Saturday, December 25, 2010

“शरीर के मरने पर भी नहीं मरुंगा”

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
सेक्स और मृत्यु- ये दो ऐसे सब्जेक्ट हैं जिसपर लोग बात करने से अक्सर कतराते हैं। सेक्स को लेकर तो कभी बात भी हो जाए लेकिन मृत्यु से हम एक दूरी बनाए रहते हैं। हम मौत से इतने डरे हुए हैं कि उससे संबंधित बातें करने से भी जी-चुराते हैं। हम भले ही मृत्यु की बात तक से कोसों दूर रहें, लेकिन मौत उतना ही परम सत्य है, जितनी जिंदगी।

आखिर हम मौत से इतने डरे हुए क्यों हैं? हम सभी जानते हैं कि एक न एक दिन इस शरीर को हमें छोड़ना पड़ेगा। एक दिन हम सभी अनंत में खो जाने वाले हैं। इस धरा को मृत्युलोक कहा गया है। यहां हम चारों तरफ आंखें दौड़ा कर जिन चीजों को देख पा रहें हैं, वो चीजें एक दिन नहीं रहेगी। ये मृत्युलोक है, यहां हर चीज नष्ट होने वाली है। सवाल है, फिर हम क्यों इतने भयभीत है, हम क्यों डरे हुए हैं ? मौत रुप महबूबा से एक दिन हमारी मुलाकात तय है तो फिर किस बात का डर? एक बूढ़ा आदमी मौत के जितने करीब है, गर्भ में आकार ले रहा एक शिशु भी मृत्यु के उतने ही करीब है। हम ये नहीं कह सकते कि एक बूढ़े की मौत की संभावनाएं ज्यादा है और एक छोटे बच्चे की कम। दरअसल हमारे जन्म के साथ ही मौत का सफर शुरु हो जाता है।

जीवन के बाद आती है मौत 
मौत से डरने की वजह कुछ और ही है। दरअसल जीवन से हम बहुत अपरिचित है, इसलिए मौत हमें डराती है। जीवन से हम इतने अनजान है कि हर पल हमें मृत्यु सामने खड़ी नजर आती है। जिंदगी है वर्तमान और मौत है भविष्य। हम भविष्य को लेकर हमेशा इतने आशंकित रहते हैं कि वर्तमान में जी ही नहीं पाते। जिंदगी को जीना हो तो वर्तमान में हमें रहना पड़ेगा। अभी जो पल हमारे साथ है उतनी ही भर हमारी जिंदगी है और इससे हम चूकते हैं तो हम हर पल जीते हुए भी मरे हुए हैं। मौत से डरने की नहीं, जीवन को स्वीकार करने की जरूरत है। हम जीवन से हर दिन भाग रहे हैं और चाहते हैं कि हमारी मृत्यु भी ना हो।

जन्म-मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे हम समझ सकें तो मृत्यु को लेकर जो डर है उसे हम दूर करने में कामयाब हो सकेंगे, जीवन के साथ खुद को जोड़ पाएंगे। एक बीज का उदाहरण लें। हम बीज को धरती में बोते हैं और वहीं बीज वृक्ष बनता है। एक बीज एक हरे-भरे वृक्ष का रुप ले लेता है- एक नया जीवन चारों तरफ खिल उठता है।
क्या हमें इस बात का ख्याल है कि वृक्ष रूपी इस जीवन के लिए बीज को मरना होता है। बीज के मिट जाने से ही एक नए वृक्ष का जन्म होता है। बीज अगर मिटने को राजी ना हो तो नए का जन्म नहीं होगा। नए के जन्म के लिए बीज की मौत ज़रूरी है।

गीता का उपदेश : अजर-अमर है आत्मा 
हमें ख्याल न हो, लेकिन अगर मौत न हो तो हम जी भी ना सकें। शरीर के अंदर कई तरह की प्रक्रिया हर पल, हर क्षण चलती रहती है। हमारे शरीर की न्यूनतम इकाई कोशिका है। सेल से टिश्यू, टिश्यू से ऑर्गन और इसतरह हमारा ये पूरा शरीर बनता है। हर दिन हजारों सेल मरते हैं और लाखों नए सेल का जन्म हमारे शरीर में होता है। शरीर के भीतर कोशिकाओं के मरने और नए के जन्म लेने की प्रक्रिया रुक जाए तो हमारा ये शरीर काम के लायक नहीं रहेगा। अगर कोशिकाओं की मौत को हम इनकार करेंगे तो हम जीवित नहीं रह पाएंगे। मृत्यु हमारे लिए यहां वरदान है। साइंस का कहना है कि मनुष्य का शरीर कम से कम 7 बार पूरी तरह से नया हो जाता है। हम वो नहीं होते जैसे हम जन्म के वक्त होते हैं, बिल्कुल नए हम होते हैं। अगर आपने अपने बचपन की तस्वीर कभी ना देखी हो और आपको बाद में दिखाई जाए तो आप यकीन ही नहीं करेंगे कि ये तस्वीर आपकी ही है। हर पल हम मिट रहे हैं और हर पल एक नए का जन्म हो रहा है। जिंदगी-मौत के बीच इतना फासला होता है कि हम समझ लेते हैं कि दोनों दो अलग-अलग चीजें हैं।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
     न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२२।।

अर्थात.... जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।

वेद में कहा गया है अमृतस्य पुत्रोहऽम’- यानी हम अमृत के पुत्र हैं। हम अमृत की संतान हैं, इसलिए मौत से डरने की हमें ज़रूरत नहीं। गीता कहती है कि जो शरीर के मिटने के बाद भी नहीं मिटता वहीं हम हैं, जो मिट रहा है वो शरीर है। मौत से भयभीत होने की जगह हमें जिंदगी को गले लगाना होगा। इस पल को आ जी ले जरा- क्योंकि यहीं पल है जिंदगी और इसी पल में है हमारा होना।

Recent Posts

No comments:

Post a Comment