लाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले नागमणि(कोइरी) के पार्टी छोडकर जाने के बाद कोइरी नेता की जो कमी रह गई थी उसे पाटने के लिए उपेंद्र कुशवाहा को लाया गया है। उपेंद्र की वापसी ललन सिंह की मर्जी के बगैर हुई लिहाजा ललन कल्टी मार गये। अब उपेंद्र कुशवाहा की मर्जी के बगैर उस कोइरी जाति के विधायक को जेडीयू में शामिल कर लिया गया है जिसने 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा को हरा दिया था। उपेंद्र कुशवाहा फिर से नाराज बताये जा रहे हैं। ललन सिंह के जाने के बाद विजय चौधरी को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। विजय चौधरी की पार्टी में वैसे तो पहले से कोई पहचान नहीं थी लेकिन अब कार्यकर्ता उनका नाम जान गये हैं। उधर जिस बांका से लालू की पार्टी के टिकट पर सांसद रहे गिरधारी यादव भी नीतीश की शरण में पहुंच चुके हैं। एक बात गौर करने वाली ये है कि चुनाव पूर्व दलबदल एक प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में उस चीज का ख्याल नहीं रखा जा रहा जो नीतीश सरकार की पहचान है। लालू और नीतीश में अब क्या फर्क रह गया है सिर्फ दोनों के चेहरों के अलावा। कल जो लालू के जंगल राज के मजबूत सिपाही थे आज की तारीख में वो नीतीश के राज के मजबूत सिपाही बन गये हैं। 
नीतीश के पास जो चौकरी आजकल चक्कर काट रही है उसको पहचानिए..... विजय चौधरी(अध्यक्ष, बिहार जेडीयू) कोई दाग नहीं है नई पहचान बना रहे हैं। शिवानंद तिवारी (राष्ट्रीय प्रवक्ता) दाग ही दाग, कब लालू की पार्टी में कब नीतीश के साथ उनको भी नहीं पता। श्याम रजक(सालों तक लालू की किचन कैबिनेट के सदस्य) खासियत देखिए- आज बिहार सरकार का पक्ष घूम घूम कर मीडिया में रख रहे हैं। साल भर पहले लालू के जंगल राज वाली पार्टी को छड़कर इधर आए हैं बयान सुनिएगा तो लगेगा कि लालू के जंगल राज के खिलाफ 94से लड़ रहे हैं। पहले लालू के लिए मीडिया को फोनो देते थे अब नीतीश के लिए फोनो देते हैं। रमई राम(90-2005 तक लगातार भूमि राजस्व मंत्री) नीतीश की पार्टी से विधानसभा उपचुनाव हारे तो क्या हुआ अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। बिहार में दलित-महादलित का फर्क कर जीत का गणित बनाने वाले नीतीश को पांच साल तक कोई दलित नेता नहीं मिला जिसे ये पद दे सके। खैर...अल्पसंख्यक चेहरों की कमी पड़ गई है जो पहले से थे वो नाराज चल रहे हैं... मोनाजिर हसन के बारे में भूल गये हैं तो बता देता हूं... 2005 में चुनाव से पहले लालू को छोड़कर आए थे जेडीयू से जीते भवन निर्माण मंत्री बनाया गया लालू-राबड़ी कैबिनेट में भी यही ओहदा था। खैर मुख्यमंत्री निवास खाली करने का विवाद 2005 में जब चर्चा में आया तो मोनाजिर ने लालू से पंगा लिया.. लालू ने इनको टीटीएम मंत्री बना दिया..माने.. ताबड़तोड़ तेल मालिश मंत्री कहकर पुकारा.. हालांकि नीतीश के सामने इनका नंबर बन गया.. लेकिन 2009 में जब से ये सांसद बने हैं उनका मामला ठीक नहीं चल रहा सो नीतीश अल्पसंख्यक नेताओं के ऑपरेशन में जुटे हैं। दो दिन पहले एलजेपी की पूरी अल्पसंख्यक यूनिट को पार्टी में ले आए.. अब उन्हीं की पार्टी के विधायक इजहार अहमद को भी ला रहे हैं। तस्लीमुद्दीन को पहले से ही चेहरा बनाकर घूमा रहे हैं। वैसे शहाबुद्दीन को भी अपनी पार्टी में लेने के इच्छुक थे नीतीश। सीवान दौरे के दिन पिछले महीने हीना शहाब से मिलने की पूरी तैयारी हो चुकी थी लेकिन लालू को खबर लगी और पलीता लग गया। लालू पहुंचे सीवान जेल और शहाबुद्दीन को समझा बुझाकर शांत कराया। कहने का मतलब ये कि लालू और नीतीश में फर्क अब सिर्फ दोनों के अपने चेहरे का रह गया है। क्योंकि सुशासन की परिभाषा लिखने वाले पुराने नेता नीतीश से किनारे हो चुके हैं और जंगल राज के सिपाही अब नीतीश के सिपहसलार बन गए हैं। जानकार बता रहे हैं कि नीतीश के राज में जिस तरीके से बाहुबलियों का बुरा हश्र हुआ है बचे खुचे दूसरे दलों के बहाबुली चुनाव के मौके पर सेफ हैंड खेल नीतीश दरबार में नंबर बनाने में जुटे हैं। भला हो बिहार का...अब जंगल राज वाले नेता नीतीश की पार्टी से जीतकर आएंगे तो नीतीश को कौन से राज का मुखिया बनाएंगे... जंगल राज का या सुशासन के राज का??? ऐसे नेताओं के बारे में बिहार को गंभीरता से सोचना होगा। क्योंकि एक आदमी ही गलत होगा ये कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि उस आदमी के आसपास वाले लोग कहीं से भी ठीक नहीं माने जा सकते। लालू और उनके पुराने संबंधियों के बारे में कुछ ऐसा ही समझना पड़ेगा। क्या कहते हैं...????

2 comments:

  1. I must say this is a very good analytical presentation of current political games playing on the eve of assembly elections. And, if Nitish continues to focus only on winning elections by hook or by crook, he must not forget that Bihar still is one of the most backward states of the nation. So, if he fails to deliver what he promises, he would be kept aside by voters as they did with his arch rival Lalu Yadav. He should remember that people want progress, it doesn't mean through whom it comes; Lalu or Nitish.

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  2. मनोज आपका विश्लेषण अच्छा है। नीतीश, को इतनी हड़बड़ी दिखाने की क्या जरुरत थी? लालूराज के तमाम दागी आज उनके साथ आ जुड़े हैं कहीं ये उनके अंदर की असुरक्षा तो नहीं कि येनकेन प्रकारेण वे सत्ता पाना चाहते हैं। एक बात तय है कि वे भी मानते हैं कि सवर्णों में इस बार एका नहीं है और वे पिछली बार की तरह सौ फीसदी नीतीश के साथ नहीं आ पाएंगे। तो क्या ये मानकर चलें कि वे पिछड़ा, दलित और मुसलमानों पर दांव लगा रहे हैं। तब तो ये यकीनन मानके चलें कि अगर नीतीश का ये दांव कामयाब हो जाता है तो वे बीजेपी से संबंध तोड़ने में बहुत देरी नहीं करेंगे। खैर ये तो एक अनुमान भर है। लेकिन मुद्दे की बात एक और है। पिछले लोकसभा और बाद में हुए विधानसभा चुनावों में भी जनता ने दागियों को बुरी तरह से पीटा था। कहीं इस चक्कर में नीतीश के कई उम्मीदवार पिट न जाएं और बीजेपी पर फिर से उन्हें जरुरत से ज्यादा निर्भर रहना पड़ सकता है। लेकिन मेरा मन कहता है कि नीतीश की सबसे बड़ी गारंटी लालू यादव ही हैं जिनका अतीत नीतीश के लिए बड़ा संबल है। चलिए देखते हैं क्या होता है।

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