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Monday, February 14, 2011

मुखौटा पहने घूमती दुनिया !

धीरज वशिष्ठ 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
एक दोस्त के यहां पिछले दिनों गया। रास्ते से गुजर रहा था तो सोचा मिलता चलूं। घर पहुंचा तो भाईसाहब पूरी तरह फिट-फाट होकर कहीं जाने की तैयारी में दिखे। मैंने पूछा कि लगता है ग़लत वक़्त पर आ गया, तुम कहीं निकल रहे हो क्या?  उसने कहा नहीं यार, आओ बैठो। मैंने पूछा फिर कहीं से आ रहे हो? बोला, अबे, नहीं यार, कहीं से नहीं आ रहा। मैंने पूछा तो फिर ये बाबूसाहब बनकर क्यों घर पर बैठे हो?  उसने कहा, इसके पीछे कहानी है। दरअसल अगर घर में कोई ऐसा बंदा आ जाता है जिसके साथ मैं वक़्त बिल्कुल गुजारना नहीं चाहता तो कह देता हूं कि अरे यार तुम ग़लत वक़्त पर आ गए, मैं तो कहीं निकल रहा हूं। दूसरी तरफ तुम्हारी तरह कोई मनपसंद शख़्स आ जाता है तो कहता हूं कि ठीक वक़्त पर आए हो मैं अभी-अभी बाहर से ही आ रहा हूं।

मुझे ये बात सुनकर खुशी कम, हैरानी ज़्यादा हुई। मैं सोचने लगा कि ये भी क्या तरीक़ा है जीने का?  हम मुखौटा पहने क्यों घूमते रहते हैं ? जैसा शख़्स सामने दिखा उसके हिसाब से चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लिया।
न्यूज़ चैनल में काम करते हुए इस तरह के मुखौटा व्यक्तित्वको मैंने खूब देखा। बॉस के दिमाग में कोई आइडिया आया नहीं कि उनके सामने मुखौटों की भीड़ नज़र आने लगती है। वाह सर, क्या स्टोरी आइडिया है, ज़बरदस्त टीआरपी बटोर लेंगे हमलोग। बॉस थोड़ा से हटे नहीं कि फुसफुसाहट शुरू। अबे यार, इस स्टोरी पर कहीं आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का है ?  इससे कचरा तो कुछ नहीं होगा यार..वगैरह..वगैरह। देख लीजिए, मुखौटा अब बदल गया

उखाड फेकना होगा मुखौटा 
आए दिन हमारे-आपके चारों तरफ मुखौटों की ये भीड़ नज़र आती रहती है। स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि हम ख़ुद के चेहरे पर कब कौन-सा मुखौटा चढ़ा लेते हैं ये ख़ुद को भी नहीं पता। हम झूठे चेहरे को लेकर घूम रहे हैं। हम नकली व्यक्तित्व को ढोए चले जा रहे हैं। मुखौटे के ऊपर मुखौटा। नकली चेहरे के ऊपर एक और नकली चेहरा। हम दिनभर में इतने बार मुखौटे बदलते रहते हैं कि किसी कोने से आ रही हमारे ही व्यक्तित्व की सिसकियां ही हमें सुनाई नहीं देती।    

एक खंडित व्यक्तित्व चारों तरफ नज़र आ रहा है। हमने ख़ुद को ही कई टुकड़ों में बांट रखा है। इस मुखौटे ने हमारा क़त्ल कर दिया है। इस मुखौटे ने हमें ख़ुद से अनजान बना दिया है। इस मुखौटे ने हमारे हर एक भरोसे का गला घोंट दिया है। इस मुखौटे ने शक, फ़रेब और धोखे की दीवार खड़ी कर दी है। नहीं, सारे मुखौटों को अब उतारना पड़ेगा। इस झूठे व्यक्तित्व को गिराना होगा। हम जैसे हैं, वैसे नग्न खड़े हो जाएं- कोई मुखौटा नहीं, सिर्फ असली चेहरा।

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Sunday, January 16, 2011

तेज़ी, तरक्की और तनाव

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धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
तेज़ भागती जिंदगी में एक कॉमन प्रॉब्लम जो हमारे सामने आ खड़ी है वो है- तनाव। हाई ब्लडप्रेशर, ऐंगज़ाइटी (चिंता), डिप्रेशन जैसी तमाम बीमारियां इस तनाव की देन है। छोटे बच्चों से लेकर बड़े कामकाजी लोग हर कोई तनाव से दो-चार है। ऐसे में सवाल है कि इस तनाव से छुटकारा कैसे मिले? योग की परंपरा में तनाव से लड़ने की अचूक तकनीक है। आसन, प्राणायाम और रिलेक्शेशन तकनीक से लेकर कई दूसरी तमाम चीज़ें। न्यूज़ रूम के फाइव फ़िटनेस मंत्र आलेख में मैंने इससे संबंधित कुछ चीजों का ज़िक्र किया था, लेकिन यहां तनाव को लेकर योग के जो गहरे कॉन्सेप्ट हैं, उसकी बात करेंगे।


क्यों होता है तनाव ?
तैतरीय उपनिषद हमारे शरीर को पांच कोशों का बना मानता है। इन पांच कोशों में मनोमय कोश काफी अहम हैं। तनाव का संबंध मनोमय कोश में असंतुलन से है। असुंतलन की वजह है अनियमित जीवन शैली, हमारी महत्वकांक्षाएं, हर दिन आसमान छूती उम्मीदें वगैरह..वगैरह। तनाव को लेकर योग के इस कॉन्सेप्ट को एक लाइन में कहें तो,  स्पीड इज़ ए स्ट्रेस। हमारी रफ़्तार भरी ज़िंदगी ने तनाव को पैदा करने का काम किया है। क्लास में फर्स्ट आने की तेज़ी, करियर में आगे बढ़ने की तेज़ी। कम उम्र में सबकुछ पाने लेने की तेज़ी। इस तेज़ी ने हमें बैचेन कर रखा है, हमारी शांति खो चुकी है और हम बीमारियों के एक घर बन गए हैं।


कैसे मिले निज़ात ?
सवाल है कि तनाव से छुटकारा कैसे मिले ? जिंदगी में ऐसी कई चीज़ें हैं जिसे हम चाहकर भी बदल नहीं सकते। इस भागदौड़ वाली जिंदगी में हमें न चाहते हुए भी भागना पड़ता है। ऐसे में अपने मनोमय कोश को संतुलित रखने के लिए मानसिक धरातल पर हमें ज्यादा काम करना पड़ेगा। चीज़ों को देखने, रिएक्ट करने की मानसिकता बदलनी पड़ेगी।


... मन का न हो तो ज्यादा अच्छा !!!
तनाव में फंसी जिंदगी की नाव 
  अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग में एकबार लिखा था कि कैसे उनकी पिता की बताई गईं बातें जीवनभर उनके काम आती रही। नैनीताल के शेरवुड स्कूल की बातों को याद करते बच्चन साहब लिखते हैं, स्कूल में वो एकबार बीमार पड़ गए थे और नाटक में अपना रोल नहीं कर पाए । काफी अच्छी तैयारी के बावजूद रोल न कर पाने का तनाव बच्चन के कोमल मन में घर कर गया। तभी उनके पिता आए और रोते हुए अमिताभ को उन्हें समझाया- मन का हो तो अच्छा न हो तो और भी अच्छा अमिताभ ने पिता के बताए इस मंत्र को ज़िंदगी भर याद रखा। सभी जानते हैं कि उनकी ज़िंदगी में किस कदर उतार-चढ़ाव आए, लेकिन पिता के बताए इस मंत्र ने उन्हें हमेशा तनाव से दूर रखा और इसतरह वो अपने करियर और परिवार को फिर से पटरी पर लौटा सके। हम भी अपने को बच्चन साहब और मालगुड़ी डेज़ के एक पात्र की तरह सब रामजी की लीला है कहकर तनाव से दूर रह सकते हैं।

महत्वाकांक्षा को जाने दें
महत्वाकांक्षा तनाव की सबसे बड़ी वजह है। तनाव से दूर रहना है तो होशपूर्वक महत्वाकांक्षा को जीवन से जाने दें। महत्वाकांक्षा खबर देती है कि हम भविष्य में जीते हैं, हमारा वर्तमान से कोई सरोकार नहीं है। योग वर्तमान में होने की कला है। गीता कहती है तेरा सिर्फ कर्म पर अधिकार है फल पर नहीं। हम मेहनत से जी न चुराएं लेकिन फल में ज्यादा उलझे नहीं। मेहनत करने पर किसी वजह से हमें मन का सोचा नहीं मिलता और हम तनाव की गिरफ़्त में आने लगते हैं।

चले वाते चलं चित्तं...
यौगिक ग्रंथों का मानना है कि " चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् ", अर्थात प्राणवायु तेज़ हो तो मन तेज़ होता है और प्राणवायु शांत हो तो मन शांत होता है। ये सूत्र हमें तनाव से लड़ने की तकनीक देता है। जब हमारा मन अशांत होता है यानी तनाव का शिकार तो उस वक्त हमें लंबी-गहरी सांस यानी डीप ब्रीदिंग करनी चाहिए। जैसे-जैसे हमारी सांसें सिंक्रोनाइज़ होती जाएंगी, हमारा मन शांत होता जाएगा और हमें मिलेगी तनाव से छुट्टी। उज्जयी प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और ऊं चैंटिंग सबसे ज्यादा कारगर।

ये आराम कौन-सी बला है ?
हंसो-कहकहे लगा लो....
जी हां, इस तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में हमने आराम को खुद से काफी दूर कर दिया है। आराम हराम है के कॉन्सेप्ट ने हमारी जिंदगी को नर्क बना दिया है। हमारा शरीर कोई मशीन नहीं, जिससे हम जैसे-तैसे काम लेते रहें। हमने आराम को सबसे बड़ा दुश्मन मान रखा है। सात-आठ घंटे की कम्पलीट नींद हमें फिट रखने के लिए बेहद ज़रूरी है। इस वक्त शरीर अपने कल-पुर्जों को दुरस्त कर रहा होता है ताकि हम आगे काम करने के लिए अपने को तैयार कर सकें। काम के बीच एक-दो मिनट की झपकी भी आपको काफी तरोताज़ा कर जाती है।


बच्चों के साथ दोस्ती करें
छोटे बच्चों के साथ खेलना शुरू कर दें। खासतौर पर तनाव के वक्त अपने को छोटे बच्चों को साथ बिज़ी करें, आप पाएंगे तनाव छूमंदर हो गया। बेहतर हो आप ख़ुद ही बच्चे बन जाएं।


आख़िरी बार ठहाका कब लगाया ?

खासतौर पर महानगरों की संस्कृति में हम हंसना भूल गएं हैं। हमें ठीक से याद नहीं होगा कि हम आख़िरी बार कब ठहाके लगाकर हंसे थे। सो, ठहाके को जीवन को शामिल करें। हां, कुछ लोग आपको देहाती कह सकते है, लेकिन ये बात भी तो ठहाके लगाने के लिए काफी है। हा हा हा।
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Monday, January 10, 2011

....तब सो पाएंगे आप शांति से

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
एक छोटी बच्ची अपने हमउम्र लड़के के साथ खेल रही थी। उस लड़के के पास कंचे का एक अच्छा कलेक्शन था, जबकि लड़की के पास कुछ मिठाइयां। लड़के ने उस लड़की से कहा कि मैं तुम्हें अपने सारे कंचे दे दूंगा, अगर तुम अपनी सारी मिठाइयां मुझे दे दो। लड़की राज़ी हो गई और अपनी सारी मिठाइयां दे दीं। मिठाई के बदले लड़के ने अपने कंचे के कलेक्शन से कुछ बड़े और सुंदर कंचे छोड़कर बाकी सभी कंचे लड़की को दे दिए। उस रात लड़की शांति से सोई, लेकिन लड़का सो न पाया। पूरी रात करवटों में गुज़र गई। ये सोच कर लड़के की नींद उड़ी रही कि कहीं उसकी तरह लड़की ने भी सबसे स्वादिष्ट और लाजवाब मिठाइयां अपने पास छुपा न रखीं हो।
ये कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर लगती है। ये छोटी-सी कहानी हमारे चरित्र की कहानी या कहें तो हम अपनी जिंदगी को कैसे जीते हैं, इसकी कहानी कहती है। इस कहानी को समझ सकें तो इसमें पूरी गीता समा जाए। इस कहानी के सार में अब तक मानवता के दिए गए तमाम उपदेश समा जाएं।
कहानी कहती है कि उस रात वो लड़की शांति से सो पाई। ये शांति कुछ बांटने की शांति है। ये शांति उस मानसिकता से आती है, जहां चीज़ें सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे लिए नहीं होतीं, उस पर सिर्फ़ हमारा अधिकार होने का दंभ नहीं होता। हम जब किसी को कुछ देते हैं तो हमारा ह्रदय खिल उठता है। अपनी ज़िंदगी में आपने कई बार इसे महसूस किया होगा। याद कीजिए उस वक्त को जब आप किसी के मददगार बन गए थे। उस छोटी-सी मदद के बदले भले ही आपको कुछ न मिला हो, लेकिन उस दिन आपने ख़ुद को काफी हल्का महसूस किया होगा । ये देने का आनंद है, ये किसी को मदद पहुंचाने की खुशबू है, ये किसी के काम आने की शांति है।
कहानी कहती है कि उस रात लड़का सो नहीं पाया, रात भर करवटें बदलता रहा। हालांकि लड़के के पास उसके शानदार कंचे भी रह गए और लड़की की सारी मिठाइयां भी आ गई, लेकिन चैन न था, बेचैनी सोने नहीं दे रही थी। ये बेचैनी आती है बेईमानी से। सबकुछ हड़प कर जाने की मानसिकता हमें सोने नहीं देती, चैन की सांस लेने नहीं देती। जहां उस लड़की का ह्रदय-कमल खिल उठा, वहीं कुछ शानदार कंचे दबाकर उस लड़के ने अपने ह्रदय को सिकोड़ लिया । इस सिकुड़े ह्रदय ने उस लड़के को रात भर परेशान किए रखा।
हम जिंदगी भर इस छोटे बच्चे की तरह चालबाज़ियों में फंसे रहते हैं। सबकुछ पा लेने की छटपटाहट ने हमसे शांति छीन ली है। दुनिया में जो कुछ बेहतर है, जो चीज़ें अच्छी है, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे पास हो- इस मानसिकता ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। हमारे पास सबकुछ होते हुए भी हम सबसे दरिद्र हो गए हैं, हम सबसे दीन-हीन मालूम पड़ते हैं, हम सबसे भिखमंगे नज़र आते हैं।
ये कहानी ये भी कहती है कि हम संबंधों को लेकर भी कितने बेईमान हैं। कभी कुछ कंचे, कभी कुछ पैसे तो कभी कुछ पद को लेकर हम उन संबंधों से भी दग़ा कर जाते हैं, जिसके होने से हमारा होना है। चंद पैसों के ख़ातिर एक भाई अपने भाई का ही गला घोंट देता है। कुछ टुकड़े ज़मीन की ख़ातिर एक बेटा अपने पिता का ही हत्यारा बन जाता है। थोड़ी सी कामयाबी की ख़ातिर एक दोस्त दूसरे दोस्त को दग़ा दे जाता है, एक दूसरे की क़ब्र खोदने लगता है। आख़िर हम कहां जा रहे हैं ?
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Sunday, January 2, 2011

प्यार के नाम पर पहरेदारी!

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
क्या आपको किसी से प्यार हुआ है ?  आप किसी के प्यार में कभी गिरफ्तार हुए हैं ?  कुछ ऐसे ही मिलते-जुलते दो-चार सवाल हैं जिससे हम सभी की मुठभेड़ होती है। हर कहीं प्यार के अंकुर पनपते, उसकी कलियां खिलती तो कहीं प्यार के फूल की खुशबू बिखरती नज़र आती है। खासतौर पर मेट्रो कल्चर में ऐसा शायद ही कोई लड़का-लड़की मिले जो कभी प्यार की बगिया में ना मिलें हों। लैला-मजनू और हीर-रांझा आज होते तो प्यार के इन गुलदस्तों को देखकर बाग-बाग हो जाते। हां..वो इस प्यार की गहराई में जाने की कोशिश करते तो उन्हें गुलदस्ते के नकली फूलों से दो-चार होना पड़ता।


ढाई अक्षर-प्रेम के इस नाम पर आज सबकुछ हो रहा है, सिर्फ प्यार नहीं। कई लोग मुझसे इत्तफाक ना रखें, लेकिन फ़ैसले लेने में जल्दबाज़ी भी क्या.. थोड़ा देखें तो सही कि प्यार की गली में क्या-क्या गुल खिलते हैं। मेरे देखे प्यार की शुरुआत फिजिकल एटरेक्शन से होती है और पहरेदारी पर जाकर अटक जाती है। शारीरिक आकर्षण नेचुरल है, इसको लेकर कोई एतराज़ नहीं। परेशानी दरअसल प्यार के नाम पर पहरेदारी को लेकर है।


एक सज्जन की बात यहां शेयर करना चाहूंगा। साहब काफी आशिक मिजाज़ हैं। चाहे ऑफिस में हो या घर की बालकनी में नज़रें तो हमेशा रूप-यौवना को ही तलाशती रहती हैं। थोड़ा से मौका मिल जाए तो लड़की के सामने इस तरह से लार-टपकाते नज़र आएंगे कि बेचारे कुत्तों को भी शर्म आ जाए। साहब की एक खूबसूरत बीवी भी हैं। जनाब का खूब ख़्याल रखती हैं। बावजूद पति-पत्नी के बीच महाभारत अक्सर छिड़ी रहती है। दरअसल, साहब को अपनी बीवी का किसी ग़ैर से बात करना सख्त नापसंद है। पड़ोस के वर्मा जी से बीवी ने मीठी ज़ुबान में थोड़ा हाल-चाल क्या पूछ लिया, घर में हायतौबा मच जाती है, महाभारत शुरू हो जाती    है। उस दिन बीवी का फोन थोड़ा बिजी मिला तो अगले कॉल में सवालों की झड़ी लग गई.. किससे बात हो रही थीइतनी देर तक बातचीत करने की क्या ज़रुरत थी ? ... वगैरह....वगैरह।


एक-दूसरे को ठीक से समझते ही नहीं प्रेमी-जोड़े 
क्या आप इसे मियां-बीवी के बीच प्यार कहेंगे। दरअसल प्यार के नाम पर ये पहरेदारी है। प्यार के नाम पे ये मल्कियत जताने की कोशिश है। हम किसी से प्यार करते हैं तो उसे अपनी संपत्ति समझने लगते हैं। इस मल्कियत की वजह से व्यक्तिगत आज़ादी का दम घुट जाता है। एक प्रेमी जोड़े को मैं जानता हूं जिनके बीच अच्छी बनती है, लेकिन लड़की की जैसे ही अपने एक क्लासमेट से ज़्यादा बातचीत शुरू हुई कि प्रेमी का सारा प्यार काफ़ूर हो गया। साफ चेतावनी दे दी गई कि चुन लो.. प्यार चाहिए या दोस्त ? अब उन्हें कौन समझाए कि दोस्ती की बुनियाद भी प्यार ही है। ऐसे कई जोड़े हैं जो बजायफ्ता अपनी गर्लफ्रैंड के मेल का पासवर्ड रखते हैं, मेल चेक करते हैं, फोन मैसेज से लेकर कॉल डिटेल तक को खंगाला जाता है। अब इसे आप क्या कहेंगे प्यार या पहरा ?


बेजुबान भी करते एक-दूसरे पर भरोसा 
एक प्रेमिका ने अपनी प्रेमी से पूछा कि क्या तुम शादी के बाद भी मुझे इतना ही प्यार करते रहोगे ? प्रेमी ने कहा, बिल्कुल अगर तुम्हारे पति को कोई एतराज़ न हो ! आज का प्यार कमोबेश ऐसा ही रह गया है। कहीं प्यार के नाम पर मल्कियत, तो कहीं प्यार के नाम पर पहरेदारी, तो कहीं प्यार के नाम पर टाइम पास। आज चारों तरफ प्यार करते हुए लोग आपको मिल जाएंगे, लेकिन प्यार कहीं अंधेरी कोठी में आठ-आठ आंसू रो रहा है।



प्यार की बगिया में ज़रूरी है भरोसे का फूल खिलना। प्रेमी जोड़ा करीब रहते हुए एक-दूसरी की आज़ादी और भावनाओं का ख़्याल रखे। प्यार के नाम पर हमें पहरेदारी बंद करनी होगी। खासतौर पर पुरुष मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है, जहां लड़की की अपनी ख़ुद की कोई मर्ज़ी नहीं, ख़ुद की कोई दुनिया नहीं, आज़ादी नहीं। हर चीज़ पर उसका प्यार ही पहरा बना बैठा है। इस पहरेदारी के बीच प्यार कहीं कराह रहा है, तड़प रहा है, आख़िरी सांसें ले रहा है।

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Saturday, December 18, 2010

क्यों नाचे मेरा मन मोर?

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
‘’यार आज कुछ करने का मन नहीं कर रहा। मन करता है ऑफिस ना जाऊं, चुपचाप घर पे ही बैठा रहूं। हां.. मेरा भी काम पे जाने का मन नहीं कर रहा.. चलो मूवी देखने चलते है, शायद वहां मन लग जाए।‘’


मेट्रो में मेरे साथ बैठे दो मुसाफिरों की बात की ये एक छोटी-सी झलक है। आप समझ गए होंगे कि दोनों मुसाफिरों का मन मेरे और आपके मन की तरह ही बेचैन है। आप कह सकते हैं कि मन बहका-बहका है। मन मोर को बहलाने के लिए मूवी जाने की भी बात हो रही है। जीवन की इस बगिया में मन की इच्छाएं अनंत हैं। मन हमेशा बेचैन रहता है, मन वहां नहीं होता जहां हम होते हैं।

आपने कभी महसूस किया है कि हम जो भी करते हैं शायद ही मन-पूर्वक करते हैं। हम मशीन की तरह काम किए जा रहे हैं और हमारा मन दूसरे हज़ार कामों में लगा हुआ है। कोई तालमेल ही नहीं। हम रास्ते पर चल रहे हों- शरीर तो वहीं होता है, लेकिन मन कहीं और लगा रहता है। कभी घर पर, तो कभी गर्लफ्रैंड के पास, तो कभी यहां तो कभी वहां। इतना तय है कि मन वहां नहीं होगा, जहां हम हैं।


हमारा मन मोर हमेशा नाचता रहता है। महाभारत के वक्त जो दुविधा अर्जुन के सामने खड़ी थी वहीं दुविधा मन को लेकर आज भी हमारे बीच है।
  
                     चंचलं हि मनः कृष्णं प्रमाधि बलवद दृठम् ।

                 तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥

                                                       गीता- 6/34
अर्थात- ये मन बड़ा ही चंचल स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है और इसको वश में करना वायु को रोकने की तरह बहुत मुश्किल है।


अर्जुन की तरह हमारे लिए भी इस बावरे मन को बहलाना मुश्किल है, अपने साथ रखना कठिन है।  सदियों से हम मन को भला-बुरा कहते आए हैं। हर चीज के लिए मन को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। हम कहते हैं कि क्या करे भाई.. मन ही नहीं मानता। मैं तो खूब मेहनत करना चाहता हूं, लेकिन मन ही धोखा दे जाता है.. वगैरह..वगैरह। क्या वाकई मन का ही है सारा कसूर सवाल है कि कैसे हो हमारा मन हमारे साथ ?


मन के हारे हार, मन के जीते जीत 
योग और तंत्र जैसी सभी प्राचीन तकनीकों से मन को साधने की कोशिश हो रही हैं। तिब्बत की ल्हासा यूनिवर्सिटी में मन को लेकर एक बड़ा ही हैरान करने वाला प्रयोग हुआ है। प्रयोग ये है कि लोग नंगे बर्फ पर बैठ जाते हैं, लेकिन उनके शरीर से पसीना आता रहता है। दरअसल पूरे प्रयोग के दौरान बर्फ पर बैठा आदमी ये मानने से इनकार कर देता है कि वो ठंड महसूस कर रहा है। वो मन को ये कहता रहता है कि तेज धूप खिली हुई है और गर्मी से शरीर पसीना-पसीना हो रहा है। इसतरह से मन को इस माहौल के लिए तैयार किया जाता है कि शरीर पसीना छोड़ने लगता है।


प्रयोग से साफ है कि जिस मन की बेचैनी से हम परेशान रहते हैं, उसी मन की शक्ति का हम इस्तेमाल अलग तरीके से कर सकते हैं। दरअसल मन काफी निराला है, उसे सही दिशा दें तो हम कुछ भी मुमकिन कर सकते हैं। साफ है कि मन खुद में बुरा-भला नहीं है, सारा दारोमदार इस बात पर है कि हम कैसे उसकी शक्ति का इस्तेमाल करें।


इसके मद्देनज़र बुद्ध की जिंदगी से जुड़ी एक बेहद रोचक कहानी है। बुद्ध अपने शिष्य आनंद के साथ कहीं विहार को निकले थे। रास्ते में उन्हें जोर की प्यास लगी। आनंद पास की पहाड़ी वाले झरने पर पानी लेने गया, लेकिन झरने से अभी-अभी गाड़ियां निकली थी और पानी गंदा हो गया था। आनंद बिना पानी लिए लौट आया। फिर बुद्ध से आकर कहा कि झरने का पानी साफ नहीं है, मैं थोड़ा पीछे लौट कर नदी से पानी ले आता हूं। बुद्ध ने आनंद को झरने का पानी ही लाने के लिए वापस लौटा दिया। आनंद फिर खाली हाथ लौट आया, पानी अब भी पीने लायक नहीं लग रहा था। बुद्ध ने तीसरी बार भी उसे वापस लौटा दिया। इसबार आनंद झरने के पास पहुंचा तो हैरान हो गया, पानी बिल्कुल कंचन हो गया था, पीने लायक।


बुद्ध, आनंद से कहते हैं मन की स्थिति भी झरने की तरह है। जीवन की गाड़ियां उसे अशांत और गंदा कर जाती है, लेकिन कोई अगर शांति से उसे देखता रहे तो वो निर्मल हो जाता है, पवित्र और शांत हो जाता है। बुद्ध कहते हैं कि मन के साथ कुछ करो नहीं, सिर्फ साक्षी बन जाओ.. यानी मन को शांत करने की कोशिश ना करें आप सिर्फ ऑब्जर्ब करें। मन सही कर रहा है या गलत, प्रतिक्रिया ना करें, सिर्फ देखें। योग जिसे ध्यान कहता है वो कमोबेश यही है- साक्षीभाव का विकसित होना। ना मन से लड़े, ना दोस्ती करें.. सिर्फ अपने अंदर दृष्टा यानी देखने वाले को पनपने दें। फिर देखिए कैसा नाच पाता है हमारा मन मोर। 


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Saturday, December 11, 2010

अप्प दिपो भव: ...खुद तलाशें अपनी राह

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
भगवान बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त हो रहे थे। शरीर भी छोड़ने का वक्त आ चुका था, चारों तरफ उनके शिष्यों का जमावड़ा लगा हुआ था। निर्वाण को प्राप्त बुद्ध के चेहरे पर आनंद की किरणें चमक रही थीं, लेकिन शिष्य उदास थे। बतौर शरीर बुद्ध अब कुछ वक्त ही उनके साथ रहने वाले थे। शिष्यों ने बुद्ध से कहा कि जाते-जाते बता जाएं कि हम किस राह पर चलें, क्या करेंगे, कैसे रहेंगे ?

बुद्ध का जवाब था - अप्प दिपो भव: यानी अपना दीया आप बनो। संदेश साफ था कि नकल ना करो, तुम खुद तय करो कि तुम्हे क्या होना है? खुद तय करो कि तुम्हे कौन-सी राह पकड़नी है। दूसरों की रोशनी से अपनी राह रौशन ना करो, खुद का रास्ता खुद बनाओ।

बुद्ध ने आखिरी वक्त जो कहा वो उनकी जिंदगी का निचोड़ था। बुद्ध ने अपनी राह खुद बनाई थी और उसी पर चलकर ही वो सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध तक का सफर तय कर पाएं। महल को छोड़ बुद्ध जब नई राह की तलाश में निकले तो कई जगह भटके, कई गुरुओं के पास पहुंचे। योग, सांख्य, उपवास और ना जाने क्या-क्या। आखिरी में सब तरफ से निराश होकर बुद्ध शांत होकर बैठ गए। ये वो वक्त था जब बुद्ध पहली बार वास्तविक अर्थों में अपने साथ हो पाएं थे और उसी क्षण वो निर्वाण (आत्म-साक्षात्कार) को प्राप्त हो गए। उन्होंने वो पा लिया, जिसके लिए वो सब कुछ छोड़कर निकल पड़े थे, लेकिन ये प्राप्ति उन्हें अपने होने से हुई। जब तक नकल में रहे, चूकते गए। इसलिए आखिरी वक्त में भी बुद्ध जब शरीर छोड़ रहें थे तो उनका संदेश यहीं था कि तुम बुद्ध होने की कोशिश न करो, बुद्ध की नकल न करना, तुम खुद में अनोखे हो, तुम अपने अंदर का दीया चलाओ और रौशन हो जाओ।

बुद्धं शरणम गच्छामि 
ताउम्र हम भी बुद्ध के शिष्यों की तरह दूसरों से अपनी राह के बारे में पूछते चले आ रहे हैं। खुद अपनी राह बनाने की जगह हम दूसरे के बनाए रास्ते पर चलने पर भरोसा करने लगे हैं। हम नकल में पड़े हुए हैं। पड़ोस में कोई आईएएस बन जाता है, हम सोचने लगते हैं कि मैं क्यों नहीं आईएएस बन जाऊं। मेरा बेटा, मेरा भाई भी आईएएस बन जाए। कोई सचिन बनना चाहता है तो कोई अंबानी। कोई अमिताभ बच्चन बनना चाहता है तो कोई बरखा दत्त में खुद को ढूंढता है। हम नकल में पड़े हुए हैं, हम सिर्फ भीड़ के साथ होने की कला जानते हैं। हम अपने वजूद को टटोलने से कतराते हैं।

दरअसल हमें क्या होना है, हम ये नहीं तय कर पा रहे हैं। हमारा होना कभी मां-पिता जी तय करते हैं, तो कभी समाज का दबाव तय करता है। हम खुद क्या होना चाहते है, नहीं तय कर पा रहे हैं। एक शख्स जो अच्छा पेंटर बन सकता था, उसे अक्षय कुमार बनने का भूत सवार हो जाता है। एक शख्स जो अच्छा साइंटिस्ट बन सकता था वो सचिन तेंदुलकर की तरह क्रिकेट की दुनिया में छा जाने का सपना देखने लगता है। बस, यहीं पर हम चूक जाते हैं। सचिन, सचिन होने के लिए पैदा हुए हैं। धीरूभाई अंबानी, धीरूभाई बनने के लिए पैदा हुए थे। हम-आप कुछ और होने के लिए पैदा हुए हैं। हम नकल न करें, हम तय करें कि हमें क्या होना है, हमारे अंदर क्या है और उसे हम कैसे सही दिशा दे सकते हैं। जिन्होंने अपने अंदर की इस आवाज़ को सुना है, पहचाना है, वो महान हो गए, उन्होंने अलग छाप छोड़ दी।

गीता भी इसी का उद्घोष करती है :  

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:
                                                                                                  गीता- 3/35

यानी अपनी निजता में मर जाना बेहतर है, लेकिन दूसरों की नकल डरावनी है। हालांकि कई लोग गीता के इस श्लोक को बड़े ही सतही तौर पर देखते हैं। वो श्लोक का अर्थ निकालते हैं - अपने धर्म में मर जाना बेहतर है, दूसरे का धर्म भयावह यानी डरावना है

डरावनी है दूसरों की नक़ल 
नहीं कृष्ण के कहने का अर्थ यहां कहीं ज़्यादा गहरा है। वो साफ कह रहे हैं कि तुम्हारी जो निजता है यानी तुम्हारा जो खुद का होना है वही कल्याणकारी है न कि दूसरों की नक़ल। अर्जुन का धर्म क्षत्रिय का है, लेकिन महाभारत के युद्ध से ठीक पहले वो विषादग्रस्त होकर संन्यासियों जैसी बातें करने लगते हैं, जो कि उसका धर्म यानी निजता नहीं है। कृष्ण उसी के मद्देनजर अर्जुन से कह रहें हैं कि तुम क्षत्रिय होने की वजह से युद्ध को स्वीकार करो, ना कि संन्यासियों की तरह बातें कर पलायन की सोचो।


चाहे गीता हो या बुद्ध के वचन, हर तरफ से एक ही इशारा है कि हमें अपना रास्ता खुद तैयार करना होगा। धीरूभाई अंबानी ने इस आवाज को अनसुना किया होता तो वो दुबई की किसी कंपनी में मैनेजर होकर रह जाते। सचिन ने अनसुनी की होती तो बेशक वो क्लास में फेल न  हुए होते लेकिन दुनिया उनको ‘मास्टर-ब्लास्टर’ कहकर नहीं पुकारती। हमें भी उस आवाज़ को सुनने के लिए कान लगाने की ज़रूरत है। हमें भी अपने लिए अपना रास्ता बनाने की ज़रूरत है, भले ही वो रास्ता कितना ही कांटों से भरा हो, वो हमारा खुद का रास्ता होगा। उसी राह पर चलकर ही हम अपने होने को पा सकेंगे।

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Saturday, December 4, 2010

खुद के साथ जी ले ज़रा

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
फेसबुक पर मेरे एक अज़ीज़ दोस्त ने लिखा है ‘’ जीवन में स्वयं को समय देना बहुत महत्वपूर्ण है...’’ । वे आगे सवाल करते हैं कि आप खुद के साथ कितना वक्त बिताते हैं ? ये वो सवाल है जो हमें सोचने के लिए मजबूर करता है। सही मायने में हम इस सवाल के जवाब को तलाशने के लिए बैठें तो हमें निराशा हाथ लगेगी। ऊपरी तौर से हमें लगेगा कि हम तो 24 घंटे अपने साथ ही होते है, खुद को हम सबसे ज्यादा वक्त देते हैं, लेकिन क्या ये जवाब सही है? नहीं, जवाब है- हम खुद को वक्त नहीं दे पा रहें हैं। इस तेज रफ्तार दुनिया में, सबकुछ पाने की हमारी छटपटाहट ने हमें खुद से बहुत दूर कर दिया है। आंखें हमेशा दूसरों को देखती है, कान दूसरों की सुनते हैं और हम खुद से वंचित रह जाते हैं। इस भीड़ में हमने खुद को अकेला कर रखा है।

सवाल है कि खुद को वक्त देना का मतलब क्या है ?  क्या खुद को वक्त देने का मतलब इतने भर से है कि हम कितने देर परिवार के साथ होते हैंकितना वक्त अपनी सेहत और व्यक्तित्व को निखारने के लिए निकाल पाते हैं ?  कितना वक्त हम खुद के मनोरंजन में दे पातें हैं..वगैरह..वगैरह।

नहीं.. खुद को वक्त देने का मतलब कहीं गहरा है। बुद्ध से जब यही सवाल पूछा गया था तो उन्होंने कहा कि ‘’होश के साथ जीना ही जिंदगी है और बेहोशी मौत है’’। हम अपने साथ होते है, लेकिन शारीरिक तौर से सिर्फ, मानसिक तौर पर हम कहीं और होते हैं। खुद को वक्त देने का मतलब सिर्फ इतने भर से है कि आप जो भी करें होशपूर्वक करें। क्या कर रहें हैं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। आप का काम घास काटने का है या न्यूज़ परोसने का या कुछ और, आप जो भी करें होश के साथ करें।

जीने की राह दिखता आध्यात्म 
आपने कभी गौर किया है जब आप ऑफिस में होते हैं तो आप ऑफिस में नहीं बल्कि घर पर होते है, और जब घर में होते हैं तो ऑफिस में क्या करना है, इसका ख्याल दिमाग में चल रहा होता है। हम ऑफिस में होते हैं तो घर की सोचते हैं.. बीवी क्या कर रही होगी.. बच्चे स्कूल से आएं या नहीं..? घर में होते हैं तो सोचते है कि आज ऑफिस में कौन सा काम निपटाना है। हम बंटे हुए हैं.. और हमारा ये खंडित व्यक्तित्व हमें अपने साथ नहीं होने देता।

सवाल फिर वही उठता है कि जिंदगी में हम खुद को कैसे वक्त दें ? अपने साथ होने की कला को हम कैसे विकसित करें ? तंत्र और योग ने इसको लेकर कई अहम प्रयोग किएं हैं। तंत्र की पूरी तकनीक इसी पर फोकस करती है कि हम कैसे अपने साथ हो सकें।

होशपूर्वक जीने की इस कला को आप छोटे-छोटे लेकिन काफी असरदार प्रयोगों से सीख सकते हैं। हम खाने के वक्त अक्सर या तो टीवी ऑन कर देते हैं या गप्पे मारते रहते हैं। तंत्र कहता है कि जब भोजन करें तो आप स्वाद बन जाएं, यानी भोजन से जो स्वाद मिल रहा है पूरी तरह से मन को उसमे लगा लें। भोजन के स्वाद के साथ ऐसा एकाकार हो जाएं कि पता ही नहीं चलें कि स्वाद और आप अलग-अलग हैं। बहुत साल बाद दोस्त या रिश्तेदारों के साथ मिलने के वक्त आपको जो खुशी होती है, उसके साथ मन को जोड़ने की कोशिश करें। खुशी के इस अहसास को ज्यादा देर तक अपने साथ आत्मसात होने दें..इसे जल्दी काफूर नहीं होने दें। जब कभी सिर या बदन में दर्द महसूस हो तो चिल्लाएं या रोएं नहीं, शांत होने की कोशिश करें और मन को दर्द के साथ जोड़ लें। दर्द के साथ मन को जोड़ना आसान है। आप पाएंगे जैसे ही दर्द के साथ आपका मन एक होता जाएगा, दर्द की अनुभूति कम होती जाएगी। किताब पढ़ रहें हो तो आप किताब हो जाएं, एक-एक शब्दों में ऐसे खो जाएं कि जैसे हर एक लाइन आप की कहानी कह रहा हो।


ये छोटे-छोटे ऐसे प्रयोग हैं जो हमें होश से भर देंगे। हमें अपने साथ होने की कला सिखा देंगे। मतलब साफ है जो भी करें पूरी तत्परता के साथ करें.. खाने के वक्त खाना, काम के वक्त काम.. ये वो सूत्र है जो आप के अंदर एक नए शख्स को जन्म देंगे।

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