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Thursday, February 3, 2011

देसी सिनेमा : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं कामयाब

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
भारत में सिनेमा एक जुनून है और भारतीय सिने-उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा भी है। तकरीबन एक हजार फिल्मे हम हर साल बना डालते हैं। लेकिन इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अच्छे और कामयाब सिनेमा के तौर पर जाने नहीं जाते। 

भारतीय मापदंड के आधार पर तो हिंदी फ़िल्मों ने काफ़ी तरक्की की हैतकनीक के मामले में  हम आगे आए हैं और बाजार पहले से ज्यादा स्थिर हो गया है। लोकप्रियता और पहुंच के मामले में भी हम तकरीबन ग्लोबल हो गए हैं। भारत के अलावा हिंदी फ़िल्में मध्य-पूर्व और मध्य एशियाअफ़्रीका, अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया के कई हिस्सों में अपना एक अलग दर्शक वर्ग बना चुकी हैं। 

राज कपूर की आवारा’  से शाहरुख़ की कभी अलविदा न कहना’ तक विदेशों में हिंदी फ़िल्मों ने अच्छा कारोबार किया। लेकिन सवाल फिर भी बरकरार है कि क्या ये लोकप्रियता और कमाई  बॉलीवुड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन सिनेमा की कतार में खड़ा कर पाई है?

आज़ाद भारत के करीब 60  वर्षों के इतिहास में विदेशी भाषा की श्रेणी में कोई भी हिंदी फ़िल्म ऑस्कर नहीं जीत पाईं है- केवल तीन हिंदी फ़िल्में,  मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान अंतिम पांच में नामांकित हो पाई हैं। जिस स्लमडॉग मिलियनेयर  के आस्कर जीतने पर हम खुशी से झूम उठे,  मालूम हो कि इस फिल्म की महज पृष्ठभूमि और कलाकार ही भारतीय है। 

पथेर पांचाली : अंतरराष्ट्रीय  पहचान  मिली 
दरअसल, अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने की रेस हमने अभी तक शुरू ही नही की है। सच्चाई ये है कि विश्व सिनेमा के पटल पर भारतीय सिनेमा को पहली बार पहचान दिलाने वाली फिल्म सत्यजीत रे की पथेर पांचाली (1955) थी। रे ने यह फिल्म विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के उपन्यास के पहले हिस्से पर बनाई है। 1956 के अन्तरर्राष्ट्रीय कान फिल्म समारोह में  पथेर पांचाली को एक हृदयस्पर्शी ‘मानवीय दस्तावेज़’ कहा गया।  बाद में राय की अपू-त्रयी( अपू-ट्रिलजी) पथेर पांचाली (1955),  अपराजितो (1956)  और अपूर संसार (1959)) विश्व सिनेमा को भारतीय सिनेमा की देन मानी गई।

अडूर गोपालकृष्णन 
सत्यजीत रे के ही दौर के ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की कृतियां भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई हैं। घटक की फिल्मों में भारत विभाजन की त्रासदी कहानी की पृष्ठभूमि के रूप मौजूद रहती है। सत्यजीत रे की फिल्मों की एडिटिंग के तरीक़े में कट्स बेहद क़रीने के थे। मिसाल पथेर पाचाली  और  चारुलता हैं  लेकिन इसके उलट, घटक की फिल्मों के कट्स झटकेदार रहे। चाहे वो मेघे ढाका तारा’,’ सुबर्नरेखा हो या तिसता एकती नदीर नाम हो। जाहिर है कला और शिल्प के स्तर पर प्रयोग हमारी फिल्मों में भी देखे जाने लगे। आज भी बांग्ला के गौतम घोष, अपर्णा सेन और रितुपर्णो घोष जैसे फिल्मकार अपनी स्वतंत्र सोच और कलाशैली के साथ फिल्में बना रहे हैं।
बांग्ला फिल्मों के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भारतीय सिनेमा को इज़्ज़त मिली वह मलयालम की वजह से। 
गिरीश कर्नाड 
अडूर गोपालाकृष्णन ने 1984 में अपनी फिल्म मुखामुखम में एक ऐसा विषय उठाया, जिस पर फिल्म बनाने की बात कोई हिंदी फिल्मकार तो सोच भी नहीं सकता। मुखामुखम कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कलह, बिखराव और संकट की कहानी कहती है। नाल्लू पेनुगल हो या ओरु पेनम रंदानम, अडूर ने अपनी फिल्मों मे भारतीय जीवन के किसी न किसी पहलू को रेखांकित किया है। इसी तरह जी अरविंदन ने 1974 में उत्तरायणम् से फिल्म बनाने की जो गैर-पारंपरिक शैली शुरू की,  वह 1986 में चिदंबरम् आते-आते पूरी तरह परिपक्व हो चुकी थी। जी अरविंदन की कला-शैली मुख्यधारा के लिए अजूबा ही है। मलयालम के ही एक दूसरे फिल्मकार शाजी करुन ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। 

लोकप्रियता और बाजार के लिहाज से क्षेत्रीय सिनेमा के मुक़ाबलेमुंबईया हिन्दी सिनेमा बेशक आगे रहा पर कथानकचरित्र विकास और सिनेमटोग्रफी के नज़रिये से यह कभी भी क्षेत्रीय सिनेमा की गहराई हासिल नहीं कर पाया है।  

मलयालम की ही तरह मराठी सिनेमा भी विषय-वैविध्य के लिए मशहूर है। वी शांताराम की कुंकू (1937) और मानूस (1939) नारी मुक्ति और वेश्याओं के उद्धार की कहानी बेहतरीन सिनेमाई शैली में करती है। मौजूदा दौर में मराठी  सिनेमा में जब्बार पटेल और अमोल पालेकर जैसे फिल्मकारों के अलावा नई पौध भी उग आई है। संदीप सावंत की श्वास मराठी सिनेमा में कला के रेनेसां जैसा माना जा रहा है।

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास और विस्तार के लिहाज से  60 और 70 का दशक  स्वर्ण-काल था। इस दौर में हिंदी में जहां रोमांस का बोलबाला था, और बाद में चाकलेटी हीरो के चरित्र का विस्तार हुआ, क्षेत्रीय सिनेमा खुरदरी ज़मीन पर यथार्थ की तलाश कर रहा था। इन्ही दिनों बंगाल के बाद केरलकर्नाटक,असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में नई धारा का सिनेमा फला-फूला।   

वी. शांताराम 
कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कर्नाडब.व.कारंत और गिरीश कासरावल्ली ने अपनी फ़िल्मों से एक नई सांस्कृतिक क्रांति’ पैदा की। एक नाटककार के रूप में पहले ही मशहूर हो चुके गिरीश कर्नाड ने वंशवृक्षसे एक बेहतर निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनाई। ब व कारंत ने कर्नाड के साथ कई फिल्में की, लेकिन कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कासरावल्ली की जगह वही है जो केरल में अडूर गोपालाकृष्णन की है। हाल में गिरीश कासरावल्ली की गुलाबी टॉकीज़ ने एक बार फिर साबित किया कि आखिर क्यों क्षेत्रीय सिनेमा को दिलों और जिंदगी के करीब माना जाता है।
असम के सबसे चर्चित फिल्मकार जाह्नू बरुआ की हलोदया चौराये बाओधन खाय और रखगोरोलोये बोहु दूर जैसी फ़िल्में सामाजिक भ्रष्टाचारउत्पीड़न और राजनीतिक दुष्चक्र में फंसे कमजोर और वंचित तबके के जीवन संघर्ष की कथा कहती हैं। इसी तरह उड़िया में नीरद महापात्रा ने माया मिरगा के जरिए परिवार के टूटने की वजह गरीबी बताई। समाज की कसमसाहट का ऐसा जिक्र हिंदी में कम ही मिलता है।

लब्बोलुआब यह कि एक और जहां हिंदी सिनेमा दर्शकों को सपनीली दुनिया में ले जाता रहा, एक काल्पनिक दुनिया रचता रहा वहीं तमाम उपेक्षाओं के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा न सिर्फ जिंदा है बल्कि नई ज़मीन भी फोड़ रहा है...क्योंकि उसके पास दृष्टि भी है और मकसद भी।

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Saturday, January 22, 2011

सामाजिक मकसद भी पूरा कर रहीं फिल्में

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
भारतीय सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा में विचारधारा की बात थोड़ी अटपटी लग सकती है, क्योंकि ज्यादातर हिंदुस्तानी फ़िल्में मसाले की एय्यारी और मनोरंजन का तिलस्मी मिश्रण होती हैं। लेकिन यह भी सच है कि मनोरंजन के तमाम सीढियों पर जाने और कला-शिल्प के आरोह-अवरोहों के बावजूद सिनेमा ने पिछले आठ दशकों में सामाजिक मकसद को भी एक हद तक पूरा किया है। फूहड़ से फूहड़ फिल्म में भी कोई एक दृश्य मिसाल की तरह बन जाता है और बेहद व्यावसायिक मसाला फिल्म में भी लेखक अपनी विचारधारा उसी तरह पेश कर देता है, जैसे समोसे के भीतर आलू।  

बहुत गंभीर फिल्में, जिनके निर्देशक कला पक्ष को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं, वहां विचारधारा निर्देशक पर आधारित और सोच समझ कर फिल्म में डली होती हैं। 1930 में, जब आजादी का आंदोलन जोर पकड़ चुका था  व्रत  नाम की एक फिल्म का मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और लोगों से सच्चरित्रता की बातें करता था। इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन कर दिया।

1936 में देविका रानी और अशोक कुमार की  अछूत कन्या  में दलित समस्या जो बाद में सुजाता में भी उभरकर सामने आई और बाद में 1937 में वी शांताराम ने  दुनिया न माने  में बाल-विवाह के खिलाफ आवाज बुलंद की।

अछूत कन्या ने उठाया संवेदनशील मुद्दा
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो दादा साहब फाल्के की मूक फ़िल्मों से लेकर नए दौर के सिनेमा और समांतर सिनेमा के  युगों से होते हुए  श्याम बेनेगल की ताजातरीन  वेलकम टू सज्जनपुर  तक जो विचारधारा हिंदुस्तानी फिल्मों में दिखती है, वह उदारवादी मार्क्सवाद है। इसमें-बजाय व्यवस्था और सत्तातंत्र के खिलाफ हिंसक क्रांति के सामाजिक न्याय और उदारवादी विरोध है। यह करीब-करीब गांधीवादी आदर्शवाद ही है।

हिंदुस्तान में कट्टर और क्रांतिकारी वामपंथी विचारधारा अगर फिल्मों में विकसित नहीं हो पाई तो इसकी वजह हिंदुस्तानी जनता ही है, जो अध्यात्म और भाग्य पर ज्यादा भरोसा करती है। यहां विभाजन वर्ण का है, वर्ग का नहीं; इसलिए यहां जाति-वर्ग से ज्यादा अहम है। इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर भारतीय  सिनेमा में जो विचारधारा दिखती है वह सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाली विचारधारा है।

दो बीघा ज़मीन ने दिखाया ग्रामीणों का दर्द 
इतालवी नव-यथार्थवादी विचारधारा के असर से भारत में एक फिल्म बनी- दो बीघा ज़मीन। इस फिल्म पर विक्तोरियो डि सिका  की  लीद्री दि वीसिक्लित्ते (वायसिकिल थीव्स) का असर साफ देखा जा सकता है। ग्रामीण अत्याचारी ज़मींदारी व्यवस्था और शहरी नव-सामंतवाद के खिलाफ इस फिल्म को एक दस्तावेज़ माना जा सकता है।

70 के दशक की शुरुआत में एक ओर तो अमिताभ का अभ्युदय हुआ दूसरी ओर समानांतर सिनेमा का। बहुधा लोग अमिताभ के गुस्सैल नौजवान को एक सामाजिक चेतना के तौर पर स्वीकार करते हैं। ज़जीर का गुस्सैल पुलिस इंस्पैक्टर हो या दीवार का नाराज़ गोदी मज़दूर, या फिर त्रिशूल का बदला भंजाने पर उतारू नौजवान..। हालांकि यह जनता की नाराजगी के रूप में स्वीकृत हुआ है, लेकिन है यह निजी गुस्सा ही। तीनों ही फिल्मों का नायक अपने परिवार का बदला ले रहा होता है, यह बात दीगर है कि किरदार के निजी अनुभव आम जनता से मेल खा गए। बनिस्बत इसकेअर्धसत्य  के ओम पुरी के किरदार का गुस्सा अमिताभ के किरदारों से गुस्से से कहीं ज्यादा वैचारिक और सामाजिक चिंता से उपजा है।

कुली में दिखा आक्रोश 
दूसरी ओर उसी दौर के समांतर सिनेमा में वामपंथी विचारधारा अधिक मुखर हुईं।  अंकुर पार, निशांत अंकुश  और  आक्रोश  जैसी फिल्में इसी वैचारिक संघर्ष को पेश करती हैं।

कई बार मुख्यधारा की फिल्मों में भी कई लेखकों ने कई ऐसे किरदार रच दिए जो पूरी विचारधारा तो पेश नहीं करते लेकिन आप तक अपनी बात पहुंचा कर ही दम लेते हैं। फिल्म बंडलबाज़  में जिन्न बने शम्मी कपूर आम इंसान की तरह पहाड़ चढ़ते वक्त राजेश खन्ना से कहते हैं कि आम आदमी होना कितना मुश्किल है। अमिताभ बच्चन की प्रतिभा का फिल्मकारों ने विशुद्ध व्यावसायिक दोहन किया। लेकिन याद कीजिए फिल्म कुली का वह दृश्य जिसमें सुरेश ओबेरॉय और अमिताभ के बीच स्विमिंग पूल के पास मारपीट होती है। ओबेरॉय हथौड़ा उठा लेते हैं और अमिताभ के हाथ लग जाता है हंसिया। फिर हंसिया और हथौड़े का एक्सट्रीम क्लोज शॉट...निर्देशक ने अपना काम पूरा कर दिया, लेखक ने अपना। विचारधारा को बगैर फतवे के पेश कर दिए जाने का नायाब नमूना है यह।

गरीब आदमी के किरदार में दिखे मिथुन 
कभी अमिताभ के लिए कठिन प्रतिद्वंद्वी बन चुके मिथुन फूहड़ फिल्में बनाने में उनके भी उस्ताद निकले। लेकिन ज़रा ध्यान दीजिए, मिथुन ने ज्यादातर फिल्मों में गरीब आदमी के किरदार निभाए हैं और उनकी प्रेमिका और खलनायक हमेशा धनी-पूंजीपति होते हैं। वर्ग संघर्ष दिखाने का यह तरीका आम आदमी को बहुत भाया। मिथुन की इसकी परंपरा को बाद में गोविंदा ने चलाया, लेकिन बाद में वह दादा कोंडके की राह पर चले गए।

एक दशक होने को आए, लगान ने भी क्रिकेट के बहाने निहत्थे आम आदमी के जीवन-संग्राम में महज  साहस के बल पर कूद जाने की कहानी कही। नागेश कुकूनूर की इकबाल भी इसी आम आदमी के और भी छोटे स्वरूप को पेश किया। हाल में लगे रहो मुन्ना भाई और रंग दे बसंती ये दो फिल्में ऐसी ज़रूर आईं,  जिनमें विचार हैं। अक्सर माफिया का किरदार निभाने वाले संजय दत्त लगे रहो..में गांधीगीरी करते नज़र आए। इस फिल्म ने उस दौर में जनता को अहिंसक विरोध के नए स्वर दिए, जब बदलती दुनिया में युवा पीढ़ी गांधी को तकरीबन अप्रासंगिक मानने लगी थी। दूसरी ओर इसी युवा पीढी को विरोध का एक और विकल्प दिया, रंग दे बसंती ने।  
लगान ने दिखाया आम आदमी का संघर्ष 
हालांकि, रंग दे.. में विरोध हिंसक है..लेकिन फिल्म सोचने पर मजबूर करती है। इसमे एक विचारधारा तो है। 


ज़ाहिर है, हिंदी सिनेमा ने मनोरंजन तो किया है लेकिन उसकी भी सीमा है। सामाजिक मकसद से फिल्में तो बनी हैं, लेकिन बाजार ने हमेशा पैसे को विचारों से ऊपर जगह दी है। ऐसे में जब मणिरत्नम् भी डिस्ट्रीब्यूटर्स को लेकर जवाबदेह हो जाते हैं..तो बाकियों को क्या कहना। और नैतिकता...फिल्मी दुनिया में यह अनचीन्हा शब्द है।


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Tuesday, January 18, 2011

अब भी 'मज़लूम' बॉलीवुड की नायिकाएं

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्मों की नायिका ज़माने से ‘मज़लूम’ होने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है।

हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाते थे और सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखें तो आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहम के साथ ही गढ़ा गया है।

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएं देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम  की ‘दुनिया ना माने’ में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है।

लेकिन 'दुनिया न मानेंकी शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर ‘तदबीर’ की  नरगिस या तानसेन’ की खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है।

नर्गिस : अब तक याद मदर इंडिया 
महबूब ख़ान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई।  केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रूप में एक और शेड मिलता है।  बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है।

आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में  नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की ‘सीमा’ और बिमल रॉय की  बंदिनी’  में महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता दलित लड़की के सपने और  डर को तो ऋषिकेश  मुखर्जी की 'अनुपमाऔर 'अनुराधाभी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है। 

मधुबाला के दीवाने हुए दर्शक 
लेकिन फ़िल्म ‘जंगली’ के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की  और ये भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है। लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा।

नरगिसकामिनी कौशलमधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थींफिर भी 'अंदाज़दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसातराजकपूर की और 'महलअशोक कुमार की।

हालांकि राज कपूर की ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में ‘प्रेम रोग’ विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं।  वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं।

मन गुदगुदाती थीं जया  भादुडी 
अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। ‘अभिमान’ या 'मिलीजैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुईं पर इसी बीच परवीन बॉबी और ज़ीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा।

70 के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयीस्नेहीऔर नायक की राह में आंचल बिछाए  बैठी एक आदर्श नारी बनी रही। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है।

80 का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथाऔर चश्मेबद्दूर  या 'गोलमालजैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैंपर ये परंपरा कायम नहीं रह पाती।

शबाना का संजीदा अभिनय 
महेश भट्ट की ‘अर्थ’ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी मिली। भट्ट की इस फ़िल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज़्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को दिखाया।
सुबह और भूमिका’ भी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने ‘जख्मी औरत’ रुदाली और लेकिन’ से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए।

स्मिता अब तक यादें ताज़ा 
सावन-भादो’ से एक अनगढ़ लड़की के रुप में आईं रेखा ने ‘उमराव जान’ और ‘खूबसूरत’ जैसी फिल्मों से अपना अलग मुकाम बनाया लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग  से ही आया।

काजोल ‘दुश्मन’ और ‘बाज़ीगर’ में कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के 'ब्लैकमें कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की ‘सत्ता’ या गुलजार की 'हू तू तूबेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं।

ग्लोबल हों रहीं बॉलीवुड की अदाकारा 
बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त  बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं। 


हाल की  इश्क़िया  में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखेबहुत खूबसूरत हैंइन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएँगे..."


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