मंजीत ठाकुर |
"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्मों की नायिका ज़माने से ‘मज़लूम’ होने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है।
हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाते थे और सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखें तो आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहम के साथ ही गढ़ा गया है।
हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएं देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम की ‘दुनिया ना माने’ में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है।
लेकिन 'दुनिया न मानें' की शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर ‘तदबीर’ की नरगिस या ‘तानसेन’ की खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है।
नर्गिस : अब तक याद मदर इंडिया |
आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की ‘सीमा’ और बिमल रॉय की ‘बंदिनी’ में महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता दलित लड़की के सपने और डर को तो ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुपमा' और 'अनुराधा' भी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है।
मधुबाला के दीवाने हुए दर्शक |
नरगिस, कामिनी कौशल, मधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थीं, फिर भी 'अंदाज़' दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसात' राजकपूर की और 'महल' अशोक कुमार की।
हालांकि राज कपूर की ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में ‘प्रेम रोग’ विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं। वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं।
मन गुदगुदाती थीं जया भादुडी |
70 के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयी, स्नेही, और नायक की राह में आंचल बिछाए बैठी एक आदर्श नारी बनी रही। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है।
80 का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथा' और चश्मेबद्दूर या 'गोलमाल' जैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैं, पर ये परंपरा कायम नहीं रह पाती।
शबाना का संजीदा अभिनय |
‘सुबह’ और ‘भूमिका’ भी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने ‘जख्मी औरत’ ‘रुदाली’ और ‘लेकिन’ से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए।
स्मिता अब तक यादें ताज़ा |
काजोल ‘दुश्मन’ और ‘बाज़ीगर’ में कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के 'ब्लैक' में कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की ‘सत्ता’ या गुलजार की 'हू तू तू' बेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं।
ग्लोबल हों रहीं बॉलीवुड की अदाकारा |
हाल की इश्क़िया में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखे, बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएँगे..."
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मंजीत जारी रहो। बढ़िया जा रहे हो।
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