भारत में सिनेमा जब शुरू हुआ तो फिल्में मूल रूप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी हरिश्चंद्र, राम या विष्णु के किरदारों में आते थे।
पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ (1931) के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ तय हो चुकी थीं लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तो अभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा (बॉडी लैंग्वेज ) के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई। 1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण-युग था। वह सहगल, पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, जयराज, प्रेम अदीब, किशोर साहू, मोतीलाल, अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों का ज़माना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार, देव आनंद, किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग दस्तक दे रहे थे।
पृथ्वीराज कपूर |
अशोक कुमार |
आजादी के बाद के युवाओं में रोमांस का पुट भरा देवानंद ने। देवानंद कॉलेज के लड़कों में, एडोलेसेंट लेवल पर काफी लोकप्रिय थे। देव आनंद हॉलीवुड के बड़े नायक ग्रेगरी पेक से प्रभावित तो हुए लेकिन पेक की कुछ अदाओं को छोड़कर उन्होंने उनसे अच्छा अभिनय कभी नहीं सीखा जो पेक की ‘रोमन हॉलिडे’, ‘टु किल ए मॉकिंग बर्ड’ या ‘दि गांस ऑफ़ नावारोने’ में दिखाई देता है।
मन को गुदगुदाते रहे देव आनंद |
राज कपूर एक अच्छे अभिनेता तो थे ही लेकिन उससे भी बड़े निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को उभारने की कोशिश की। आरके लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होने सिल्वर स्क्रीन पर साकार करने की कोशिश की। राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद, ये तीनों एक स्टाइल आइकॉन थे। लेकिन इन तीनों का जादू तब चुकने लगा, जब एक किस्म का रियैलिटी चेक (जांच) जिदंगी में आया।
बलराज साहनी |
फिल्म में बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर दिया था। बेहद ‘हैंडसम’रहे साहनी हिंदी सिनेमा के पहले ‘असली’ किसान-मज़दूर के रूप में पहचाने गए। दरअसल, अभिनय के मामले में अपने समकालीनों से बीस ही रहे साहनी, ओम पुरी, नसीर और इरफान के पूर्वज ठहरते हैं।
गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे लेकिन उनका दायरा बेहद सार्वजनिक होता था। गुरुदत्त ने परदे पर एक अलग तरीके के नायक की रचना की। काग़ज़ के फूल के नायक ने दुनिया के बेगानेपन पर अपनी तल्ख़ टिप्पणी छोड़ी।
इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह और आदर्शवाद साथ दिखा। भारत माता के रूप में उकेरी गई नरगिस ने अपने ही डकैत बेटे को गोली मारकर आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी। लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरू हो चुका था, जिसकी सहानुभूति डकैत बेटे सुनील दत्त से थी। उधर अभिनय-शैली के मामले शुरू में एल्विस प्रेस्ले से प्रभावित शम्मी कपूर ने बाद में खुद की ' जंगली ' शैली विकसित की । इसका गहरा असर जितेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती वगैरह से होता हुआ गोविंदा तक आता है। यह संकोचहीन नाच-गाने का पॉपुलर कल्चर है।
सबसे जुदा राजेश खन्ना |
नए दौर का नायक अमिताभ |
कककक...किरन यानी शाहरुख |
90 के दशक की शुरुआत में अमिताभ बच्चन का गुस्सैल नौजवान अप्रासंगिक होता दिखा। 90 के दशक में भारत बदला, नई नीतियां आ गईं और तरक्की की ओर जाने के रास्ते बदल गए, तो बाग़ी तेवरों के लिए दर्शकों के लिए जो अपील थी, वो ख़त्म होने लगी।
अर्थपूर्ण एक्टर आमिर खान |
आमिर में शाहरुख़ जैसी अपील तो नही है लेकिन वह अदाकारी में शाहरुख़ से कई क़दम आगे हैं। शाहरुख़ तड़क-भड़क में आगे हैं लेकिन अपनी फ़िल्मों में मैथड एक्टिंग के ज़रिए आमिर, शाहरुख़ के जादू पर काबू पा लेते हैं। एक तरह से आमिर मिडिल सिनेमा में मील के पत्थर है तो शाहरुख सुपर सितारे की परंपरा के वाहक।
No comments:
Post a Comment