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Friday, December 3, 2010

अब तेरा क्या होगा 'कालिया'...?

मनोज मुकुल 
(लेखक आईआईएमसी] नई दिल्ली के पूर्व छात्र और स्टार न्यूज़ में एसोसिएट सीनियर प्रोडयूसर हैं)
बिहार चुनाव के नतीजों को लेकर नीतीश कुमार के विरोधी तो कभी भी ऐसी उम्मीद लगाकर नहीं बैठे रहे होंगे। चुनावी साल में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और नीतीश के हमकदम माने जाने वाले ललन सिंह ने अपना हिसाब-किताब अलग कर लिया। नीतीश तानाशाह हैं, पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया और न जाने दुनिया भर के क्या-क्या आरोप लगा पटना से दिल्ली में आसन जमा लिया। उन्होंने बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस को ‘सेट’ कर अपना राजनीतिक प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया। कांग्रेस को भी लगा कि भैया बड़ा नाम है, पुराने सहयोगी हैं। नीतीश का फायदा कराया अब हमारा भी फायदा कराएँगे। सांसद बने जेडीयू के टिकट पर और चुनाव में प्रचार के लिए गाड़ी में कांग्रेस का झंडा लगाकर खूब घूमे लेकिन लोगों ने लाइन पर ला दिया। अब कांग्रेस के लिए भी बेचारे किसी काम के नहीं रहे। उपर से झंडा लगाकर घूमने और कांग्रेस के मंच से भाषण देने को लेकर सदस्यता खतरे में है। नीतीश कुमार के लोग चाहते हैं कि इनको पार्टी से निकालकर शहीद बनाने के बजाए बेहतर होगा इनकी संसद सदस्यता के खिलाफ पहले शिकायत की जाए। लिहाजा चुनाव आयोग और लोकसभाध्यक्ष से शिकायत की तैयारी है। पूरे सबूत के साथ। अगर वहां से कुछ फायदे वाला जवाब पार्टी को नहीं मिला तो किसी भी दिन इनको चलता कर दिया जाएगा। वजह जिस बंटाईदारी बिल को लेकर ललन ने बिहार में हायतौबा मचाई थी उसको लेकर तो बंटाइदारी बिल वाले समाज के लोग सरकार के खिलाफ गए नहीं, तो भला अब समाज का विश्वास खो दिया, नेता का भरोसा खो दिया, जिसके साथ गए उसको कोई फायदा नहीं हुआ तो ऐसे खोटे सिक्के का काम क्या ? बताते चलें कि ललन सिंह अभी मुंगेर से जेडीयू के सांसद हैं।
नीतीश की आंधी में उड़े सारे विरोधी 
औरंगाबाद के जेडीयू सांसद हैं सुशील कुमार सिंह पहले विधायक हुआ करते थे। एक बार सांसद भी रहे। इस बार चाहते थे कि औरंगाबाद से भाई को टिकट मिले जेडीयू का। लेकिन सीट थी बीजेपी के खाते की। चुनावभर औरंगाबाद में नीतीश कुमार को  परेशान करते रहे। अंत में न कुछ समझ में आया को भाई को लड़ा दिया लालू की पार्टी के टिकट पर। पार्टी और गठबंधन के उम्मीदवार को हराने के लिए पूरा ताकत झोंक दी, भाई तो इनके हारे ही, लेकिन जहां इनका घर पड़ता है वहां से भी नीतीश के उम्मीदवार की जीत हो गई। बीजेपी वाले जोर लगाए बैठे हैं कि भइया इनको ‘कल्टी’ कराओ। और तो और औरंगाबाद में इनको बैलेंस करने के लिए इन्हीं के समाज के नेता को, जिन्होंने इनके भाई को हराया उनको मंत्री बना दिया गया है। इन पर अनुशासन का डंडा चलाने के लिए स्क्रिप्ट टाइप हो रही है।


आगे बढ़िए महाबली सिंह बेचारे बीएसपी, आरजेडी और कहां-कहां घूमते फिरते नीतीश की शरण में आए। चुनाव हुआ लोकसभा का तो इनको काराकाट से टिकट दे दिया। अब इनका खेल देखिए जिस चैनपुर सीट से विधायक थे वहां अपने बेटे धर्मेंद्र को टिकट दिलवाकर विरासत बरकरार रखवाने के फेर में थे लेकिन पार्टी ने सिग्नल रेड कर दिया । और सुनिए ये तो विधायक बनने के बाद पार्टी बदलते रहे लेकिन इनके बेटे इनसे भी फास्ट निकले। विधायकी का चुनाव लड़ने के लिए ही पार्टी बदल दी। आरजेडी के टिकट पर लड़ गए। धर्मसंकट में फंसे बाबूजी ने पार्टी के नीति, सिद्धांत को ताक पर रखकर बेटे के लिए मोर्चा संभाल लिया लेकिन बेटा बेचारा बाबूजी की विरासत को संभाल नहीं पाया।


ललन सिंह 
पूर्णमासी राम, लालू-राबड़ी के जमाने में खाद्य-आपूर्ति मंत्री होते थे।  दूरदर्शी थे तभी मौका देखकर 2005  में ही पलटी मार गए और लोकसभा चुनाव के वक्त किस्मत ने साथ दिया तो गोपालगंज से जेडीयू के टिकट पर जीतकर दिल्ली का मुंह भी देख लिया। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद उनकी विधानसभा सीट पर जो उपचुनाव हुआ, उसमें उन्होंने खेल कर दिया। बेटे के लिए टिकट चाहते थे। नहीं मिला तो पार्टी के खिलाफ प्रचार किए और बगहा में पार्टी हार गई। सजा मिली तो इनको पार्टी से निलंबित भी कर दिया गया। लेकिन इस बार चुनाव से पहले फिर से उनको पार्टी ने साथ ले लिया। इस बार फिर बेटे का टिकट चाहते थे, अड़ गए लेकिन पार्टी ने फाइनली टिकट नहीं दिया। आदत से लाचार पूर्णमासी राम ने फिर मुंह खोला, बेटे को हरसिद्धि से लड़वा दिया वो भी कांग्रेस के टिकट पर। अब कहां बगहा और कहां हरसिद्धि। गोपालगंज की किसी सीट से लड़ते तो लोग शायद सोचते भी कि सांसद का बेटा है। इनको लगा कि पूरे बिहार के महादलित इन्हीं के इशारे पर चलते हैं। ‘छोटे नवाब’ को कुल जमा 6000 वोट मिले हैं। यहां भी बीजेपी के उम्मीदवार का खेल बिगाड़ने चले थे जेडीयू के सांसद महोदय। अब इनका अपना खेल बिगड़ने वाला है।


मोनाजिर हसन। लालू के साथ रहे तो उनको तेल लगाया। पांच साल पहले नीतीश के साथ हुए तो नीतीश को तेल लगाया। नीतीश को लगा कि मास लीडर है सो फायदा भी कराया। मंत्री बनाया। लोकसभा चुनाव के वक्त टिकट देकर सांसद बनवा दिया। वो भी उस बेगूसराय सीट से जहां इनको कोई पूछे न लेकिन इनको तो लग रहा है कि पूरे बिहार के मुसलमानों के यही इकलौते नेता हैं। खैर विधानसभा का जब उपचुनाव हुआ तो उम्मीदवारी को लेकर ललन सिंह से भिड़ गए। नतीजा हुआ कि उस समय लालू के उम्मीदवार की जीत हो गई। इस बार मोनाजिर भाई को लगा कि अपनी बेगम को भी विधायक बना लेंगे। लेकिन शायद नीतीश को उपचुनाव वाला खेल याद था सो टिकट नहीं मिला। लेकिन खेलल-खालल नेता मानने वाला थोड़ा था, लालू से हाथ-पैर जोड़कर अपनी बीवी को आरजेडी के टिकट पर खड़ा करवा दिया। बेचारे लालू की पार्टी के जो विधायक थे, साल भर में ही उनको मोनाजिर ने सेट कर दिया। लेकिन लोग तो भाई का खेल समझ गए लगते हैं। तभी तो मोनाजिर भाई बेगम को हरा दिया। अब मोनाजिर किसी को मुंह नहीं दिखा रहे। पटना में रुकने की बात छोड़ दीजिए। नया घर तलाश रहे हैं लेकिन लालू के लिए भी फुंके कारतूस हैं बेचारे।


मोनाजिर हसन 
उपेंद्र कुशवाहा से बहुत कम लोग परिचित होंगे। नीतीश के बाद पार्टी में किसी जमाने में नंबर दो हुआ करते थे। एक बार जन्दाहा से विधायक थे। झारखंड बंटा और सुशील मोदी के लिए जब नेता विपक्ष का नंबर घट गया तो समता पार्टी ने इन्हें विरोधी दल का नेता बनाया। 2005 के चुनाव में हार गए। इन्हीं के समाज के नागमणि की पूछ बढ़ गई और इनको कोई पूछने वाला नहीं रहा तो लगे नीतीश के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने। पार्टी छोड़ एनसीपी में चले गए। घूम-घूम के कोइरी के नेता के रूप में अपनी दुकानदारी चमकाने की नाकाम कोशिश में जुटे। कोई फायदा नहीं दिखा तो लोकसभा चुनाव के बाद फिर से नीतीश से सेटिंग कर पार्टी में लौट आए। तब तक बेचारे नागमणि से नीतीश का संपर्क ठीक नहीं रह गया था। इनको लगा कि कोइरियों के सबसे बड़े नेता तो हम ही रह गए हैं। नीतीश की भी मजबूरी थी नागमणि भाग जो गए थे सो इनको राज्यसभा भेजा गया। अब देखिए राज्यसभा सांसद बनने के बाद लगे रंग दिखाने। लगा कि हमसे बड़़ा कोइरियों का तो कोई नेता नहीं है, लेकिन टिकट बंटवारे में किसी ने पूछा नहीं इनको। उल्टे नीतीश ने इनसे भी बड़ा एक कोइरी नेता को शामिल करा लिया पार्टी में। लेकिन इनकी गणित काम कर गयी, बेचारे कोइरियों के बड़े नेता जो नीतीश के बौरो प्लेयर थे,  हार गए हैं। अब कुशवाहा जी इसे अपनी जीत मान रहे हैं लेकिन नीतीश के लोग अपनी हार। अब इनका क्या होगा.. नीतीश जाने।


ये बात तो सिर्फ जेडीयू की है। आरजेडी में भी महाराजगंज वाले सांसद उमाशंकर सिंह परेशान हैं। चुनाव में उनको लालू ने पूछा नहीं। प्रभुनाथ सिंह के कर्ता-धर्ता बने रहे। अब जिस प्रभुनाथ सिंह को हराकर वो सांसद बने थे उनकी बढ़ती हैसियत ने इनको नाराज कर दिया। चुनावभर खाली आरजेडी और प्रभुनाथ सिंह के समर्थकों को घूम घूमकर हराने में लगे रहे। कामयाब भी रहे। अब नीतीश के विकास की माला जप रहे हैं। वैसे भी नीतीश के साथ काम कर चुके हैं। उपेंद्र कुशवाहा को जब विपक्ष का नेता बनाया गया था, बिहार में। उस वक्त बिहार में समता पार्टी विधायक दल के नेता उमाशंकर सिंह ही थे। बाद में लालू से सट गए। अब ये क्या करेंगे या इनके साथ लालू क्या करेंगे ये तो ये जाने या फिर लालू। 

ऐसे नेताओं के खिलाफ संगठन के लोग नाराज हैं। वैसे भी परंपरा तो गलत ही है, अनुशासन में लोग न रहे तो हर कोई ऐसा करेगा। तब तो भगवान मालिक है राजनीतिक दलों का।

Sunday, November 28, 2010

अब देना होगा नीतीश को असली इम्तिहान

मनोज मुकुल  
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और स्टार न्यूज़ में एसोसिएट सीनियर प्रोडयूसर हैं)
विकास, विकास और विकास। बिहार की नई पीढ़ी विकास का नाम भूल चुकी थी। लेकिन पिछले पांच सालों के दौरान उसने जो कुछ देखा, सुना उसका नतीजा ये है कि आज देश में विकास की बात हो रही है और लोग बिहार का नाम ले रहे हैं। नीतीश की जीत के कई मायने है। लेकिन अब सबसे बड़ी चुनौती है लोगों के लिए रोजगार के मौके पैदा करना। बिहार में बंद हो चुके उद्योग-धंधे को फिर से पटरी पर लाना। बिहार से बाहर गए लोगों को बिहार वापस लाना। अब नीतीश के पास इसके बारे में क्या मॉडल है इसका खुलासा अभी न तो बिहार के सामने हुआ है और ना ही देश के सामने। बिहार की सियासत को बिरादरी की वजह से लोग ज्यादा जानते थे। इस बार भी बिरादरी को कम करके किसी ने नहीं आंका था लेकिन नीतीश से आस लगाए हर धर्म, जाति के लोगों ने बिरादरी को बाय-बाय कर विकास को गले लगाया। कारण था उम्मीद। लोगों ने नीतीश कुमार में अपनी खुशहाली की तस्वीर देखी। लिहाजा नीतीश को दिल खोलकर काम करने का मौका दिया है।

जल्दी खत्म होगा हनीमून पीरियड 
पिछले पांच साल की तुलना लालू-राबड़ी के 15 साल से होती रही, लिहाजा नीतीश के पांच साल भारी पड़े। अब जब नीतीश की तुलना उनके अपने ही पांच साल से होनी है लिहाजा चुनौती बड़ी है। बिहार में रहने वाले लोग अब चमचमाती सड़कों के आदी हो चुके हैं। उनके लिए चमचमाती सड़कें,  स्कूल में समय पर शिक्षकों का आना,  अस्पताल में डॉक्टरों का समय से पहुंचना धीरे-धीरे पुरानी बातें होती चली जाएंगी। बिहार से बाहर रहने वाले लोग साल में त्योहार-शादी ब्याह के मौके पर एकाध बार बिहार जाते हैं लिहाजा उनके लिए चमचमाती सड़कें और वहां का बदला माहौल जरूर नया होता है लेकिन जो लोग वहीं रहते हैं उनके लिए ये बातें नई नहीं होंगी। लिहाजा अब उनकी नई अपेक्षाओं पर खुद को साबित करना नीतीश के लिए चुनौती का काम होगा। 

बिहार की पुरानी सड़कें चमचमा जरूर रही है लेकिन ट्रैफिक एक बड़ी समस्या बन गया है। चाहे पटना हो या मुजफ्फरपुर। छपरा,  दरभंगा और जहानाबाद, हर शहर और शहर के बाहर व्यस्त सड़कों पर ट्रैफिक का बोझ बढ़ता जा रहा है। कारण भी है बिहार के लोगों की परचेंजिंग कैपेसिटी जिस अनुपात में बढ़ रही उस अनुपात में कोई ग्रेटर पटना या ग्रेटर दरभंगा टाइप नया कुछ नहीं हो रहा है और फोरलेन या सिक्सलेन का मामला हर जगह के लिए है भी नहीं। इस समस्या से निपटने के लिए भी कुछ जल्दी ही करना होगा। 

सेंट्रल यूनिवर्सिटी,  आईआईटी,  आईआईएम टाइप आइटम भी 9  करोड़ की आबादी वाले बिहार को चाहिए। कब तक यहां के लड़के टपला खाते फिरेंगे? जात-पात के बंधन से ऊपर उठकर लोगों ने मौका दिया है तो हर लेवल पर मुस्तैदी से खड़ा होना होगा। 

विरोधी तो विरोधी समर्थक भी कहते हैं कि नीतीश के कार्यकाल में अफसरशाही को मजबूती मिली है और घूसखोरी-भ्रष्टाचार को बढ़ावा। सच्चाई भी है। लूटने की आदत पहले से पड़ी हुई है जिसे ठीक करना होगा। ट्रांसफर-पोस्टिंग और छोटी-मोटी बहालियों में भी लाखों का खेल रुका नहीं है। अंतर इतना हुआ कि पहले टेबल के ऊपर से होता था अभी टेबल के नीचे से हो रहा है।  इस चीज को सुधारने का मौका बिहार के लोगों ने दिया है। 

बढ़ गयी हैं बिहार के लोगों की उम्मीदें 
अपराध पूरी तरह काबू में नहीं आ सकता, इसे हर कोई मानता है लेकिन अपराधियों को जिनका आशीर्वाद मिला है वैसे लोगों पर कंट्रोल कीजिए ताकि समाज खुशी से कमा सके, खा सके। लोग खुश रहेंगे और आप खुश रहेंगे। लोगों को कष्ट हुआ तो आप भी चैन से सो नहीं पाएंगे,  उन लोगों की तरह। 

फिलहाल चुनौतियां पहले से ज्यादा है। एक बार साबित हो चुके इंसान को खुद को साबित करना है जो कर दिया उसको भी साथ ले चलना है। और कुछ करने के लिए पूरा वक्त भी है। सत्ता के अहंकार का वक्त नहीं है। फिलवक्त माहौल को और ठीक करने का है। और, हां किसी और के लिए बिहार में फिलहाल कोई स्कोप नहीं है। ऊपर से इतिहास गवाह है बिहार की धरती पर उठकर जो गिर गया, दोबारा कभी नहीं उठा है। मौका बेहतर है सेवा करके साबित कीजिए । इस बार सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाला वोटर न तो कुर्मी था न कोइरी, न कोई राजपूत, भूमिहार,  वैश्य,  मुसलमान या फिर यादव,  पूरे बिहार ने चुना है अब बिहार को यकीन दिलाइए।

Wednesday, November 24, 2010

A Lesson For India From Bihar

RAJIV KUMAR
(Writer is IIMC alumnus and presently working in TV Today Group ( Headlines Today)
His nickname is Munna, he is an engineering graduate and a teetotaller and today the 59-year-old Nitish Kumar is Bihar's man of the moment. But how he did the magic! Let's decipher..!
Bihar has shown the way, Development can fetch you votes as well.

It is high time leaders doing identity/ religion based (RJD, BJP) politics should re-think & re-invent their ideology.

Time to party for Nitish
Nitish Kumar successfully eroded the basis of the RJD’s electoral advantage by, first, winning over a section of the Muslims and, secondly, by retaining the support of the upper castes as well via the BJP. It was clever tactics where the BJP was made to act strictly in accordance with the script written by Nitish Kumar by excluding the minority-baiters and also keeping the upper castes on board.

3 cards, which worked for Nitish were Women empowerment, MBC & good law and order.

There is definitely dent in Lalu’s Muslim-Yadav equation. Nitish lured Muslim at least towards JD(U) candidate & softened their stand towards the whole NDA.

Lalu Yadav lost his base
Nitish Kumar made it abundantly clear that he has nothing to do with its pro-Hindu agenda. Nitish Kumar ensured that Bihar remained riot-free throughout the last five years. And Bhagalpur riot convictions was a feather in his cap.

Lalu-Paswan failed to see writing on the wall. They failed to see Muslim voters have evolved since Ayodhya. They know what is good for them.

How are you Rahul Baba?
It was election based on Imaginary vs. Real issues. On the one hand Nitish was ready with his implementation card at the same time RJD & INC were scaring minorities with Gujarat (Modi) ghost. Issues in Gujarat found no taker in Bihar.

Congress\ Rahul Gandhi's claim that Nitish misused funds sent for Bihar hurt the Bihari sensibilities. Nitish's rebuttal found takers as he said it's not Centre's\Congress's money.

Nitish evoked Bihari pride\ sub-nationalism in place of Lalu's parochial rant for Backward Caste & for M-Y.


No taker for Dynasty politics….Rabri, Sadhu, Subhash all out.

Tuesday, November 9, 2010

कितना बदला है बिहार?

सत्यव्रत मिश्रा 
( लेखक आईआईएमसी, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र और बिजनेस स्टैंडर्ड हिंदी में कार्यरत हैं )
बिहार के नाम से ही पहले कारोबारी और कारोबार, दोनों खार खाया करते थे। वजह भी काफी वाजिब थी। दरअसल, अपहरण एक उद्योग की शक्ल ले चुका था। साथ ही, वसूली या रंगदारी का कारोबार भी अपने शबाब पर हुआ करता था। मगर बीते पांच साल में काफी कुछ बदल चुका है। अपहरण उद्योग अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है और ज्यादातर रंगदार (वसूली करने वालों को बिहार में इसी नाम से जाना जाता है) या तो चिता की अग्नि में समा चुके हैं या फिर जेल में अपने दिन काट रहे हैं। हालांकि, अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है। 

पटना में निर्माणाधीन अपार्टमेंट 
बीते पांच सालों में बिहार में कुछ क्षेत्रों में काफी तरक्की हुई है। अगर टेलीकॉम और निर्माण को लें तो आंकड़े देख कर कोई भी शख्स हैरान रह जाएगा। निर्माण क्षेत्र में बीते पांच सालों में करीब 35 फीसदी की रफ्तार से तरक्की हुई है, जबकि टेलीकॉम में 20 फीसदी की रफ्तार से इजाफा हुआ है। आज पटना में एक तरह से अपार्टमेंट क्रांति आ गई है। हर तरफ आपको गगनचुंबी अट्टालिकाएं ही दिखाई देंगी। यहां एक फ्लैट की कीमत चुकाने में अच्छे-अच्छों की जेब ढीली हो जाती है। बोरिंग रोड, फ्रेजर रोड और एक्जीबिशन रोड में फ्लैट्स की कीमत करोड़ों में पहुंच चुकी है। कदमकुंआ और कंकड़बाग कॉलोनी में भी एक फ्लैट के लिए आपकी जेब में कम से कम 50 लाख रुपये तो होने ही चाहिए। आलम यह है कि सीमेंट की खपत में प्रतिशत वृद्धि के मामले में बीते वित्त वर्ष में बिहार पहले नंबर पर रहा था।
एक गाँव की खस्ताहाल सड़क 
दूसरी तरफ, सूबे का टेलीकॉम उद्योग भी आस-पड़ोस के राज्यों के मुकाबले काफी तेजी से तरक्की कर रहा है। बिहार सर्किल में आज 13 टेलीकॉम कंपनियां कारोबार कर रही हैं। अकेले यह क्षेत्र बिहार में हजार करोड़ रुपये का निवेश लेकर आया है। इसके अलावा, होटल और रेस्त्रां कारोबार भी खूब चमक रहा है। साथ ही, सूबे में कारों की मांग भी तेजी से बढ़ रही है। अकेले इस धनतेरस पर सिर्फ पटना में 2,200 से ज्यादा कारों की बुकिंग हुई। दोपहिया वाहनों की बिक्री तो दसियों हजार में रही। साथ ही, लैपटॉप की बिक्री के मामले में बिहार काफी आगे रहा है। लेनेवो के वरिष्ठ उपाध्यक्ष एलेक्स ली के मुताबिक बिहार में बीते कुछ सालों में उनके लैपटॉप्स की बिक्री भी काफी तेजी से बदली है।

तो आखिर क्या कारण है इस तेज विकास के ? एक कारोबारी ने बताया कि, ''दरअसल, कानून व्यवस्था सुधरने की वजह से हालात काफी हद तक बदले हैं। आज किसी को इस बात का डर नहीं है कि अगर उसने कार या फ्लैट खरीदा तो उसके पास रंगदारों के फोन आ जाएंगे। देखिए, बिहार में कभी पैसों की कमी नहीं रही है। कमी रही है तो उसे खर्च करने के मौकों की। बीते चार सालों में इनकम टैक्स बटोरने के मामले में पटना लगातार दिल्ली और मुंबई को पीछे छोड़ता आ रहा है।''

हालांकि, विकास की इस गाथा का एक दूसरा चेहरा भी है, जो काफी स्याह है। विकास की चमकीली गाथा काफी हद तक शहरों तक ही सीमित है। गांवों में आज भी इसकी दमक नहीं पहुंच पाई है। माना कि नीतीश सरकार ने काफी गांवों तक सड़कें पहुंचा दी हैं। लेकिन आज भी बिहार के अधिकतर गांव ऐसे हैं, जहां सड़कें नहीं पहुंच पाई हैं। साथ ही, बिजली की समस्या आज भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हुई है। बिहार सरकार के 10 साल पुराने अनुमानों के मुताबिक बिहार को कम से कम 3,200 मेगावॉट बिजली की जरूरत है। माफ कीजिएगा नए आंकड़े नहीं दे पा रहा हूं क्योंकि ये आंकड़े खुद सरकार के पास भी नहीं है। हालांकि, आज भी बिहार को केंद्रीय कोटे से सिर्फ 1,100-1,200 मेगावॉट ही बिजली मिल पा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समस्या को विकराल बनाने में केंद्र सरकार ने भी अच्छा खासा योगदान दिया। वह राज्य को उसके हक की बिजली भी नहीं दे रही है। साथ ही, कोल लिंकेज देने में भी बिहार के साथ भेदभाव किया गया। लेकिन इससे बिहार सरकार को अपने पापों से मुक्ति नहीं मिल सकती। दरअसल, बिजली घरों के लिए कोल लिंकेज की याद राज्य सरकार को 2008-09 में आई, जब कोयला खानों का वितरण हो चुका था। तो क्या चुने जाने के तीन साल बाद तक राज्य सरकार सो रही थी?
निर्माणाधीन बिजनेस सेण्टर 


इसके अलावा, बिहार में 90 फीसदी इलाका गांवों के तहत आता है, जहां लोगों की कमाई का मुख्य स्रोत खेती-बाड़ी है। राज्य सरकार के आर्थिक सर्वे की मानें तो कृषि क्षेत्र में विकास की दर नकारात्मक रही है। इसका मतलब यह हुआ कि असल में गांवों में लोगों की आय कम हुई है। साथ ही, विनिर्माण (मैन्यूफैक्चरिंग) क्षेत्र में भी विकास भी ठहरा हुआ है। मतलब बिहार में ज्यादा उत्पादन भी नहीं हो रहा है। भ्रष्टाचार पर भी नीतीश सरकार लगाम कसने में नाकामयाब रही है। दरअसल, कई विश्लेषक के मुताबिक तो पटना के 50 फीसदी से ज्यादा फ्लैट्स पर सरकारी बाबुओं का कब्जा है। हालांकि, उनके पास इस बात को सच साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है।


राज्य सरकार के अधिकारी भी दबी जुबान में इस बात को मानते हैं कि विकास के मामले में बिहार अब भी काफी पीछे है। दरअसल, बिहार के लिए विकास की सीढियां चढ़ना काफी मुश्किल होने वाला है। बिहार प्रति व्यक्ति आय के मामले में आज जिस स्तर पर है, उसे शेष भारत सालों पहले पीछे छोड़ चुका है। साथ ही, बिहार में बड़े पैमाने पर निजी निवेश होने की संभावना भी न के बराबर है। दरअसल, यहां खनिज उत्पादों के नाम पर कुछ भी नहीं बचा है, ताकि बड़े कॉपोरेट घराने यहां का रुख करें। साथ ही, देश से बाहर रहने वाले बिहारी, गुजरातियों या पंजाबियों की तरह अमीर या रसूख वाले भी नहीं होते, जिससे उनके पैसों या रसूख की वजह से बिहार का विकास हो। मतलब अभी एक लंबे वक्त के लिए बिहार को विकास की खातिर सरकारी पैसों पर ही आश्रित रहना होगा।

हालांकि, मेरी अपनी आस्था यह है कि नीतीश कुमार के इस कार्यकाल को अपनी दो खूबियों के लिए सदा याद किया जाएगा। पहली खूबी यह कि इस सरकार के कार्यकाल में सूबे में सालों के बाद कानून का राज स्थापित हुआ। नीतीश कुमार ने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए जितना किया है, वह वाकई काबिले तारीफ है। पंचायती चुनाव और जिला परिषदों के चुनाव में या फिर सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी के आरक्षण की वजह से सूबे में कई महिलाओं ने पहली बार अपनी आवाज पाई। साथ ही, साइकिल जैसे एक मामूली से माध्यम के जरिये स्कूलों में लड़कियों की तादाद में काफी इजाफा हुआ है।