Tuesday, January 4, 2011

ये जो है ज़िन्दगी ..............

मुकेश झा 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र और प्रोपर्टी एक्सपर्ट पत्रिका में सीनियर सब एडिटर हैं.)
इतना आसान नहीं है, इन राहों पर चलना, जहां पर कुछ पदचिन्ह के इतिहास बने हों। कहने के लिए तो आप यह भी बोल सकते हैं कि यह दुनिया बदल रही है और वक्त बदल रहा है। हम चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर पाते हैं, जिसे करना समाज और देश के लिए बेहद ज़रूरी है। लेकिन सिस्टम ने सफलता की एक नई परिभाषा से काफी कुछ बदल दिया है। सफलता के मापदंड बदल गए हैं। एक सफल इंसान के रूप में हम खुद को तौलने के बाद ही अपनी आवाज़ बुलंद करने में ही बुद्धिमानी महसूस करते हैं।

बदल गए सफलता के पैमाने 
शायद, यह तर्क विवादों से परे हो सकता है, जब हम उसे एक मानवीय पक्ष के रूप में देखें तो। संभव भी है कि इस सिद्धांत को लेकर कुछ लोग नाक- भौं भी सिकोड़े लेकिन सत्य के करीब पहुंचना हमारे बूते से बाहर की चीज़ हो रही है। समस्याएं पहले भी थी, आज भी है और रहेंगी। समस्याओं का असली निराकरण समाज आज बेहतर रूप से नहीं ढूंढ पा रहा है।

इन समस्याओं को लेकर हाल ही मेरी बातचीत एक मनोवैज्ञानिक से हुई तो उन्होंने स्पष्ट कहा है कि समस्या का निदान उस समय तक संभव नहीं है, जब तक हर व्यक्ति इसमें अपनी महत्ता और भूमिका को लेकर अपना स्पष्ट मत न रखे। उनका यह भी कहना था कि हम पहले से ज्यादा तार्किक हो गए है। हर एक बात को तर्क की कसौटी पर कसना मानवीय सोच बनती जा रही है। दुनिया में हर एक चीज़ को आप तर्क पर रखेंगे तो संभव है कि समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती चली जाएं। 

एक और महत्वपूर्ण पक्ष सामने रखना बहुत ज़रूरी है। आपका विकास और व्यवहार कैसे और किस रूप में काम कर रहा है। इस मामले में आपके व्यक्तित्व की परिभाषा काफी हद तक परिवारिक पृष्ठभूमि दे देती है। सवाल उठता है कि एक बेहतर परिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़े लोग भी जघन्य अपराध कर रहे हैं तो फिर गलती और चूक कहां हो रही है? इसमें माध्यम की भूमिका किसी हीरो-विलेन से कम नहीं है। माध्यम यानि संचार, इसकी दुनिया समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है। ये माध्यम पहले भी थे, लेकिन वर्तमान स्वरूप अति प्रभावित कर रहा  है। दिखावे का समाज और पश्चिमी संस्कृति के बहाव ने इसकी दिशा को दिगभ्रमित कर रखा है। सामंजस्य की स्थिति लगभग खत्म होने के कगार पर है। व्यक्तिवाद की सोच को शायद फैशन और पैशन के तौर पर लिया जा रहा है। हम पहले सोचते हैं कि कहां और किसे किस रूप में बोला जाए कि हमें ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। यहां कहने का आशय है कि हम पैसों की जुबां बोलने पर खुद को बेहतर साबित करने की एक ऐसी होड़ में शामिल हैं, जहां तर्क पर दुनिया टिकी है। तर्क-विर्तक की दौड़ कोई नई नहीं है लेकिन आज के दौर में भावनाएं खोती जा रही है। आखिर किस कसौटी पर जिंदगी है। इस कसौटी को भले ही कुछ लोग और नाम दें लेकिन मज़बूरी कतई नहीं है। सवाल उठता है कि हम मज़बूर हैं या हमारी व्यवस्था मज़बूर बनने को बाध्य कर रही है।

हर चीज़ पर नहीं हों सकता तर्क-वितर्क 
एक वैज्ञानिक का कहना है कि हम समाज और व्यक्ति को एक व्यवस्थित  सॉफ्टवेयर  के रूप में देखते हैं। यह एक ऐसा सामाजिक  सॉफ्टवेयर है, जिसकी प्रोग्रामिंग सिस्टम के अनुसार इस प्रकार से हो चुकी है कि ज्यादा स्पेस इसमें खाली नहीं बचा है। स्पेस का मतलब है कि ज्यादा अतिरिक्त न तो आप कर सकते हैं और न सोच सकते हैं। खैर, मनुष्य और मशीन में एक फर्क यहां ज़रूर दिखता है कि हम यूटोपियन बनकर कुछ समय के लिए सोच सकते हैं। शायद, यह सोच का स्वरूप भी सीमित दायरे में होकर ही व्यापक बन गया है। इसे कौन और कैसे संचालित कर रहा है, यह सवाल उठना लाजिमी है। आपकी परिस्थिति आपको संचालित करती है। फिर यह परिस्थिति लाता कौन है? हम खुद अपने को लेकर जिम्मेदार ज़रूर हैं लेकिन कुछ बातें ऐसी है, जिसको लेकर हम या आप कतई जिम्मेदार नहीं हैं।


याद कीजिए वह दिन जब एक छोटी सी घटना घट जाने पर कैसी हाय-तौबा मचती थी लेकिन अब तर्क के माध्यम से लोग कुछ ज्यादा समझदार हो चुके हैं। तार्किक सिद्धांतों को लेकर बहस ज़रूर छिड़ सकती है लेकिन यह संभव है कि बिना निष्कर्ष लिए ही कहीं खत्म न हो जाए। आज हमारे सामने कितनी समस्याएं हैं, लेकिन हम उस ढंग से विरोध नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी ज़रूरत है। विरोध के रूप भी ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़ गया है। संकेत के रूप को कैंडिल ऐसे ढाल रहा है, जैसे वह कैंडिल नहीं क्रांति की मशाल हो। हम अपनी दिल की बात कैसे और किस रूप में कहें, उसके लिए तकनीकी की दुनिया ने कई नये द्वार खोल दिए हैं लेकिन क्षेत्र विस्तार अति सीमित है।

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