मंजीत ठाकुर |
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज के वरिष्ठ संवाददाता है.)
चीन मे एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है। शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रही है, वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं। नेचर पत्रिका में तो कुछ महीने पहले धान के जीनोमिक सीक्वेंस को छापा भी गया है।
एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में 80 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब 50 लाख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ों को और भी भयावह बनाता है यह तथ्य कि दुनिया की आबादी में हर साल 8 करोड़ 60 लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले दो दशकों में चावल की उपज को 30 फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा।
लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा? आमतौर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना।
एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में 80 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब 50 लाख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ों को और भी भयावह बनाता है यह तथ्य कि दुनिया की आबादी में हर साल 8 करोड़ 60 लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले दो दशकों में चावल की उपज को 30 फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा।
लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा? आमतौर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना।
साठ के दशक के पहले, पहले वाले विकल्प को ज्यादा आसान मानकर उसी पर अमल किया गया। परिणाम सबके सामने है। हमने विश्वभर में बहुमूल्य जंगलों की कटाई कर उनमें खाद्यान्न बो दिए और प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन को न्यौता दिया। लेकिन 60 के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति की नजाकत को भांपकर दूसरे विकल्प यानी पैदावार बढ़ाने पर जोर दिया। इसके लिए बीजों की गुणवत्ता में सुधार और तकनीकी साधनों की ओर ध्यान दिया जाने लगा। नतीजतन, हरित क्रांति सामने आई। जैसे ही पौधों की नई किस्में पूरे विश्व में बोई जाने लगी, फसल उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर 2 फीसदी सालाना के आसपास रही।
फोटो साभार google |
सफर में कुछ पड़ाव भी आए। पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों पर उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से खत्म हो जाती है।
कई वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचाने का उपाय जीन इंजिनिरिंग से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट-प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई।
मेरा खयाल है कि यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानों में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।
हरित क्रांति के तहत भारत में वैसे तो, 1983 से ही चावल के भी संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन 1987 में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। हरित क्रांति के इस दूसरे चरण में 14 राज्यों के 169 ज़िलों का चुनाव किया गया। संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए 169 में से 108 ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के 7 और पंजाब के 3 ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। दूसरे प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) के 30, उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के 38, बिहार के 18,राजस्थान के 14 और महाराष्ट्र के 12 ज़िले शामिल थे।
दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) को खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा देश है।
चवाल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते है। ऐसे में , रोग, पेस्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।
कई वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचाने का उपाय जीन इंजिनिरिंग से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट-प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई।
मेरा खयाल है कि यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानों में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।
हरित क्रांति के तहत भारत में वैसे तो, 1983 से ही चावल के भी संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन 1987 में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। हरित क्रांति के इस दूसरे चरण में 14 राज्यों के 169 ज़िलों का चुनाव किया गया। संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए 169 में से 108 ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के 7 और पंजाब के 3 ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। दूसरे प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) के 30, उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के 38, बिहार के 18,राजस्थान के 14 और महाराष्ट्र के 12 ज़िले शामिल थे।
दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) को खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा देश है।
चवाल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते है। ऐसे में , रोग, पेस्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।
कृषि और विज्ञान से जुड़े इस लेख के लिए मंजीत धन्यवाद के पात्र हैं। पात्र, प्रणीण मोहता भी हैं जिन्होंने कई मित्रों से लेख लिखवा लिया-वरना ये काम ऐसा ही है जैसे किसी कब्ज की बीमारी से ग्रस्त आदमी का सबरे 5 बजे दिशा-मैदान हो आना...! वैसे उम्मीद है कि भारतीय जनसंचार संस्थान के ओजस्वी और तेजस्वी किस्म के हमारे अन्य साथी जल्द ही लेखकीय कब्जियत से मुक्त होकर अपना अनुभव बांटेंगे।
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