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Wednesday, January 19, 2011

दे दो आज़ादी इक पल जीने की!

आल इज्ज़ वेल ???
आज़ादी! ये शब्द सुनते ही ज़्यादातर लोगों को 15 अगस्त की याद आ जाती है। कई लोग तो आज़ादी को सिर्फ अंग्रेज़ों से मिली आज़ादी समझते हैं लेकिन...अब इसके मायने बदल रहे हैं। कहने को तो हम राजनीतिक रूप से आज़ाद हो गए। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में अब लोगों की जेबें भी भारी होने लगी हैं, मतलब आर्थिक आज़ादी। सिर्फ इतने पर ही आकर टिक जाती है हमारी सोच।


कभी न तो हम इससे आगे सोचते हैं और न हमें सोचने की इजाज़त होती है। अपनी मर्ज़ी से जीने की आज़ादी कभी मिली ही नहीं। जिसने ऐसा सोचा, या तो उसका कत्ल कर दिया गया या फिर उसको दिमागी तौर पर पर ‘थर्ड डिग्री’ में रख दिया गया। सब कुछ खामोश! असली आज़ादी के लिए नई जेनरेशन कुलबुला रही है लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा। चिंता पहले किसकी करें? देश की, अपनी या परिवार की, करियर की या फिर अपनी किसी पसर्नल बात की? टेंशन ही टेंशन है।  

बचपन में मम्मी सुबह तैयार करके स्कूल भेज देती थीं। छोटे थे, समझ कम थी तो स्कूल जाना बहुत बुरा लगता था। अब हमें स्कूल जाने से फायदे समझ में आ रहे हैं। उस वक्त किसी को मैथ्स पढ़ना अच्छा नहीं लगता था, किसी को साइंस। मन मारकर पढ़ते थे। धीमे-धीमे स्कूल का वक्त कब गुज़र गया, पता ही नहीं चला। 14 साल की उम्र आते-आते सपनों को पंख लगने लगे थे। मन हर उस चीज़ की ओर जाता था, जो भी करना मना था। उस वक्त अपनी जि़दगी में थोड़ा स्पेस चाहिए होता था, जो मिलता नहीं था। हम क्रिकेट खेलना चाहते थे, लेकिन किताबें पीछा नहीं छोड़ती थीं। इस दौर में कई बड़ी खुराफातें भी की लेकिन सब दब गया। इन खुराफातों में क्रिएटिविटी भी छिपी थी लेकिन बैग, करियर, किताबें और सब चौपट। छटपटाहट बहुत ज़्यादा थी लेकिन कुछ हो नहीं पाता था।

मैं कहाँ जाऊं?
20 साल की उम्र आते-आते करियर की हवा ने ऎसा झकझोरा कि किसी काम के नहीं रहे। इधर जाऊं कि उधर। आमिर खान कहते हैं न, कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन है सॉल्यूशन कुछ पता नहीं। हम कभी वो चाहते ही नहीं थे जो ‘वो’ चाहते थे। वो जो चाहते थे, हमें नामंज़ूर था। कुछ को मनचाहा करियर भी मिल गया और कुछ ताकते ही रह गए। खैर जैसे-तैसे अपने क्रिएटिव दिमाग से कुछ कागज़ की डिग्रियां हासिल कर लीं। अब करियर की कार चलने को बेकरार थी। चल भी पड़ी। आज़ादी यहां पर भी नहीं मिल रही थी। घुटन तो बहुत ज़्यादा थी लेकिन दोस्तों के आगे ग़म भूल जाते थे। जिन्होंने खुद को इससे बाहर निकालने का रिस्क लिया, उनसे पूछिए, कितने पापड़ बेलने पड़े।

कुछ साल नौकरी करने के बाद एक अलग तरह का प्रेशर आया। इसे हम ‘फ्रीडम किलर’ कहते हैं। शादी करने का प्रेशर। कुछ करना चाहते हैं तो कुछ नहीं करना चाहते हैं, कुछ अपनी पसंद की लड़की से करना चाहते हैं तो कुछ बैचलर रहना पसंद करते हैं लेकिन फिर वही बात...सोसायटी का प्रेशर। एक दोस्त फेसबुक पर कह रहा था, हम लोग पूरी ज़िंदगी में ज़्यादातर वक्त पड़ोसी की फिक्र में गुज़ार देते हैं।कुछ करो या न करो, ब्याह कर लो प्लीज़। लड़की/लड़का पसंद है तो ठीक वरना दूसरों का मन रखने के लिए ही शादी कर लो। जो अपनी पसंद को अपनाते हैं, उनका हश्र निरूपमा पाठक जैसा होता है। कोई सुनवाई नहीं है भाई। हमारी नई जेनरेशन जाए तो जाए कहां। कोई भी तो सुनने वाला नहीं है। सर्द रात में अंधेरी सड़क पर आप अकेले हैं। कोहरा पड़ रहा है। सर्दी से बचने और ट्रक से जान बचाने की फिक्र जैसा हाल है।

क्या मिलेगा मुश्किल का हल???
80 के दशक में पैदा हुए लोग काफी घुटन महसूस कर रहे हैं। साल्यूशन तो फिलहाल दिख नहीं रहा है। बचपन से अब तक हर पल घुटने को मजबूर लोग पागल से हो रहे हैं। कई बार कई लोगों को कहते सुना, सब छोड़कर भाग जाने का मन करता है। क्या करें, दिल भर गया। बस, अब और नहीं। सवाल ढेर सारे हैं, समाज और देश के ठेकेदारों के पास कोई जवाब नहीं है। जवाब देना उनके लिए मुश्किल भी तो हैं। पता नहीं क्या होगा? बचपन तो गया जवानी भी गई...

नदियों पर बांध बना दिए गए। बड़ी-बड़ी कंक्रीट की बिल्डिंगों ने हवा का रास्ता रोकने की कोशिश की है। स्प्रिंग को जितना दबाया जाएगा, वो उतना ऊंची उठेगी। डर ये है कि कहीं ऐसा न हो और ये जेनरेशन भी भीड़ का हिस्सा बनकर खो जाए हमेशा के लिए। या आएंगे थ्री ईडियटस।