Tuesday, January 18, 2011

अब भी 'मज़लूम' बॉलीवुड की नायिकाएं

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्मों की नायिका ज़माने से ‘मज़लूम’ होने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है।

हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाते थे और सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखें तो आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहम के साथ ही गढ़ा गया है।

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएं देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम  की ‘दुनिया ना माने’ में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है।

लेकिन 'दुनिया न मानेंकी शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर ‘तदबीर’ की  नरगिस या तानसेन’ की खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है।

नर्गिस : अब तक याद मदर इंडिया 
महबूब ख़ान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई।  केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रूप में एक और शेड मिलता है।  बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है।

आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में  नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की ‘सीमा’ और बिमल रॉय की  बंदिनी’  में महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता दलित लड़की के सपने और  डर को तो ऋषिकेश  मुखर्जी की 'अनुपमाऔर 'अनुराधाभी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है। 

मधुबाला के दीवाने हुए दर्शक 
लेकिन फ़िल्म ‘जंगली’ के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की  और ये भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है। लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा।

नरगिसकामिनी कौशलमधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थींफिर भी 'अंदाज़दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसातराजकपूर की और 'महलअशोक कुमार की।

हालांकि राज कपूर की ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में ‘प्रेम रोग’ विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं।  वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं।

मन गुदगुदाती थीं जया  भादुडी 
अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। ‘अभिमान’ या 'मिलीजैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुईं पर इसी बीच परवीन बॉबी और ज़ीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा।

70 के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयीस्नेहीऔर नायक की राह में आंचल बिछाए  बैठी एक आदर्श नारी बनी रही। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है।

80 का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथाऔर चश्मेबद्दूर  या 'गोलमालजैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैंपर ये परंपरा कायम नहीं रह पाती।

शबाना का संजीदा अभिनय 
महेश भट्ट की ‘अर्थ’ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी मिली। भट्ट की इस फ़िल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज़्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को दिखाया।
सुबह और भूमिका’ भी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने ‘जख्मी औरत’ रुदाली और लेकिन’ से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए।

स्मिता अब तक यादें ताज़ा 
सावन-भादो’ से एक अनगढ़ लड़की के रुप में आईं रेखा ने ‘उमराव जान’ और ‘खूबसूरत’ जैसी फिल्मों से अपना अलग मुकाम बनाया लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग  से ही आया।

काजोल ‘दुश्मन’ और ‘बाज़ीगर’ में कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के 'ब्लैकमें कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की ‘सत्ता’ या गुलजार की 'हू तू तूबेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं।

ग्लोबल हों रहीं बॉलीवुड की अदाकारा 
बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त  बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं। 


हाल की  इश्क़िया  में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखेबहुत खूबसूरत हैंइन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएँगे..."


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1 comment:

  1. मंजीत जारी रहो। बढ़िया जा रहे हो।

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