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मंजीत ठाकुर |
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
भारत में सिनेमा एक जुनून है और भारतीय सिने-उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा भी है। तकरीबन एक हजार फिल्मे हम हर साल बना डालते हैं। लेकिन इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अच्छे और कामयाब सिनेमा के तौर पर जाने नहीं जाते।
भारतीय मापदंड के आधार पर तो हिंदी फ़िल्मों ने काफ़ी तरक्की की है, तकनीक के मामले में हम आगे आए हैं और बाजार पहले से ज्यादा स्थिर हो गया है। लोकप्रियता और पहुंच के मामले में भी हम तकरीबन ग्लोबल हो गए हैं। भारत के अलावा हिंदी फ़िल्में मध्य-पूर्व और मध्य एशिया, अफ़्रीका, अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया के कई हिस्सों में अपना एक अलग दर्शक वर्ग बना चुकी हैं।
राज कपूर की ‘आवारा’ से शाहरुख़ की ‘कभी अलविदा न कहना’ तक विदेशों में हिंदी फ़िल्मों ने अच्छा कारोबार किया। लेकिन सवाल फिर भी बरकरार है कि क्या ये लोकप्रियता और कमाई बॉलीवुड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन सिनेमा की कतार में खड़ा कर पाई है?
आज़ाद भारत के करीब 60 वर्षों के इतिहास में विदेशी भाषा की श्रेणी में कोई भी हिंदी फ़िल्म ऑस्कर नहीं जीत पाईं है- केवल तीन हिंदी फ़िल्में, मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान अंतिम पांच में नामांकित हो पाई हैं। जिस स्लमडॉग मिलियनेयर के आस्कर जीतने पर हम खुशी से झूम उठे, मालूम हो कि इस फिल्म की महज पृष्ठभूमि और कलाकार ही भारतीय है।
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पथेर पांचाली : अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली |
दरअसल, अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने की रेस हमने अभी तक शुरू ही नही की है। सच्चाई ये है कि विश्व सिनेमा के पटल पर भारतीय सिनेमा को पहली बार पहचान दिलाने वाली फिल्म सत्यजीत रे की पथेर पांचाली (1955) थी। रे ने यह फिल्म विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के उपन्यास के पहले हिस्से पर बनाई है। 1956 के अन्तरर्राष्ट्रीय कान फिल्म समारोह में पथेर पांचाली को एक हृदयस्पर्शी ‘मानवीय दस्तावेज़’ कहा गया। बाद में राय की अपू-त्रयी( अपू-ट्रिलजी) पथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) और अपूर संसार (1959)) विश्व सिनेमा को भारतीय सिनेमा की देन मानी गई।
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अडूर गोपालकृष्णन |
सत्यजीत रे के ही दौर के ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की कृतियां भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई हैं। घटक की फिल्मों में भारत विभाजन की त्रासदी कहानी की पृष्ठभूमि के रूप मौजूद रहती है। सत्यजीत रे की फिल्मों की एडिटिंग के तरीक़े में कट्स बेहद क़रीने के थे। मिसाल ‘पथेर पाचाली’ और ‘चारुलता’ हैं लेकिन इसके उलट, घटक की फिल्मों के कट्स झटकेदार रहे। चाहे वो ‘मेघे ढाका तारा’,’ सुबर्नरेखा’ हो या ‘तिसता एकती नदीर नाम’ हो। जाहिर है कला और शिल्प के स्तर पर प्रयोग हमारी फिल्मों में भी देखे जाने लगे। आज भी बांग्ला के गौतम घोष, अपर्णा सेन और रितुपर्णो घोष जैसे फिल्मकार अपनी स्वतंत्र सोच और कलाशैली के साथ फिल्में बना रहे हैं।बांग्ला फिल्मों के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भारतीय सिनेमा को इज़्ज़त मिली वह मलयालम की वजह से।
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गिरीश कर्नाड |
अडूर गोपालाकृष्णन ने 1984 में अपनी फिल्म ‘मुखामुखम’ में एक ऐसा विषय उठाया, जिस पर फिल्म बनाने की बात कोई हिंदी फिल्मकार तो सोच भी नहीं सकता। ‘मुखामुखम’ कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कलह, बिखराव और संकट की कहानी कहती है। ‘नाल्लू पेनुगल’ हो या ओरु पेनम रंदानम, अडूर ने अपनी फिल्मों मे भारतीय जीवन के किसी न किसी पहलू को रेखांकित किया है। इसी तरह जी अरविंदन ने 1974 में ‘उत्तरायणम्’ से फिल्म बनाने की जो गैर-पारंपरिक शैली शुरू की, वह 1986 में ‘चिदंबरम्’ आते-आते पूरी तरह परिपक्व हो चुकी थी। जी अरविंदन की कला-शैली मुख्यधारा के लिए अजूबा ही है। मलयालम के ही एक दूसरे फिल्मकार शाजी करुन ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है।
लोकप्रियता और बाजार के लिहाज से क्षेत्रीय सिनेमा के मुक़ाबले, मुंबईया हिन्दी सिनेमा बेशक आगे रहा पर कथानक, चरित्र विकास और सिनेमटोग्रफी के नज़रिये से यह कभी भी क्षेत्रीय सिनेमा की गहराई हासिल नहीं कर पाया है।
मलयालम की ही तरह मराठी सिनेमा भी विषय-वैविध्य के लिए मशहूर है। वी शांताराम की कुंकू (1937) और मानूस (1939) नारी मुक्ति और वेश्याओं के उद्धार की कहानी बेहतरीन सिनेमाई शैली में करती है। मौजूदा दौर में मराठी सिनेमा में जब्बार पटेल और अमोल पालेकर जैसे फिल्मकारों के अलावा नई पौध भी उग आई है। संदीप सावंत की ‘श्वास’ मराठी सिनेमा में कला के रेनेसां जैसा माना जा रहा है।
क्षेत्रीय सिनेमा के विकास और विस्तार के लिहाज से 60 और 70 का दशक स्वर्ण-काल था। इस दौर में हिंदी में जहां रोमांस का बोलबाला था, और बाद में चाकलेटी हीरो के चरित्र का विस्तार हुआ, क्षेत्रीय सिनेमा खुरदरी ज़मीन पर यथार्थ की तलाश कर रहा था। इन्ही दिनों बंगाल के बाद केरल, कर्नाटक,असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में नई धारा का सिनेमा फला-फूला।
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वी. शांताराम |
कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कर्नाड, ब.व.कारंत और गिरीश कासरावल्ली ने अपनी फ़िल्मों से एक नई ‘सांस्कृतिक क्रांति’ पैदा की। एक नाटककार के रूप में पहले ही मशहूर हो चुके गिरीश कर्नाड ने ‘वंशवृक्ष’से एक बेहतर निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनाई। ब व कारंत ने कर्नाड के साथ कई फिल्में की, लेकिन कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कासरावल्ली की जगह वही है जो केरल में अडूर गोपालाकृष्णन की है। हाल में गिरीश कासरावल्ली की ‘गुलाबी टॉकीज़’ ने एक बार फिर साबित किया कि आखिर क्यों क्षेत्रीय सिनेमा को दिलों और जिंदगी के करीब माना जाता है।असम के सबसे चर्चित फिल्मकार जाह्नू बरुआ की ‘हलोदया चौराये बाओधन खाय’ और ‘रखगोरोलोये बोहु दूर’ जैसी फ़िल्में सामाजिक भ्रष्टाचार, उत्पीड़न और राजनीतिक दुष्चक्र में फंसे कमजोर और वंचित तबके के जीवन संघर्ष की कथा कहती हैं। इसी तरह उड़िया में नीरद महापात्रा ने माया मिरगा के जरिए परिवार के टूटने की वजह गरीबी बताई। समाज की कसमसाहट का ऐसा जिक्र हिंदी में कम ही मिलता है।
लब्बोलुआब यह कि एक और जहां हिंदी सिनेमा दर्शकों को सपनीली दुनिया में ले जाता रहा, एक काल्पनिक दुनिया रचता रहा वहीं तमाम उपेक्षाओं के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा न सिर्फ जिंदा है बल्कि नई ज़मीन भी फोड़ रहा है...क्योंकि उसके पास दृष्टि भी है और मकसद भी।