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Wednesday, November 10, 2010

बॉलीवुड : हर दौर में बदला हीरोइन का हीरो

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिठ संवाददाता हैं )
भारत में सिनेमा जब शुरू हुआ तो फिल्में मूल रूप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी हरिश्चंद्र, राम या विष्णु के किरदारों में आते थे।

पहली बोलती फिल्म आलम आरा’ (1931)  के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ  तय हो चुकी थीं लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तो अभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा (बॉडी लैंग्वेज ) के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई। 1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण-युग था। वह सहगल,  पृथ्वीराज कपूर,  सोहराब मोदी,  जयराजप्रेम अदीब,  किशोर साहूमोतीलाल,  अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों  का ज़माना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार,  देव आनंद,  किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग  दस्तक दे रहे थे।

पृथ्वीराज कपूर 
पारसी   और बांग्ला अभिनय की अतिनाटकीय  शैलियां बदलते युग और समाज में हास्यास्पद लगने लगीं । उधर बरुआ ने बांग्ला  ‘देवदास’  में नायक की परिभाषा को बदल दिया। अचानक सहगल  और सोहराब मोदी जैसे स्थापित नायक अभिनय-शैली में बदलाव की  वजह से भी पुराने पड़ने लगे। मोतीलाल और अशोक कुमार पुराने और नए अभिनय के बीच की दो अहम कड़ियाँ हैं। इन दोनों में मोतीलाल सहज-स्वाभाविक अभिनय करने में बाज़ी मार ले जाते हैं। लेकिन कलकत्ता में लगातार तीन साल चलने वाली क़िस्मत’  में प्रतिनायक के किरदार में अशोक  कुमार एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे।

अशोक कुमार 
आजा़दी के आसपास ही परदे पर देवानंदराजकपूर और दिलीप कुमार सितारे की तरह उगे। दिलीप कुमारनुमा  रोमांस का मतलब था ट्रैजिक रोमांस। दिलीप कुमाररोमांस हो या भक्ति,  मूल रूप से अपनी अदाकारी को केंद्र में रखते थे और वे ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर भी हो गए। दिलीप कुमार ने अभिनय की हदें बदल डालीं।

आजादी  के बाद के युवाओं में रोमांस का पुट भरा देवानंद ने। देवानंद कॉलेज के  लड़कों में,  एडोलेसेंट लेवल पर काफी लोकप्रिय थे। देव  आनंद हॉलीवुड के बड़े नायक ग्रेगरी पेक से प्रभावित तो हुए लेकिन पेक की कुछ अदाओं को छोड़कर उन्होंने उनसे अच्छा अभिनय  कभी नहीं सीखा जो पेक की रोमन हॉलिडे’, ‘टु किल ए मॉकिंग बर्ड’ या दि गांस ऑफ़ नावारोने’ में दिखाई देता है।

मन को गुदगुदाते रहे देव आनंद 
एक मज़ेदार प्लेब्वॉय बनकर ही रह गए देवानंद की लोकप्रियता कई बार दिलीप कुमार और राजकपूर से ज़्यादा साबित हुई। इस तिकड़ी में देव ही ऐसे थे जिनकी नकल करोड़ों दर्शकों ने की लेकिन उनके किसी समकालीन ने उसकी नकल करने की ज़ुर्रत नहीं की।

राज कपूर एक अच्छे अभिनेता तो थे ही लेकिन उससे भी बड़े  निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को  उभारने की कोशिश की। आरके लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होने सिल्वर स्क्रीन पर साकार करने की कोशिश की। राज कपूर,  दिलीप कुमार और देवानंद,  ये तीनों एक  स्टाइल आइकॉन थे। लेकिन  इन तीनों का जादू तब चुकने लगा, जब एक किस्म का रियैलिटी चेक (जांच) जिदंगी में आया।

बलराज साहनी 
इस तिकडी़ के शबाब के दिनों में ही बलराज साहनी ने दो बीघा ज़मीन के  ज़रिए मार्क्सवादी विचारों को सिनेमाई स्वर दिए। दो बीघा ज़मीन उस ज़माने की पहली फिल्म थी,  जिसमें इटालियन नव-यथार्थवाद की झलक तो थी हीइसका कारोबार भी उम्दा रहा था।

फिल्म में बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर  दिया था। बेहद हैंडसमरहे साहनी  हिंदी सिनेमा के पहले ‘असली’ किसान-मज़दूर के रूप में पहचाने गए। दरअसल, अभिनय के मामले में अपने समकालीनों से बीस ही रहे साहनी, ओम पुरी, नसीर और इरफान के पूर्वज ठहरते हैं।
स्टाइल आइकॉन रहे दिलीप कुमार 

गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे लेकिन उनका दायरा बेहद सार्वजनिक होता था। गुरुदत्त ने परदे पर एक अलग  तरीके के नायक की रचना की। काग़ज़ के फूल के नायक ने दुनिया के बेगानेपन पर अपनी तल्ख़ टिप्पणी छोड़ी।

इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह और आदर्शवाद साथ दिखा। भारत माता के रूप में उकेरी गई नरगिस ने अपने ही  डकैत बेटे को गोली मारकर आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी। लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरू हो चुका थाजिसकी सहानुभूति  डकैत बेटे सुनील दत्त से थी। उधर अभिनय-शैली के मामले शुरू में एल्विस प्रेस्ले से प्रभावित शम्मी कपूर ने बाद में खुद की ' जंगली '  शैली विकसित की । इसका गहरा असर जितेंद्र,  मिथुन चक्रवर्ती वगैरह से होता हुआ गोविंदा तक आता है। यह संकोचहीन नाच-गाने का पॉपुलर कल्चर है।

सबसे जुदा राजेश खन्ना 
1969 में को शक्ति सामंत की ब्लॉकबस्टर आराधना ने रोमांस के एक नए नायक को जन्म दिया, जो पूछ रहा थामेरे सपनों की रानी कब आएगी तू....” इस के साथ ही हिंदी  सिनेमा में सुपरस्टारडम की शुरुआत हुई। राजेश खन्ना, दिलीप कुमार की परंपरा में थे और रोमांटिक किरदारों में नजर आते रहे। किशोर कुमार की आवाज़ गीतों के लिए परदे पर राजेश खन्ना की आवाज़ बन गई और इसने राजेश खन्ना को एक ' मैटिनी आइडल ' बना दिया।  परदे पर पेड़ों के  चारों तरफ नाच-गाने लोगों को दुनियावी मुश्किलों से कुछ देर के लिए तो दूर कर देते थे लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं  जैसी प्रेमकहानियों को देखकर कसमसा रहा था।

नए दौर का नायक अमिताभ 
ज़ाहिर हैसिनेमा का एक बेहद प्रचलित मुहावरा ' विलिंग  सस्पेंन ऑफ़ डिसबिलीफ '  सच होता दिख रहा था। लेकिन तभी परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद फिल्म जंज़ीर में एक बाग़ी तेवर की धमक दिखीजिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना। गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी। और उस वक्त जब देश जमाखोरी,  कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था,  बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया। विजय नाम का यह नौजवान इंसाफ के लिए लड़ रहा था  और उसे न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता था।

कककक...किरन यानी शाहरुख  
लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया। जंजीर में उसूलों  के लिए सब-इंसपेक्टरी छोड़ देने वाला नौजवान देव तक अधेड़ हो जाता है। देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं  और वह समझौतावादी हो जाता है।


90 के दशक की शुरुआत में अमिताभ बच्चन का गुस्सैल नौजवान अप्रासंगिक होता दिखा। 90 के  दशक में भारत बदलानई नीतियां आ गईं और तरक्की की ओर जाने के रास्ते बदल गएतो बाग़ी तेवरों के लिए दर्शकों के लिए जो अपील थीवो ख़त्म होने लगी।


अर्थपूर्ण एक्टर आमिर खान 
रेग्युलराइज़ेशन होने लगा तो नए हिंदुस्तान को दिखाने के लिए सिनेमा में नए चेहरों की ज़रुरत पड़ी। इस मौके को वैश्विक भारतीय बने राज मल्होत्रा यानी शाहरुख ख़ान ने थाम लिया। इनका किरदार नौकरी के लिए कतार में नहीं लगता उसे भूख की चिंता नहीं है, वह एनआरआई  है  और अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के गांव तक आ जाता है।

आमिर में शाहरुख़ जैसी अपील तो नही है लेकिन वह अदाकारी में शाहरुख़ से कई क़दम आगे हैं। शाहरुख़ तड़क-भड़क में आगे हैं लेकिन अपनी फ़िल्मों में मैथड एक्टिंग के ज़रिए  आमिर,  शाहरुख़ के जादू पर काबू पा लेते हैं। एक तरह से आमिर मिडिल सिनेमा में मील के पत्थर है तो शाहरुख सुपर सितारे की परंपरा के वाहक।