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Thursday, December 9, 2010

कब मिलेगी औरतों को सुरक्षा गारंटी ?

शिखा द्विवेदी 
(लेखिका आईआईएमसी, नई दिल्ली की पूर्व छात्रा हैं। वे कॉमनवेल्थ गेम्स मे बतौर मीडिया मैनेजर अपनी सेवाएं दे चुकी हैं)
दिल्ली में एक डर दिनोदिन बढ़ता जा रहा है या यूं कहे इस डर ने दिल्ली की ज़्यादातर महिलाओं के दिलों में अपना घर बना लिया है और वो है उनकी सुरक्षा का डर। 6 साल पहले जब मैं दिल्ली आई थी तो देर रात अकेले सड़कों पर न जाने की हिदायत मिलती थी और अब दिन में भी अकेले निकलने में सोचना पड़ता है। इसे क्या मानें? जितने तेज़ी से हमारे देश में महिलाएं तरक्की की सीढियां चढ़ रहीं हैं उतनी ही तेज़ी से उनकी सुरक्षा लुढ़क कर नीचे आ रही है?

घर-बाहर कहीं भी महफूज़ नहीं है औरत 
दिनदहाड़े सवारियों से भरी बस में एक लड़की को चार-पांच गुंडे घेर लेते हैं, उसके साथ छेड़छाड़ करते हैं। यहां तक कि उसका लैपटॉप छीन लेते हैं और अगली रेडलाइट पर आराम से उतर कर चले जाते हैं लेकिन बस में बैठा एक भी शख़्स उस लड़की की मदद के लिए आगे नहीं आता है। मेरा ऐसे लोगों से एक ही सवाल है कि क्या वाकई उनकी सांसें चल रहीं थीं? रास्ते पर अकेली खड़ी लड़की को राह चलता कोई भी बाइक या साइकिल सवार अश्लील बातें सुनाकर चला जाता है, खचाखच भरी बस में चढ़ना तो लड़कियों के लिए जैसे सबसे बड़ा पाप है। फिर तो बिना किसी की गंदी नज़रें झेले या घटिया कमेंट सुने, आप नीचे उतर ही नहीं सकते।  

कौन देगा इस सवाल का जवाब?
समाज शिक्षित होता जा रहा है और बलात्कार की घटनाएं बढ़ती जा रहीं हैं। एक मामला सुलझता नहीं कि दूसरा सामने आ जाता है। अभी हाल ही में धौलाकुआं गैंगरेप के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर हर बड़े-छोटे न्यूज़ चैनल पर चर्चा हुई। पुलिस के आला अधिकारियों से लेकर महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली बड़ी-बड़ी हस्तियों ने इसमें हिस्सा लिया। सबने अपनी-अपनी राय और सलाह दी। इन चर्चाओं में एक बात बहुत ही अजीब लगी। कुछ वक्ताओं का मानना था कि महिलाओं को सलीकेदार कपड़े पहनने चाहिए क्योंकि बलात्कार की बड़ी वजह उनका पहनावा भी है। ऐसे लोगों से मेरा सिर्फ एक ही सवाल है कि फिर एक सात साल की बच्ची के साथ बलात्कार क्यों होता है? या फिर अधेड़ उम्र की मां क्यों बनती है दरिंदों का शिकार? अस्पतालों या स्कूलों में क्यों होती हैं ऐसी घटनाएं?

एक सवाल ये भी है कि बलात्कार के अपराध में सज़ा पा चुके अपराधी भी रिहा होने के बाद वो ही अपराध दोहराता है। ऐसी सज़ा का क्या फ़ायदा जो किसी की सोच न बदल सके या फिर उसमें इतना डर न पैदा कर सके कि दोबारा कुछ भी गलत करने की उसकी हिम्मत न हो।  

कौन बचायेगा इन भेड़ियों की नज़रों से 
दिल्ली को तो महिलाओं के लिए हमेशा से असुरक्षित शहर माना जाता रहा है लेकिन चौकाने वाली बात ये है कि महिलाओं के लिए सुरक्षित कही जाने वाली मुंबई में भी ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक मुंबई में साल 2009 में 126 बलात्कार के मामले सामने आए थे जो 2010 में बढ़कर 194 हो गए हैं।


कोई कहता है विचारों में बदलाव ज़रूरी है, किसी का मानना है कि शिक्षा और जागरूकता से ऐसी घटनाओं में कमी आएगी। लेकिन जब पढ़े-लिखे और जागरूक आईएफ़एस अधिकारियों पर इस तरह के आरोप सामने आते हैं तो सोच फिर एक नई दिशा तलाशने लगती है कि आखिर वजह क्या है और समाधान कैसे होगा? कई पार्टियां महिलाओं को संसद में 33 फ़ीसदी आरक्षण दिलाने की गारंटी के साथ चुनाव लड़ती है, क्या ये पार्टियां कभी महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी पर कोई बड़ा कदम उठाने की कोशिश करेंगी?

Saturday, November 13, 2010

यूपी फिर बेदम, कम जुर्म का भ्रम (आखिरी)

समस्या ये है कि जो भी यूपी का मुख्यमंत्री बना, उसने सिस्टम को अपने हिसाब से चलाया। नई पीढ़ी के लोगों को ये नहीं पता कि प्रदेश का गृह मंत्री कौन है। हम बताते हैं। 1989 में नारायण दत्त तिवारी की सरकार में गोपीनाथ दीक्षित गृह मंत्री थे। उस सरकार के बाद यूपी में गृह मंत्रालय मुख्यमंत्रियों ने अपने पास ही रखा। इस लिस्ट में मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और मायावती के नाम आते हैं। देश के सबसे बड़े सूबे में अगर कोई होम मिनिस्टर होता है तो उसकी हैसियत मिनी मुख्यमंत्री से कम नहीं होगी, जो अब कोई सीएम बर्दाश्त नहीं करेगा। बात साफ है जो पुलिस का माईबाप,  वो सबका आका। सबने पुलिस को नौकर बना कर रखा। अब हालात ये हैं कि पुलिस वालों ने सुनना ही बंद कर दिया। जब जनता के नुमाइंदे ही गंभीर नहीं हैं तो डंडा फटकारने वाला भला क्यों सुनेगा आपकी? दही को इस कदर मथा कि माठा बन गया जो जड़ों को खोखला कर रहा है।

जनता नहीं नेता की सुरक्षा करती है यूपी पुलिस 
अफसर भी कम जि़म्मेदार नहीं हैं, यूपी के इस हाल के लिए। जब मई 2007 में मायावती ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली तो आईपीएस लॉबी में भूचाल आ गया। हर कोई प्रतिनियुक्ति पर केंद्र सरकार के पास जाना चाहता था। कुछ का लगाव मुलायम सिंह यादव से ज्यादा था। कई आईपीएस दिल्ली निकल लिए। प्रदेश में वैसे भी आईपीएस की कमी थी। मायावती ने अपने हिसाब से तबादले किए। अब तो जुर्म पर कान न देने वाले बड़े पुलिस अफसर सीधे मुख्यमंत्री से संपर्क होने की धौंस देते हैं।

बात मई 2005 की है। केंद्र की बेरुखी के कारण सूबे में ज़बरदस्त बिजली किल्लत थी। कानपुर में बीजेपी के विधायक सलिल विश्नोई ने आम लोगों के साथ प्रदर्शन किया। सलिल तत्कालीन एसएसपी रामेंद्र विक्रम सिंह के निशाने पर थे। रामेंद्र ने बिना बात जमकर सलिल की पिटाई की। विधायक कई दिनों तक अस्पताल में पडे़ रहे। लोग कहते हैं कि रामेंद्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से घरेलू ताल्लुकात थे।

अभी लगभग 20-25 दिन पहले राहुल गांधी गोरखपुर से मुंबई जाने वाली ट्रेन में बैठे। इसके पहले वो किराए की गाड़ी करके आराम से रेलवे स्टेशन पहुंचे लेकिन यूपी के खुफियातंत्र को हवा तक नहीं लगी। जो राहुल गांधी से अनजान थे वो अपराधियों-आतंकियों की क्या खुफियागीरी करेंगे। कुछ दिन पहले हुआ लखनऊ का सीएमओ हत्याकांड तो सबसे सनसीखेज़ रहा। कातिल अब तक पुलिस से दूर हैं। तकरीबन छह महीने पहले कानपुर के पॉश इलाके स्वरूप नगर में दो महिलाओं का कत्ल कर दिया गया। महिलाएं पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह की रिश्तेदार थीं। केस अब तक उलझा है। 2007 में जब यूपी विधानसभा चुनावों का ऎलान हुआ तो चुनाव आयोग की नज़र डीजीपी बुआ सिंह पर आकर टिकी। बुआ सिंह को हटाया गया। आयोग का कहना था कि उनके रहते निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकते। जिस शख्स पर 20  करोड़ लोगों की हिफाज़त का ज़िम्मा है, उस पर ऐसा लांछन लगे तो सिस्टम की सड़न का पता चल जाता है

मायावती के आने के बाद यूपी में एक नई हवा बही। फील गुड की। सिर्फ राजधानी में लॉ एंड आर्डर पर बैठक। पूरे प्रदेश से अफसर वहां पहुँचते हैं। वहां क्राइम कम करने के ‘नुस्खे‘ बताये जाते थे। फाइलों को देखकर सब दुरुस्त होने का दावा होता था। बिना रिपोर्ट लिखे अपराध तो कम दिखेंगे ही। अब कुछ बदलाव आया है। कमिश्नरी मुख्यालयों पर बड़े अफसर जाते हैं बैठक करने।

सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ???
चित्रकूट में डेढ़ साल पहले एक डकैत ने तीन दिन तक यूपी पुलिस को उलझाए रखा था। चंबल के बीहड़ों में डकैतों को मारने के अलावा आम लोगों को पुलिस ने कभी कोई राहत नहीं दी। इटावा-औरैया और यमुनापार के इलाके में तो अब तक ज़बरदस्त पकड़ (अपहरण) होती है और पुलिस बैठी रहती है। सैकड़ों मामले थाने ही नहीं पहुंचते। अपराध आटोमेटिक कम हो जाता है। महिलाओं से छेड़छाड़ के मामलों में पुलिस 14 फीसदी कमी का दावा कर रही है। चेन स्नेचिंग तो यूपी के बड़े शहरों में एक नया रोज़गार है। कभी-कभार कोई चेन स्नेचर पकड़ा जाता है तो उससे सैकड़ों चेनें बरामद होती हैं। हां,  पुलिस का एक और दावा है,  दलितों के खिलाफ अपराध कम होने का।

यूपी की जेलें तो अपराधियों के लिए फाइव स्टार होटल से कम नहीं हैं। वहां बंद नेताओं से लेकर जेबकतरों तक को हर सुविधा मिल सकती है। बशर्ते उसकी कीमत चुकाई जाए। जब भी जेलों पर छापे की रस्म होती है तो मोबाइल, लाइटर, चरस, ब्लेड जैसी चीज़ें आसानी से मिल जाती हैं। कई बार तो काजू-किशमिश भी मिले नेताओं और अपराधियों के बैरक से।

मार्च 2010 में तबादले पूरे करने के बाद यूपी सरकार ने ऎलान किया कि अब तबादले नहीं होंगे। तबादला नीति बनाई गई। साथ में जोड़ा गया कि मुख्यमंत्री आपात स्थितियों में तबादले को आज़ाद हैं। तब से अब तक न जाने कितनी बार पुलिस वाले थोक में इधर-उधर हुए। अब तो सूबे में कई ऎसे इंस्पेक्टर-एसएचओ हैं, जिनका विधायक-मंत्री तक कुछ नहीं बिगाड़ सकते। वजह,  उनके सीधे संबंध।


ऎसा नहीं है कि यूपी पुलिस 100 फीसदी काहिल हो गई है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लेकर सूबे के बाकी हिस्सों में कई बड़े आतंकवादी एटीएस ने पकड़े। स्लीपर सेल खोज निकाले। खतरा बढ़ता देख एटीएस में प्रदेश सरकार ने चुनिंदा जांबाज़ अफसरों को रखा। इसका नतीजा ये रहा कि यूपी में बीते दो-तीन सालों में कोई बड़ी आतंकी वारदात नहीं हुई। बात साफ है कि अगर सरकार और उसके कारिंदे ठान लें तो पत्थर से पानी निकालने में भी वक्त नहीं लगेगा। आज भी टीवी पर यूपी पुलिस की ज्यादती के सीन चल रहे हैं। देख कर सोचियेगा एक बार... ।

( लेखक प्रवीन मोहता आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं) 

Thursday, November 11, 2010

यूपी फिर बेदम, कम जुर्म का भ्रम

लगता है यूपी वालों की किस्मत ही फूटी है। पिछले 20 सालों में जिसे भी कुर्सी सौंपी, उसने चूसा और अपराधियों ने जमकर लूटा। बीते सालों में एक-दो बड़े अपराधियों और कुछ मोहल्लाछाप बदमाशों को मार गिराने के अलावा यूपी पुलिस के पास खुश होने का कोई मौका नहीं है। 2005 के पहले वाले बिहार की तरह अब यूपी में भी फिरौती के लिए अपहरण का धंधा चल निकला है। 1 जनवरी से 30 सितंबर, 2010 के बीच प्रदेश में 50 अपहरण हुए। 2009 से 25 फीसदी ज्यादा। लूट की वारदातें भी 15 फीसदी तक बढ़ी हैं। ये कोई विपक्षी पार्टी नहीं कह रही बल्कि यूपी पुलिस का क्राइम रिकॉर्ड है।

अपराधों से थर्रा रहा सूबा 
याद करिये 2006-07 का वो वक्त जब अमिताभ बच्चन यूपी के ब्रांड एबेंसेंडर और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। टीवी, अख़बारों और सड़कों पर लगी होर्डिंग में अमिताभ एक ही बात कहते थे...यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम। उस समय भी यूपी में लॉ एंड आर्डर की हालत बेहद खराब थी। कांग्रेस,  बसपा और भाजपा ने जमकर शोर मचाया था। विपक्षी दलों ने अमिताभ की एक लाइन के आगे अपनी एक लाइन और जोड़ी...झूठ यहां है ज्यादा सच्चाई बिल्कुल कम। मुलायम सिंह की सरकार को 2007 में पब्लिक ने चलता कर दिया। कुर्सी संभाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने। वैसे तो मायावती बेहद कड़क मिज़ाज के लिए जानी जाती हैं लेकिन 2008 आते-आते उनकी अफसरों पर पकड़ खत्म सी हो गई। शुरुआत में तो मायावती ने दम दिखाया। इलाहाबाद में अतीक अहमद की बिल्डिंग पर हथौड़े चलवा दिए। पुलिस शातिर अपराधियों के एनकाउंटर के मूड में आ गई लेकिन ये सब ज्यादा दिन नहीं चला। सुधार के नाम पर गांव से लेकर शहर तक कई बड़े क्रिमिनल बसपा में शामिल हो गए। अब तो गुंडों के मन में डर खत्म हो गया था।

अक्सर होता पुलिस-पब्लिक में बवाल 
2005 में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के पहले बिहार बहुत बदनाम था। सबसे बड़ी वजह थी,  अपहरण का धंधा। बिहार पुलिस ने जमकर सख्ती की। नतीजा,  कुछेक वारदातों को छोड़कर अपहरण का धंधा बंद हो गया। बिहार के लोगों को अकसर बिहार के बाहर लॉ एंड आर्डर के मसले पर काफी कुछ सुनने को मिलता था। अब बारी यूपी वालों की है। 10 नवंबर को यूपी पुलिस ने अपराध के ताज़ा आंकड़ें जारी किए हैं। जो भी यूपी की घटनाओं को फॉलो करता है,  इसे देखकर उसका सिर चकरा जाएगा। इस साल 1 जनवरी से 30 सितंबर के बीच यूपी में फिरौती के लिए अपहरण,  डकैती और लूट की घटनाओं में इज़ाफा हुआ है। इस पीरियड में 50 अपहरण हुए तो 127 डकैतियां और 1545 लूट की वारदातें। 2009 में अपहरण 40 थे, डकैतियां 122  और लूट की घटनाएं 1336। ये आंकड़ें ऎसे तब हैं जब यूपी पुलिस एफआईआर लिखती ही नहीं है। कहानी यहां खत्म नहीं होती है। इन नौ महीनों में 3123 हत्याएं,  2913 चोरियां हुईं। औरतों के खिलाफ तो जैसे अपराधियों को खुली छूट मिल गई है। 1025 बलात्कार और 1619 दहेज हत्याएं पुलिस की काहिली बता रहे हैं। डकैती, लूट और अपहरण के अलावा बाकी अपराधों में यूपी पुलिस कमी का दावा कर रही है। वो इसलिए कि यूपी पुलिस की एक आदत है। डकैती को चोरी और अपहरण को गुमशुदगी में दर्ज करना। बलात्कार, लूट और लड़कियों से छेड़खानी जैसे मामलों को तो उत्तर प्रदेश में पुलिस झूठा साबित कर देती है। एफआईआर तो दूर की कौड़ी है। हिम्मत है तो अपने साथ हुए किसी अपराध की आप उत्तर प्रदेश के किसी भी थाने में रिपोर्ट लिखाकर दिखाइए।
  
जनता की नहीं सरकारी सेवक बन गयी यूपी पुलिस 
पूर्व, पश्चिम और मध्य यूपी में तो जैसे अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। वेस्ट यूपी में डिसआनर किलिंग, अपहरण, बलात्कार और लोगों को सरेआम गोलियों से भूनने की घटनाएं आम हैं। एनसीआर का हिस्सा नोएडा भी इससे अलग नहीं है। बीते महीनों में कैराना और मेरठ जैसी जगहों पर तो सरेआम कारोबारियों को गोली मार दी गई। गुस्साए लोगों ने चौकियां फूंक दी, बसें जला दीं लेकिन अपराधी हाथ नहीं लगे। सेंट्रल यूपी में तो बच्चियों और औरतों की शामत आई हुई है। कानपुर का दिव्या कांड,  नीलम कांड अभी ठंडा नहीं पड़ा है। कई मामलों में तो पुलिस ने झूठा वर्कआउट किया और शाबाशी ले ली। नवंबर 2009 में उन्नाव में एक पूरे परिवार की हत्या कर दी गयी। आज तक क़ातिलों को पुलिस नहीं पकड़ सकी। गांव वाले दबी ज़ुबान से हत्यारों का नाम बताते हैं। सितंबर 2010 में रायबरेली में एक नौजवान के सरेआम हाथ-पैर काट दिए गए। दबंग थाने में बैठे थे और सड़क पर खूनी खेल चल रहा था मुख्यमंत्री को भी ये पता है लेकिन कुछ नहीं हुआ। पूर्वांचल में भी संगठित अपराध अब थामे नहीं थम रहा। पूरे प्रदेश में गुंडाटैक्स (रंगदारी) वसूलने का काम फिर से शुरू हो गया है। हत्या की वारदातें बढ़ी हैं। पंचायत चुनावों में तो इतना खूनखराबा हुआ कि 2005 के पहले वाले बिहार के जानकार भी चकरा गए।

इन सबके बीच सबसे ख़राब बात ये है कि सरकार और जनता के बीच दूरियां लगातार बढ़ रही हैं। 2007 में कुर्सी संभालने के बाद मुख्यमंत्री मायावती शायद ही कभी किसी गांव-शहर के दौरे पर जाती हों। चौकस पुलिसिंग के लिए बड़े शहरों में एसएसपी के पद पर डीआईजी रैंक के अफसर मुख्यमंत्री ने बैठा रखे हैं। आईएएस-आईपीएस बेलगाम हैं। अफसर कुर्सी संभालते नहीं कि तबादले के दूसरे आदेश आ जाते हैं। बड़े शहरों में डीआईजी/एसएसपी का औसत कार्यकाल 4 महीने का हो गया है। लोगों को भी पुलिस अब नहीं सुहाती,  भरोसा जो उठ गया। आये दिन पुलिस-पब्लिक में झड़पें होती हैं। पुलिस निहत्थों पर लाठी-गोली चलाती है। बेसिक पुलिसिंग के फंडे अब यूपी में नहीं दिखते। अब आगे क्या होगा ? आइए हम भारतवासी यूपी में खुशहाली और शान्ति की दुआ करें...आमीन !
(लेखक प्रवीन मोहता आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं)