Thursday, November 11, 2010

यूपी फिर बेदम, कम जुर्म का भ्रम

लगता है यूपी वालों की किस्मत ही फूटी है। पिछले 20 सालों में जिसे भी कुर्सी सौंपी, उसने चूसा और अपराधियों ने जमकर लूटा। बीते सालों में एक-दो बड़े अपराधियों और कुछ मोहल्लाछाप बदमाशों को मार गिराने के अलावा यूपी पुलिस के पास खुश होने का कोई मौका नहीं है। 2005 के पहले वाले बिहार की तरह अब यूपी में भी फिरौती के लिए अपहरण का धंधा चल निकला है। 1 जनवरी से 30 सितंबर, 2010 के बीच प्रदेश में 50 अपहरण हुए। 2009 से 25 फीसदी ज्यादा। लूट की वारदातें भी 15 फीसदी तक बढ़ी हैं। ये कोई विपक्षी पार्टी नहीं कह रही बल्कि यूपी पुलिस का क्राइम रिकॉर्ड है।

अपराधों से थर्रा रहा सूबा 
याद करिये 2006-07 का वो वक्त जब अमिताभ बच्चन यूपी के ब्रांड एबेंसेंडर और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। टीवी, अख़बारों और सड़कों पर लगी होर्डिंग में अमिताभ एक ही बात कहते थे...यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम। उस समय भी यूपी में लॉ एंड आर्डर की हालत बेहद खराब थी। कांग्रेस,  बसपा और भाजपा ने जमकर शोर मचाया था। विपक्षी दलों ने अमिताभ की एक लाइन के आगे अपनी एक लाइन और जोड़ी...झूठ यहां है ज्यादा सच्चाई बिल्कुल कम। मुलायम सिंह की सरकार को 2007 में पब्लिक ने चलता कर दिया। कुर्सी संभाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने। वैसे तो मायावती बेहद कड़क मिज़ाज के लिए जानी जाती हैं लेकिन 2008 आते-आते उनकी अफसरों पर पकड़ खत्म सी हो गई। शुरुआत में तो मायावती ने दम दिखाया। इलाहाबाद में अतीक अहमद की बिल्डिंग पर हथौड़े चलवा दिए। पुलिस शातिर अपराधियों के एनकाउंटर के मूड में आ गई लेकिन ये सब ज्यादा दिन नहीं चला। सुधार के नाम पर गांव से लेकर शहर तक कई बड़े क्रिमिनल बसपा में शामिल हो गए। अब तो गुंडों के मन में डर खत्म हो गया था।

अक्सर होता पुलिस-पब्लिक में बवाल 
2005 में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के पहले बिहार बहुत बदनाम था। सबसे बड़ी वजह थी,  अपहरण का धंधा। बिहार पुलिस ने जमकर सख्ती की। नतीजा,  कुछेक वारदातों को छोड़कर अपहरण का धंधा बंद हो गया। बिहार के लोगों को अकसर बिहार के बाहर लॉ एंड आर्डर के मसले पर काफी कुछ सुनने को मिलता था। अब बारी यूपी वालों की है। 10 नवंबर को यूपी पुलिस ने अपराध के ताज़ा आंकड़ें जारी किए हैं। जो भी यूपी की घटनाओं को फॉलो करता है,  इसे देखकर उसका सिर चकरा जाएगा। इस साल 1 जनवरी से 30 सितंबर के बीच यूपी में फिरौती के लिए अपहरण,  डकैती और लूट की घटनाओं में इज़ाफा हुआ है। इस पीरियड में 50 अपहरण हुए तो 127 डकैतियां और 1545 लूट की वारदातें। 2009 में अपहरण 40 थे, डकैतियां 122  और लूट की घटनाएं 1336। ये आंकड़ें ऎसे तब हैं जब यूपी पुलिस एफआईआर लिखती ही नहीं है। कहानी यहां खत्म नहीं होती है। इन नौ महीनों में 3123 हत्याएं,  2913 चोरियां हुईं। औरतों के खिलाफ तो जैसे अपराधियों को खुली छूट मिल गई है। 1025 बलात्कार और 1619 दहेज हत्याएं पुलिस की काहिली बता रहे हैं। डकैती, लूट और अपहरण के अलावा बाकी अपराधों में यूपी पुलिस कमी का दावा कर रही है। वो इसलिए कि यूपी पुलिस की एक आदत है। डकैती को चोरी और अपहरण को गुमशुदगी में दर्ज करना। बलात्कार, लूट और लड़कियों से छेड़खानी जैसे मामलों को तो उत्तर प्रदेश में पुलिस झूठा साबित कर देती है। एफआईआर तो दूर की कौड़ी है। हिम्मत है तो अपने साथ हुए किसी अपराध की आप उत्तर प्रदेश के किसी भी थाने में रिपोर्ट लिखाकर दिखाइए।
  
जनता की नहीं सरकारी सेवक बन गयी यूपी पुलिस 
पूर्व, पश्चिम और मध्य यूपी में तो जैसे अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। वेस्ट यूपी में डिसआनर किलिंग, अपहरण, बलात्कार और लोगों को सरेआम गोलियों से भूनने की घटनाएं आम हैं। एनसीआर का हिस्सा नोएडा भी इससे अलग नहीं है। बीते महीनों में कैराना और मेरठ जैसी जगहों पर तो सरेआम कारोबारियों को गोली मार दी गई। गुस्साए लोगों ने चौकियां फूंक दी, बसें जला दीं लेकिन अपराधी हाथ नहीं लगे। सेंट्रल यूपी में तो बच्चियों और औरतों की शामत आई हुई है। कानपुर का दिव्या कांड,  नीलम कांड अभी ठंडा नहीं पड़ा है। कई मामलों में तो पुलिस ने झूठा वर्कआउट किया और शाबाशी ले ली। नवंबर 2009 में उन्नाव में एक पूरे परिवार की हत्या कर दी गयी। आज तक क़ातिलों को पुलिस नहीं पकड़ सकी। गांव वाले दबी ज़ुबान से हत्यारों का नाम बताते हैं। सितंबर 2010 में रायबरेली में एक नौजवान के सरेआम हाथ-पैर काट दिए गए। दबंग थाने में बैठे थे और सड़क पर खूनी खेल चल रहा था मुख्यमंत्री को भी ये पता है लेकिन कुछ नहीं हुआ। पूर्वांचल में भी संगठित अपराध अब थामे नहीं थम रहा। पूरे प्रदेश में गुंडाटैक्स (रंगदारी) वसूलने का काम फिर से शुरू हो गया है। हत्या की वारदातें बढ़ी हैं। पंचायत चुनावों में तो इतना खूनखराबा हुआ कि 2005 के पहले वाले बिहार के जानकार भी चकरा गए।

इन सबके बीच सबसे ख़राब बात ये है कि सरकार और जनता के बीच दूरियां लगातार बढ़ रही हैं। 2007 में कुर्सी संभालने के बाद मुख्यमंत्री मायावती शायद ही कभी किसी गांव-शहर के दौरे पर जाती हों। चौकस पुलिसिंग के लिए बड़े शहरों में एसएसपी के पद पर डीआईजी रैंक के अफसर मुख्यमंत्री ने बैठा रखे हैं। आईएएस-आईपीएस बेलगाम हैं। अफसर कुर्सी संभालते नहीं कि तबादले के दूसरे आदेश आ जाते हैं। बड़े शहरों में डीआईजी/एसएसपी का औसत कार्यकाल 4 महीने का हो गया है। लोगों को भी पुलिस अब नहीं सुहाती,  भरोसा जो उठ गया। आये दिन पुलिस-पब्लिक में झड़पें होती हैं। पुलिस निहत्थों पर लाठी-गोली चलाती है। बेसिक पुलिसिंग के फंडे अब यूपी में नहीं दिखते। अब आगे क्या होगा ? आइए हम भारतवासी यूपी में खुशहाली और शान्ति की दुआ करें...आमीन !
(लेखक प्रवीन मोहता आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं)

1 comment:

  1. पसंद आई पोस्ट लेकिन इस विषय पर अभी और भी बहुत खुच लिखा जा सकता है.विषय के मर्म को बखूबी समझा और समझाया भी

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