Monday, February 14, 2011

मुखौटा पहने घूमती दुनिया !

धीरज वशिष्ठ 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
एक दोस्त के यहां पिछले दिनों गया। रास्ते से गुजर रहा था तो सोचा मिलता चलूं। घर पहुंचा तो भाईसाहब पूरी तरह फिट-फाट होकर कहीं जाने की तैयारी में दिखे। मैंने पूछा कि लगता है ग़लत वक़्त पर आ गया, तुम कहीं निकल रहे हो क्या?  उसने कहा नहीं यार, आओ बैठो। मैंने पूछा फिर कहीं से आ रहे हो? बोला, अबे, नहीं यार, कहीं से नहीं आ रहा। मैंने पूछा तो फिर ये बाबूसाहब बनकर क्यों घर पर बैठे हो?  उसने कहा, इसके पीछे कहानी है। दरअसल अगर घर में कोई ऐसा बंदा आ जाता है जिसके साथ मैं वक़्त बिल्कुल गुजारना नहीं चाहता तो कह देता हूं कि अरे यार तुम ग़लत वक़्त पर आ गए, मैं तो कहीं निकल रहा हूं। दूसरी तरफ तुम्हारी तरह कोई मनपसंद शख़्स आ जाता है तो कहता हूं कि ठीक वक़्त पर आए हो मैं अभी-अभी बाहर से ही आ रहा हूं।

मुझे ये बात सुनकर खुशी कम, हैरानी ज़्यादा हुई। मैं सोचने लगा कि ये भी क्या तरीक़ा है जीने का?  हम मुखौटा पहने क्यों घूमते रहते हैं ? जैसा शख़्स सामने दिखा उसके हिसाब से चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लिया।
न्यूज़ चैनल में काम करते हुए इस तरह के मुखौटा व्यक्तित्वको मैंने खूब देखा। बॉस के दिमाग में कोई आइडिया आया नहीं कि उनके सामने मुखौटों की भीड़ नज़र आने लगती है। वाह सर, क्या स्टोरी आइडिया है, ज़बरदस्त टीआरपी बटोर लेंगे हमलोग। बॉस थोड़ा से हटे नहीं कि फुसफुसाहट शुरू। अबे यार, इस स्टोरी पर कहीं आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का है ?  इससे कचरा तो कुछ नहीं होगा यार..वगैरह..वगैरह। देख लीजिए, मुखौटा अब बदल गया

उखाड फेकना होगा मुखौटा 
आए दिन हमारे-आपके चारों तरफ मुखौटों की ये भीड़ नज़र आती रहती है। स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि हम ख़ुद के चेहरे पर कब कौन-सा मुखौटा चढ़ा लेते हैं ये ख़ुद को भी नहीं पता। हम झूठे चेहरे को लेकर घूम रहे हैं। हम नकली व्यक्तित्व को ढोए चले जा रहे हैं। मुखौटे के ऊपर मुखौटा। नकली चेहरे के ऊपर एक और नकली चेहरा। हम दिनभर में इतने बार मुखौटे बदलते रहते हैं कि किसी कोने से आ रही हमारे ही व्यक्तित्व की सिसकियां ही हमें सुनाई नहीं देती।    

एक खंडित व्यक्तित्व चारों तरफ नज़र आ रहा है। हमने ख़ुद को ही कई टुकड़ों में बांट रखा है। इस मुखौटे ने हमारा क़त्ल कर दिया है। इस मुखौटे ने हमें ख़ुद से अनजान बना दिया है। इस मुखौटे ने हमारे हर एक भरोसे का गला घोंट दिया है। इस मुखौटे ने शक, फ़रेब और धोखे की दीवार खड़ी कर दी है। नहीं, सारे मुखौटों को अब उतारना पड़ेगा। इस झूठे व्यक्तित्व को गिराना होगा। हम जैसे हैं, वैसे नग्न खड़े हो जाएं- कोई मुखौटा नहीं, सिर्फ असली चेहरा।

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Thursday, February 10, 2011

Less Than Life Itself

DHEERAJ KUMAR
( The writer is IIMC alumnus and Senior Associate Producer in CNBC-Awaaz.)
"Zindagi pe tera mera kisi ka na zor hai, hum sochte hain kuchh yeh saali sochti kuchh aur hai..." These lines from the songs of the film may be true for real life but at least these are true for Sudhir Mishra's new film ‘Ye Saali Zindagi’. I feel that what he initially thought to make was much different from the end product which is before us as a film. It happens very rarely that you like the acting in the film but overall the film disappoints you. YSZ is one of those films which looks promising and lively in promos but when you go to theatre, you find your expectations shattered. Sudhir Mishra is counted amongst the sensible and serious film makers whose films are not typical bollywood masala movies. But only having some good actors and let the film loose at all ends cannot make a great movie and this is the case with YSZ. No doubt, the potential of a great movie was there in the story but the narrative is not catchy enough to let you stick with your seats in theatre. 

Yeh Saali Zindagi : looks imprssive in promos
 These days it’s becoming fashionable to use cuss words and raw language in dialogue to give the film a reality touch as we have seen recently in ‘No One Killed Jessica.’ But if you find abuses in every second dialogue without any need, you don't find those saucy but they irritate you. There are some really good dialogues in the movie but I cannot buy the argument that for making a real life drama you need to have dialogues full with GAALIAN. The main protagonist of the film Irrfan loves sexy and charming club singer Chitrangada and due to this love how he makes his life complicated is the main story of the film. The film has many more characters who come across during various events occurred in the movie but the narrative becomes so complex in the beginning that you get a bit confused. Arunodaya and Aditi Rao have shown good acting skills and Saurabh Shukla is fabulous as always. Rest of the artists who are part of the film have done justice with their role and definitely can get a thumbs up for that. But due to the weak script and screenplay their efforts have been in waste, I think.

Sudhir tried to maintain the pace of the film but it seems that many a times things go out of his hands. Though never in the film, none of the characters of the film preach you about morality and ethics which brings the film near to the realities of life, but during your stay in the theatre, you hardly identify with any of the characters and this is the biggest weakness of YSZ. There are some comical moments and sometimes you think that Sudhir has tried to make a dark comedy. But when the film ends, you feel as if you have come off a roller coaster ride! (Was there a need for this, I don't know). The music as well as the background score is better than average, cinematography and editing is ok but overall the film does not leave indelible mark on your mind which you expect when you see the promos of the film on your TV sets. So, what more to say, if you miss it, believe me you are not in a loss. :)
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Thursday, February 3, 2011

देसी सिनेमा : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं कामयाब

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
भारत में सिनेमा एक जुनून है और भारतीय सिने-उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा भी है। तकरीबन एक हजार फिल्मे हम हर साल बना डालते हैं। लेकिन इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अच्छे और कामयाब सिनेमा के तौर पर जाने नहीं जाते। 

भारतीय मापदंड के आधार पर तो हिंदी फ़िल्मों ने काफ़ी तरक्की की हैतकनीक के मामले में  हम आगे आए हैं और बाजार पहले से ज्यादा स्थिर हो गया है। लोकप्रियता और पहुंच के मामले में भी हम तकरीबन ग्लोबल हो गए हैं। भारत के अलावा हिंदी फ़िल्में मध्य-पूर्व और मध्य एशियाअफ़्रीका, अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया के कई हिस्सों में अपना एक अलग दर्शक वर्ग बना चुकी हैं। 

राज कपूर की आवारा’  से शाहरुख़ की कभी अलविदा न कहना’ तक विदेशों में हिंदी फ़िल्मों ने अच्छा कारोबार किया। लेकिन सवाल फिर भी बरकरार है कि क्या ये लोकप्रियता और कमाई  बॉलीवुड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन सिनेमा की कतार में खड़ा कर पाई है?

आज़ाद भारत के करीब 60  वर्षों के इतिहास में विदेशी भाषा की श्रेणी में कोई भी हिंदी फ़िल्म ऑस्कर नहीं जीत पाईं है- केवल तीन हिंदी फ़िल्में,  मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान अंतिम पांच में नामांकित हो पाई हैं। जिस स्लमडॉग मिलियनेयर  के आस्कर जीतने पर हम खुशी से झूम उठे,  मालूम हो कि इस फिल्म की महज पृष्ठभूमि और कलाकार ही भारतीय है। 

पथेर पांचाली : अंतरराष्ट्रीय  पहचान  मिली 
दरअसल, अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने की रेस हमने अभी तक शुरू ही नही की है। सच्चाई ये है कि विश्व सिनेमा के पटल पर भारतीय सिनेमा को पहली बार पहचान दिलाने वाली फिल्म सत्यजीत रे की पथेर पांचाली (1955) थी। रे ने यह फिल्म विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के उपन्यास के पहले हिस्से पर बनाई है। 1956 के अन्तरर्राष्ट्रीय कान फिल्म समारोह में  पथेर पांचाली को एक हृदयस्पर्शी ‘मानवीय दस्तावेज़’ कहा गया।  बाद में राय की अपू-त्रयी( अपू-ट्रिलजी) पथेर पांचाली (1955),  अपराजितो (1956)  और अपूर संसार (1959)) विश्व सिनेमा को भारतीय सिनेमा की देन मानी गई।

अडूर गोपालकृष्णन 
सत्यजीत रे के ही दौर के ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की कृतियां भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई हैं। घटक की फिल्मों में भारत विभाजन की त्रासदी कहानी की पृष्ठभूमि के रूप मौजूद रहती है। सत्यजीत रे की फिल्मों की एडिटिंग के तरीक़े में कट्स बेहद क़रीने के थे। मिसाल पथेर पाचाली  और  चारुलता हैं  लेकिन इसके उलट, घटक की फिल्मों के कट्स झटकेदार रहे। चाहे वो मेघे ढाका तारा’,’ सुबर्नरेखा हो या तिसता एकती नदीर नाम हो। जाहिर है कला और शिल्प के स्तर पर प्रयोग हमारी फिल्मों में भी देखे जाने लगे। आज भी बांग्ला के गौतम घोष, अपर्णा सेन और रितुपर्णो घोष जैसे फिल्मकार अपनी स्वतंत्र सोच और कलाशैली के साथ फिल्में बना रहे हैं।
बांग्ला फिल्मों के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भारतीय सिनेमा को इज़्ज़त मिली वह मलयालम की वजह से। 
गिरीश कर्नाड 
अडूर गोपालाकृष्णन ने 1984 में अपनी फिल्म मुखामुखम में एक ऐसा विषय उठाया, जिस पर फिल्म बनाने की बात कोई हिंदी फिल्मकार तो सोच भी नहीं सकता। मुखामुखम कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कलह, बिखराव और संकट की कहानी कहती है। नाल्लू पेनुगल हो या ओरु पेनम रंदानम, अडूर ने अपनी फिल्मों मे भारतीय जीवन के किसी न किसी पहलू को रेखांकित किया है। इसी तरह जी अरविंदन ने 1974 में उत्तरायणम् से फिल्म बनाने की जो गैर-पारंपरिक शैली शुरू की,  वह 1986 में चिदंबरम् आते-आते पूरी तरह परिपक्व हो चुकी थी। जी अरविंदन की कला-शैली मुख्यधारा के लिए अजूबा ही है। मलयालम के ही एक दूसरे फिल्मकार शाजी करुन ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। 

लोकप्रियता और बाजार के लिहाज से क्षेत्रीय सिनेमा के मुक़ाबलेमुंबईया हिन्दी सिनेमा बेशक आगे रहा पर कथानकचरित्र विकास और सिनेमटोग्रफी के नज़रिये से यह कभी भी क्षेत्रीय सिनेमा की गहराई हासिल नहीं कर पाया है।  

मलयालम की ही तरह मराठी सिनेमा भी विषय-वैविध्य के लिए मशहूर है। वी शांताराम की कुंकू (1937) और मानूस (1939) नारी मुक्ति और वेश्याओं के उद्धार की कहानी बेहतरीन सिनेमाई शैली में करती है। मौजूदा दौर में मराठी  सिनेमा में जब्बार पटेल और अमोल पालेकर जैसे फिल्मकारों के अलावा नई पौध भी उग आई है। संदीप सावंत की श्वास मराठी सिनेमा में कला के रेनेसां जैसा माना जा रहा है।

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास और विस्तार के लिहाज से  60 और 70 का दशक  स्वर्ण-काल था। इस दौर में हिंदी में जहां रोमांस का बोलबाला था, और बाद में चाकलेटी हीरो के चरित्र का विस्तार हुआ, क्षेत्रीय सिनेमा खुरदरी ज़मीन पर यथार्थ की तलाश कर रहा था। इन्ही दिनों बंगाल के बाद केरलकर्नाटक,असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में नई धारा का सिनेमा फला-फूला।   

वी. शांताराम 
कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कर्नाडब.व.कारंत और गिरीश कासरावल्ली ने अपनी फ़िल्मों से एक नई सांस्कृतिक क्रांति’ पैदा की। एक नाटककार के रूप में पहले ही मशहूर हो चुके गिरीश कर्नाड ने वंशवृक्षसे एक बेहतर निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनाई। ब व कारंत ने कर्नाड के साथ कई फिल्में की, लेकिन कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कासरावल्ली की जगह वही है जो केरल में अडूर गोपालाकृष्णन की है। हाल में गिरीश कासरावल्ली की गुलाबी टॉकीज़ ने एक बार फिर साबित किया कि आखिर क्यों क्षेत्रीय सिनेमा को दिलों और जिंदगी के करीब माना जाता है।
असम के सबसे चर्चित फिल्मकार जाह्नू बरुआ की हलोदया चौराये बाओधन खाय और रखगोरोलोये बोहु दूर जैसी फ़िल्में सामाजिक भ्रष्टाचारउत्पीड़न और राजनीतिक दुष्चक्र में फंसे कमजोर और वंचित तबके के जीवन संघर्ष की कथा कहती हैं। इसी तरह उड़िया में नीरद महापात्रा ने माया मिरगा के जरिए परिवार के टूटने की वजह गरीबी बताई। समाज की कसमसाहट का ऐसा जिक्र हिंदी में कम ही मिलता है।

लब्बोलुआब यह कि एक और जहां हिंदी सिनेमा दर्शकों को सपनीली दुनिया में ले जाता रहा, एक काल्पनिक दुनिया रचता रहा वहीं तमाम उपेक्षाओं के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा न सिर्फ जिंदा है बल्कि नई ज़मीन भी फोड़ रहा है...क्योंकि उसके पास दृष्टि भी है और मकसद भी।

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Friday, January 28, 2011

Why govt’s defence of CVC does not hold much water

RAJIV KUMAR
(Writer is Associate Producer in Headlines Today)
The Government has come out with a bizarre defence of beleaguered CVC (Chief Vigilance Commissioner) PJ Thomas. In a shocking disclosure, the Govt. told the Supreme Court that it was not aware of charges against Thomas in the Palmolien Oil import scam.
As far as I know, before the appointment of any candidate to the exalted office, the EMPANELMENT COMMITTEE (EC) forwards the name of potential candidates to the Top committee, which includes the PM, Finance Minister and the Leader of Opposition.

The EC, in-turn, before recommending the names, consider three points, which are


1. Who is the senior most candidate?
2. His record from Ministry of Personnel (MoP). (Experience; taint, if any).
3. A check of his antecedents by the Intelligence Bureau. (Crime record; cases, if any)
Only after being satisfied that all the above three parameters are met, the EC recommends the candidate for further perusal to the Top Committee.

Now the questions to be raised are:

Mr. Thomas are you ready to go???

1. Did PJ Thomas’s record with MoP fail to mention the fact that he was involved in the Palmolein oil import scam?

2. How did the IB fail to report that PJ has a taint on his career?

3. Sushma Swaraj is on record saying that she “brought this fact to the notice of Prime Minister and Home Minister in the meeting.”

Why then, did the Govt. override Opposition Leader’s objection? These are many of the few questions the Govt. need to answer to the nation. Its affidavit in the apex court that Thomas is an "outstanding officer of impeccable integrity” does not hold much water in the eyes of the public; let alone the SC, which definitely has more wisdom and prudence. The UPA Govt. must understand the fact that India cannot afford to have a ‘sacrosanct’ head of top surveillance watchdog (CVC) vouching for his integrity in the apex court.


NOTE: TOP COMMITTEE
(a) The Prime Minister - Chairperson;
(b) The Minister of Home Affairs - Member;
(c) The Leader of the Opposition in the House of the People - Member.



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