Friday, December 3, 2010

अब तेरा क्या होगा 'कालिया'...?

मनोज मुकुल 
(लेखक आईआईएमसी] नई दिल्ली के पूर्व छात्र और स्टार न्यूज़ में एसोसिएट सीनियर प्रोडयूसर हैं)
बिहार चुनाव के नतीजों को लेकर नीतीश कुमार के विरोधी तो कभी भी ऐसी उम्मीद लगाकर नहीं बैठे रहे होंगे। चुनावी साल में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और नीतीश के हमकदम माने जाने वाले ललन सिंह ने अपना हिसाब-किताब अलग कर लिया। नीतीश तानाशाह हैं, पार्टी में लोकतंत्र खत्म हो गया और न जाने दुनिया भर के क्या-क्या आरोप लगा पटना से दिल्ली में आसन जमा लिया। उन्होंने बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस को ‘सेट’ कर अपना राजनीतिक प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया। कांग्रेस को भी लगा कि भैया बड़ा नाम है, पुराने सहयोगी हैं। नीतीश का फायदा कराया अब हमारा भी फायदा कराएँगे। सांसद बने जेडीयू के टिकट पर और चुनाव में प्रचार के लिए गाड़ी में कांग्रेस का झंडा लगाकर खूब घूमे लेकिन लोगों ने लाइन पर ला दिया। अब कांग्रेस के लिए भी बेचारे किसी काम के नहीं रहे। उपर से झंडा लगाकर घूमने और कांग्रेस के मंच से भाषण देने को लेकर सदस्यता खतरे में है। नीतीश कुमार के लोग चाहते हैं कि इनको पार्टी से निकालकर शहीद बनाने के बजाए बेहतर होगा इनकी संसद सदस्यता के खिलाफ पहले शिकायत की जाए। लिहाजा चुनाव आयोग और लोकसभाध्यक्ष से शिकायत की तैयारी है। पूरे सबूत के साथ। अगर वहां से कुछ फायदे वाला जवाब पार्टी को नहीं मिला तो किसी भी दिन इनको चलता कर दिया जाएगा। वजह जिस बंटाईदारी बिल को लेकर ललन ने बिहार में हायतौबा मचाई थी उसको लेकर तो बंटाइदारी बिल वाले समाज के लोग सरकार के खिलाफ गए नहीं, तो भला अब समाज का विश्वास खो दिया, नेता का भरोसा खो दिया, जिसके साथ गए उसको कोई फायदा नहीं हुआ तो ऐसे खोटे सिक्के का काम क्या ? बताते चलें कि ललन सिंह अभी मुंगेर से जेडीयू के सांसद हैं।
नीतीश की आंधी में उड़े सारे विरोधी 
औरंगाबाद के जेडीयू सांसद हैं सुशील कुमार सिंह पहले विधायक हुआ करते थे। एक बार सांसद भी रहे। इस बार चाहते थे कि औरंगाबाद से भाई को टिकट मिले जेडीयू का। लेकिन सीट थी बीजेपी के खाते की। चुनावभर औरंगाबाद में नीतीश कुमार को  परेशान करते रहे। अंत में न कुछ समझ में आया को भाई को लड़ा दिया लालू की पार्टी के टिकट पर। पार्टी और गठबंधन के उम्मीदवार को हराने के लिए पूरा ताकत झोंक दी, भाई तो इनके हारे ही, लेकिन जहां इनका घर पड़ता है वहां से भी नीतीश के उम्मीदवार की जीत हो गई। बीजेपी वाले जोर लगाए बैठे हैं कि भइया इनको ‘कल्टी’ कराओ। और तो और औरंगाबाद में इनको बैलेंस करने के लिए इन्हीं के समाज के नेता को, जिन्होंने इनके भाई को हराया उनको मंत्री बना दिया गया है। इन पर अनुशासन का डंडा चलाने के लिए स्क्रिप्ट टाइप हो रही है।


आगे बढ़िए महाबली सिंह बेचारे बीएसपी, आरजेडी और कहां-कहां घूमते फिरते नीतीश की शरण में आए। चुनाव हुआ लोकसभा का तो इनको काराकाट से टिकट दे दिया। अब इनका खेल देखिए जिस चैनपुर सीट से विधायक थे वहां अपने बेटे धर्मेंद्र को टिकट दिलवाकर विरासत बरकरार रखवाने के फेर में थे लेकिन पार्टी ने सिग्नल रेड कर दिया । और सुनिए ये तो विधायक बनने के बाद पार्टी बदलते रहे लेकिन इनके बेटे इनसे भी फास्ट निकले। विधायकी का चुनाव लड़ने के लिए ही पार्टी बदल दी। आरजेडी के टिकट पर लड़ गए। धर्मसंकट में फंसे बाबूजी ने पार्टी के नीति, सिद्धांत को ताक पर रखकर बेटे के लिए मोर्चा संभाल लिया लेकिन बेटा बेचारा बाबूजी की विरासत को संभाल नहीं पाया।


ललन सिंह 
पूर्णमासी राम, लालू-राबड़ी के जमाने में खाद्य-आपूर्ति मंत्री होते थे।  दूरदर्शी थे तभी मौका देखकर 2005  में ही पलटी मार गए और लोकसभा चुनाव के वक्त किस्मत ने साथ दिया तो गोपालगंज से जेडीयू के टिकट पर जीतकर दिल्ली का मुंह भी देख लिया। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद उनकी विधानसभा सीट पर जो उपचुनाव हुआ, उसमें उन्होंने खेल कर दिया। बेटे के लिए टिकट चाहते थे। नहीं मिला तो पार्टी के खिलाफ प्रचार किए और बगहा में पार्टी हार गई। सजा मिली तो इनको पार्टी से निलंबित भी कर दिया गया। लेकिन इस बार चुनाव से पहले फिर से उनको पार्टी ने साथ ले लिया। इस बार फिर बेटे का टिकट चाहते थे, अड़ गए लेकिन पार्टी ने फाइनली टिकट नहीं दिया। आदत से लाचार पूर्णमासी राम ने फिर मुंह खोला, बेटे को हरसिद्धि से लड़वा दिया वो भी कांग्रेस के टिकट पर। अब कहां बगहा और कहां हरसिद्धि। गोपालगंज की किसी सीट से लड़ते तो लोग शायद सोचते भी कि सांसद का बेटा है। इनको लगा कि पूरे बिहार के महादलित इन्हीं के इशारे पर चलते हैं। ‘छोटे नवाब’ को कुल जमा 6000 वोट मिले हैं। यहां भी बीजेपी के उम्मीदवार का खेल बिगाड़ने चले थे जेडीयू के सांसद महोदय। अब इनका अपना खेल बिगड़ने वाला है।


मोनाजिर हसन। लालू के साथ रहे तो उनको तेल लगाया। पांच साल पहले नीतीश के साथ हुए तो नीतीश को तेल लगाया। नीतीश को लगा कि मास लीडर है सो फायदा भी कराया। मंत्री बनाया। लोकसभा चुनाव के वक्त टिकट देकर सांसद बनवा दिया। वो भी उस बेगूसराय सीट से जहां इनको कोई पूछे न लेकिन इनको तो लग रहा है कि पूरे बिहार के मुसलमानों के यही इकलौते नेता हैं। खैर विधानसभा का जब उपचुनाव हुआ तो उम्मीदवारी को लेकर ललन सिंह से भिड़ गए। नतीजा हुआ कि उस समय लालू के उम्मीदवार की जीत हो गई। इस बार मोनाजिर भाई को लगा कि अपनी बेगम को भी विधायक बना लेंगे। लेकिन शायद नीतीश को उपचुनाव वाला खेल याद था सो टिकट नहीं मिला। लेकिन खेलल-खालल नेता मानने वाला थोड़ा था, लालू से हाथ-पैर जोड़कर अपनी बीवी को आरजेडी के टिकट पर खड़ा करवा दिया। बेचारे लालू की पार्टी के जो विधायक थे, साल भर में ही उनको मोनाजिर ने सेट कर दिया। लेकिन लोग तो भाई का खेल समझ गए लगते हैं। तभी तो मोनाजिर भाई बेगम को हरा दिया। अब मोनाजिर किसी को मुंह नहीं दिखा रहे। पटना में रुकने की बात छोड़ दीजिए। नया घर तलाश रहे हैं लेकिन लालू के लिए भी फुंके कारतूस हैं बेचारे।


मोनाजिर हसन 
उपेंद्र कुशवाहा से बहुत कम लोग परिचित होंगे। नीतीश के बाद पार्टी में किसी जमाने में नंबर दो हुआ करते थे। एक बार जन्दाहा से विधायक थे। झारखंड बंटा और सुशील मोदी के लिए जब नेता विपक्ष का नंबर घट गया तो समता पार्टी ने इन्हें विरोधी दल का नेता बनाया। 2005 के चुनाव में हार गए। इन्हीं के समाज के नागमणि की पूछ बढ़ गई और इनको कोई पूछने वाला नहीं रहा तो लगे नीतीश के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने। पार्टी छोड़ एनसीपी में चले गए। घूम-घूम के कोइरी के नेता के रूप में अपनी दुकानदारी चमकाने की नाकाम कोशिश में जुटे। कोई फायदा नहीं दिखा तो लोकसभा चुनाव के बाद फिर से नीतीश से सेटिंग कर पार्टी में लौट आए। तब तक बेचारे नागमणि से नीतीश का संपर्क ठीक नहीं रह गया था। इनको लगा कि कोइरियों के सबसे बड़े नेता तो हम ही रह गए हैं। नीतीश की भी मजबूरी थी नागमणि भाग जो गए थे सो इनको राज्यसभा भेजा गया। अब देखिए राज्यसभा सांसद बनने के बाद लगे रंग दिखाने। लगा कि हमसे बड़़ा कोइरियों का तो कोई नेता नहीं है, लेकिन टिकट बंटवारे में किसी ने पूछा नहीं इनको। उल्टे नीतीश ने इनसे भी बड़ा एक कोइरी नेता को शामिल करा लिया पार्टी में। लेकिन इनकी गणित काम कर गयी, बेचारे कोइरियों के बड़े नेता जो नीतीश के बौरो प्लेयर थे,  हार गए हैं। अब कुशवाहा जी इसे अपनी जीत मान रहे हैं लेकिन नीतीश के लोग अपनी हार। अब इनका क्या होगा.. नीतीश जाने।


ये बात तो सिर्फ जेडीयू की है। आरजेडी में भी महाराजगंज वाले सांसद उमाशंकर सिंह परेशान हैं। चुनाव में उनको लालू ने पूछा नहीं। प्रभुनाथ सिंह के कर्ता-धर्ता बने रहे। अब जिस प्रभुनाथ सिंह को हराकर वो सांसद बने थे उनकी बढ़ती हैसियत ने इनको नाराज कर दिया। चुनावभर खाली आरजेडी और प्रभुनाथ सिंह के समर्थकों को घूम घूमकर हराने में लगे रहे। कामयाब भी रहे। अब नीतीश के विकास की माला जप रहे हैं। वैसे भी नीतीश के साथ काम कर चुके हैं। उपेंद्र कुशवाहा को जब विपक्ष का नेता बनाया गया था, बिहार में। उस वक्त बिहार में समता पार्टी विधायक दल के नेता उमाशंकर सिंह ही थे। बाद में लालू से सट गए। अब ये क्या करेंगे या इनके साथ लालू क्या करेंगे ये तो ये जाने या फिर लालू। 

ऐसे नेताओं के खिलाफ संगठन के लोग नाराज हैं। वैसे भी परंपरा तो गलत ही है, अनुशासन में लोग न रहे तो हर कोई ऐसा करेगा। तब तो भगवान मालिक है राजनीतिक दलों का।

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