Friday, October 29, 2010

अब कम हो गयी गालियों की गंभीरता !!!!

कॉमेडी शो ने बदली गालियों की तासीर !!!
तेरी मां का साकीनाका...इन दिनों टीवी पर आने वाले कॉमेडी शो में ये गाली बड़ी हिट है. कुत्ता ...कमीना...साला...इन गालियों में अब वो बात नहीं रह गई है. न बोलने वाले को मजा आता है और ना ही सुनने वाले को इसलिए अब नई-नई गालियां बन रही हैं. या फिर ये कहा जा सकता है कि बोलचाल वाली गंभीर गालियों में बदलाव किया जा रहा है. गालियों में ह्यूमर ठूंसा जा रहा है... इससे गालियों की गंभीरता तो कम हो रही है. (ये चिंता का विषय हो सकता है) लेकिन इन गालियों को बोल-सुनकर बड़ा मज़ा आता है. (ऐसा टुच्चे लोगों का मानना है.) ये गालियां जुबान पर भी उतनी ही चढ़ती हैं और इसे खुलेआम बोल भी सकते हैं.

अब क्या किया जाए. लोगों को मजा भी इसी में आता है. आखिर कॉमेडी शो में ऐसे ही तो शामिल नहीं किया गया. कॉमेडी वाले भी अपने शो के लिए खूब मेहनत करते हैं. किस बात पर हंसी आएगी. और कहां पंच मारना है,  इसके लिए खूब माथापच्ची की जाती है, तब जाकर ऐसी गालियाँ निकलती हैं जिसका सब मिल बैठ कर मजा लेते हैं. अब लोगों को साफ-सुथरे जोक्स पर हंसी ही कहां आती है. तो क्या किया जाए...इसलिए उनकी भी मजबूरी है... अब तो बिना नॉनवेज के बात ही नहीं बनती. लोगों का टेस्ट बदल गया है फिर चाहे बात टेलीविजन की हो या सिनेमा की.


 चतुर के ' बलात्कार ' ने तो ' चमत्कार ' कर दिया 
अब अगर आपको कहा जाए कि ब्लॉकबस्टर फिल्म थ्री इडियट्स के सबसे यादागार सीन के बारे में बताएं तो शर्तिया आप चतुर के चमत्कार ( टुच्चे लोग चमत्कार की जगह बलात्कार कह सकते हैं)  वाला सीन ही कहेंगे. जरा सोचिए... वो सीन कहां से वेज था... उसमें तो नॉनवेज की भरमार थी... चतुर जी चमत्कार के बदले बलात्कार करते रहे और हम दिल खोलकर हंसते रहे. हंसते हंसते पेट में बल पड़ गए....अंकल आंटी साथ में हंस रहे थे....और उनके बच्चे भी. फिर चतुर जी ने मंत्री जी के  धन के बदले प्रिसिंपल के हाथों में कुछ और ही दे दिया...(ये बात टुच्चे लोगों को भी बोलने में बुरा लगेगी...) लेकिन बात मजेदार लगी...लोग दिल खोलकर हंसे.... पेट दुखने लगे...चतुर पूरे भाषण का बलात्कार करके चमत्कार कर गए.

दबंग भी बड़ी हिट रही...चुलबुल पाण्डेय को लोगों ने खूब पसंद किया. अब जरा फिल्म के फेमस डायलॉग के बारे में आपसे पूछा जाए तो आप क्या कहेंगे ? एक डायलॉग बड़ा हिट रहा.... तेरे बदन में इतने छेद करूंगा कि भूल जाएगा....कि सांस कहां से  लूं और पादूं कहां से....( बिना ये शब्द लिखे मजा नहीं आ रहा है...टुच्चेपन के लिए माफी चाहूंगा !!!) वाह...वाह...क्या डायलॉग है....फिर मुन्नी भी तो झंडूबाम हुई थी... अपने डॉर्लिंग के लिए बेचारी ने कैसे-कैसे सितम सहे. बदनाम तो हुई ही सिनेमाहॉल और झंडूबाम भी हो गईं.(टुच्चे लोगों के लिए ये शब्द पसंदीदा हो सकता है...ऐसी मेरी राय है...) फिल्म हिट हुई तो बड़ा बवाल हुआ. झंडुबाम वालों ने मुकदमा भी किया. मामला कॉपीराइट का था. सिर दर्द बाम वाली कंपनी के लिए मल्लिका झंडुबाम बनने को तैयार हुई... तब जाकर मामला सुलझा.  वैसे मुकदमा उस क्रिएटिव दिमाग वाले को भी करना था...जिसने बोलचाल की भाषा में इस महान शब्द को शामिल किया. उसके झंडुपने पर चुलबुल पाण्डेय मजे करके चला गया.

एक बाम ने कई किये काम...झंडू बाम...
और तो और रियलिस्टिक सिनेमा की बात ही अलग है....ऐसी फिल्मों में तो सीधे-सीधे गंभीर गालियों को ही शामिल कर लिया जाता है. रियल दिखाने के लिए इतना तो करना ही पड़ता है. इसके बिना मजा भी नहीं आता. और इसके लिए सेंसर बोर्ड यू/ए या ए सर्टिफिकेट भी दे तो क्या फर्क पड़ता है...लोग सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट देखकर तो फिल्में देखने जाते नहीं. इश्किया में नसीरुद्दीन शाह गांव में नदी  किनारे के नजारे का जो वर्णन करते हैं....तो मजा आ  जाता है.

हाल ये है कि कमीना तो कोई गाली ही नहीं रही...विशाल भारद्वाज ने इस शब्द की इतनी ऐसी की तैसी की है कि शब्द के मायने ही बदल गए. इस शब्द का ऐसा ट्रांसफॉर्मेंशन किया कि शब्द में समाहित गाली की पूरी गंभीरता ही खत्म हो गई. फिल्म रिलीज होने के वक्त हाल ये था कि अगर आप किसी को कमीना कह देते तो वो  खुद को शाहिद कपूर समझने लगता, साथ में डायलॉग भी मार देता... दुनिया बड़ी कुत्ती चीज है और मैं बड़ा कमीना...हा...हा...हा...

गालियों की घटती गंभीरता चिंता का विषय है और सबसे बड़ी बात ये है कि अपने फायदे के लिए सबसे ज्यादा क्रिएटिव लोगों ने ही उसकी ऐसी की तैसी की है...अब गालियां सुनकर भी हंसी आने लगे...तो आदमी अपनी भड़ास कैसे निकालेगा...गंभीर गालियों के साथ ये खिलवाड़ ठीक नहीं है. 

( लेखक विवेक आनंद आईआईएमसी, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र हैं.)  

Wednesday, October 27, 2010

अमिताभ का जादू, अमिताभ का नशा...

नयी पीढ़ी पर भी कायम है अमिताभ का जलवा 

मैं अभी भी अच्छा खेल रही हूं...आप लॉक कर दीजिए...अनामिका सही जवाब है…अच्छा चलिए…मैं आपकी बात मान लेता हूं…सही कह रही हैं आप… बिल्कुल सही जवाब…कौन बनेगा करोड़पति में हॉट सीट पर बैठी इलाहाबाद की एक महिला और अमिताभ बच्चन के साथ ऐसी ही बेतकल्लुफी में बात हो रही है. सदी के महानायक एक महिला के सामने उसके शहर के…उसके कस्बे के और कभी-कभी तो उसके घर के सदस्य की तरह बन जाते हैं और फिर दोनों के बीच जो बातचीत होती है…वो गेम शो से ज्यादा मजेदार होती है…ऐसा ही है बिग बी का करिश्मा जो 68 साल की उम्र में भी बरकरार हैं. 


अमिताभ बच्चन के सामने हॉट सीट पर बीएसएनएल की एक महिला अधिकारी बैठी हैं. अमिताभ बच्चन उन्हें इशारा करते हुए कहते हैं कि उनके घर का नंबर भी कभी कभार खराब हो जाता है. सो आगे कभी ऐसी नौबत आए तो क्या वो उनसे संपर्क कर सकते हैं… हां कहते हुए वो महिला मुस्कुरा देती है….और अचानक ही करिश्माई शख्सियत वाले महानायक का जादू उन्हें अंदर तक भिगो जाता है….वो करोड़पति तो नहीं बन पाती लेकिन चेहरे पर कोई मलाल नहीं दिखता…जिंदगी का ये लम्हा भी उन्हें करोड़पति बनने जैसा ही अहसास दे जाता है. 

अभी और मेहनत करनी होगी सलमान ' बॉस ' 
ऐसी ही है अमिताभ की जादुई  शख्सियत.इस अंदाज़ में वो अपने करोड़ों फैन्स के दिलों पर राज करते है. कौन बनेगा करोड़पति सीजन 4 के साथ वो एक बार फिर से छोटे पर्दे पर दिख रहे हैं और उनकी पॉपुलैरिटी कम नहीं हुई है….टेलीविजन के दर्शकों ने बता दिया है कि बिग बी से बेहतर कोई नहीं.

बॉलीवुड के कई बड़े स्टार इनदिनों टेलीविजन पर दिख रहे हैं. अमिताभ बच्चन के साथ सलमान खान और अक्षय कुमार जैसे बड़े सितारे भी अपने अपने शो के साथ छोटे पर्दे के दर्शकों का दिल बहलाने में लगे हैं लेकिन अमिताभ उनमें सबसे आगे हैं. जिस टीआरपी को लेकर टेलीविजन में सिरफुटौव्वल मची रही है, उसमें भी अमिताभ बच्चन के आगे कोई नहीं है और रेटिंग के मामले में केबीसी ने दूसरे सारे टीवी शो को पछाड़ दिया है. केबीसी सीजन 4 के ओपनिंग एपिसोड की टीआरपी सबसे ज्यादा 6.2 रही जबकि सलमान खान का बिग बॉस 4.8 पोइंट्स से ओपन हुआ. खिलाड़ी कुमार के मास्टरशेफ की टीआरपी इन तीनों में सबसे कम 2.6 रही.

इन तीनों शो के शुरु होने से पहले ये उम्मीद की जा रही थी कि सलमान खान के बिग बॉस से जुड़े होने की वजह से उसकी टीआरपी सबसे ज्यादा रहेगी. अक्षय कुमार के भी मुकाबले में बने रहने की उम्मीद की जा रही थी…लेकिन तमाम दावों से अलग कौन बनेगा करोड़पति सबसे ज्यादा दर्शक खींचने में कामयाब रहा. अमिताभ बच्चन अपनी इस पारी में भी सब पर भारी रहे हैं. 

दर्शकों को पसंद नहीं आया शेफ का जायका 
तीनों शो के पहले हफ्ते की टीआरपी में भी कौन बनेगा करोड़पति सबसे ऊपर रहा है. केबीसी सीजन 4 की ओपनिंग टीआरपी 5.3 रही जबकि बिग बॉस सीजन 4 के पहले हफ्ते की टीआरपी 3.2 रही और खिलाड़ी कुमार के मास्टरशेफ को पहले हफ्ते सिर्फ 2.6  से ही संतोष करना पड़ा. 

बड़े पर्दे का शहंशाह छोटे पर्दे पर भी हिट रहा है तो इसके पीछे उनकी शख्सियत का ही जादू है. शायद इसलिए ही देश के किसी छोटे से हिस्से से आया एक सीधा सादा इंसान भी उन्हें अपनेआप से उतना ही जुड़ा हुआ  महसूस करता है. लोग उनके गले लगते हैं फिर करोड़पति बनने का ख्याल नहीं रहता…बस इस अजीम शख्सियत के जादू में लोग बंधकर रह जाते है….इनका जादू अभी कम नहीं होने वाला है. 
( लेखक विवेक आनंद सहारा समय चैनल में producer हैं और आईआईएमसी, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र हैं.) 

Monday, October 25, 2010

अब आने लगे ओलंपिक के सपने!!!

राजीव कुमार 
(लेखक आईआईएमसी, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र और टीवी टुडे ग्रुप (हेडलाईंस टुडे) में कार्यरत हैं ) 
कॉमनवेल्थ गेम्स तो खत्म हो गए लेकिन इसके साथ ही बहुत कुछ भी बदल गया लगता है। गेम्स से कुछ दिन पहले तक लोगों में  जो आक्रोश था वो खेल शुरू होते ही ठंडा पड़ गया। मेडलों की चकाचौध में लोग भूलने लगे कि कुछ दिन पहले तक कलमाड़ी खलनायक  जैसा लगता था। सोने और चांदी की खनक ने कलमाड़ी की भी बॉडी लैग्वेज बदल कर रख दी थी। हमारे पालिटिकल क्लास ने इसे बेहतरीन मौके के रूप में भुनाया। सरकार ने गेम्स खतम  होने के तुरंत बाद जांच की घोषणा कर दी। इससे फायदा ये होना था कि अब लोग सरकार को परम ईमानदार मान लेते और कुछेक लोगों को जेल में बंद कर दिया जाता। हाल तक  जनता की  याददाश्त कमजोर होती थी,  अब थोड़ी बढ़ी है, लेकिन आम जनता जो गांवो-कस्बों  में रहती  है वो अब दूसरे मसलों पर बात करने लगी है। मैं खुद एक  महीना पहले तक जितना कलमाड़ी के बहाने भ्रष्टाचार को गरियाता था वो अब खत्म हो गया है। दोस्तों से बातचीत में अब कलमाड़ी नहीं आता बल्कि मैं अक्सर भारतीय खिलाड़ियों पर गर्व करने  लगता हूं। ज्यादा वक्त ऐसे ही बीतने लगा है। मुझे वो हसीन सपने आने लगे हैं कि हम  ओलंपिक में चीन को पछाड़ देंगे। हम एक दिन  ओलंपिक की तैयारी करेंगे। अपने मुल्क में  ओलंपिक करवाएंगे।

ओलंपिक  : बहुत भोले होते हैं भारतीय लोग 
यहीं से कलमाड़ी की संभावनाएं फिर से शुरू होती हैं। कलमाड़ी कह चुके हैं कि  भारत को ओलंपिक कराने चाहिए। मेरी सोच,  जो मेरे जैसे करोड़ो युवाओं की सोच है उसे  कलमाड़ी फिर से कैश कराने के लिए तैयार बैठा है। बहुत जल्दी,  शायद साल भर के भीतर ही  जांच एजेंसियाँ  कलमाड़ी को क्लीन चिट भी दे देंगी। मुझे यकीन हो चला है कि वो (कलमाड़ी) इतना  कच्चा खिलाड़ी नहीं है कि उसने पेपर वर्क में कोई कसर छोड़ी होगी।
कलमाड़ी : कहीं थी निगाहें कहीं था निशाना 
 कॉमनवेल्थ खेलों में हमारा प्रदर्शन  वाकई अद्भुत था। हमारी पुलिस,  हमारी व्यवस्था और हमारा व्यवहार बढ़िया ही था। हमारे खिलाड़ियों ने बहुत अच्छा किया  लेकिन क्या वाकई इसमें कलमाड़ी का कोई योगदान था?  खिलाड़ियों की ट्रेनिंग या शहर  की सुरक्षा उसके जिम्मे तो कतई नहीं थी। उस पर जो आरोप लगे वो अभी भी  मौंजूं है।  कलमाड़ी को इसका जवाब  देना चाहिए। कॉमनवेल्थ खेलों की ओपनिंग और क्लोजिंग सेरीमॉनी ने लोगों का मिजाज ही बदल दिया। कलमाड़ी पर लगे सारे आरोप धुंए की तरह उड़ गए।

लेकिन कलमाड़ी अभी भी चालें चल रहे हैं। शायद अगली बार पूरे देश  के बजट का आधा  वो ओलंपिक पर झोंकवा दे। खेलों  के बाद मेरे पापा भी ओलंपिक की बात करने लगे है  और  अक्सर मैं भी। लेकिन मैं चाहता हूं कि सिस्टम ठीक हो जाए। वो कलमाड़ी जैसे लोगों के हाथों में न हो।

Saturday, October 23, 2010

Historic election in the ‘caste lab’ of India

SUSHANT JHA
( Writer is Delhi based journalist and IIMC alumnus)
When Bihar went to poll last time, its tele-density was less than 10 percent and cable news penetration was limited to urban areas. Internet was distant thing then, as it is still languishing in the files of the Govt. But it is the first time it is going to poll in the shadow of mobile revolution and some sort of private TV news. Bihar’s literacy rate was less than 55% and hardly one-third of its women went to school ever. But the situation has changed now with the improvement in all these sectors and this poll is important in that context. It is not the same poll which used to happen since independence. So, judging the poll in stereotype manner will be confusing and unbalanced.
Caste is still a big factor in Bihar but caste is defining itself in newer ways and trying to adjust with the changing realities of time. Caste aspiration is now linked to better governance and a kind of Bihari sub-nationality is emerging, yet not seen with a force.
State has seen the huge migration in past decades, perhaps unparallel in the history. Neither government nor, poll Pundits have any data or analysis not it. In last five years, more than 50 lakhs children are back to school. There is a feel good factor sweeping across the state. On that count, if we consider, it will be a fovour for Nitish Kumar, but Bihar is not as simple as it looks.
Some upper castes are dissatisfied with the ruling party as they feel that they did not get ample representation in the ticket distribution or they did not eat up the cream. Some are voting on single line agenda of identity, some on secularism. But overall, election is being contested on positive note and development seems to replace caste agenda, at least on public forum.
Perhaps, this is the first election which will be so connected with new technology reaching to common people. Bihar has not experienced much the taste of coalition Govt or fractured mandate as its history shows. But this time Congress is trying to make this game triangular. Will it really be able to do that? Or will people vote decisively for a single alliance? Will have to see.

Tuesday, October 19, 2010

First phase of Bihar will tell a lot....

SUSHANT JHA
( Writer is Delhi based journalist and IIMC alumnus) 
Some gives him absolute majority, some razor thin but it is almost proved that the Congress has established itself as a force in Bihar whether we like it or not. The ever changing political theatre of Bihar has confused the poll Pundits this time and no body is in a condition to profess which way it will turn.
Nitish has clearly the perception advantage, not the favourable caste equation and party organization this time. Will he come again or will he not?

Till a few month back, it was Nitish vs Lalu. But now it has been converted into Nitish vs equation. This is the point where Nitish Kumar seems shaking as the opposition is heavily depending upon the caste equation as against Nitish's  development. Nitish is also playing the caste card but at least he is not pitching with it.  Now the hints coming from Bihar says that Nitish might slip by a slim margin in getting the magic number of 123. Experts say that even he manages to get 100+ seats in the 243 strong assembly, he will be in a position to make Govt. But will he or not? This is the biggest question.
Nitish Kumar will be happy with pre-poll results
With dominant castes shying away from JD-U & BJP combine, it is being a messed story in Bihar this time. Last time, Nitish got the desperate vote of people who were fed up with the 15- year rule of Lalu. But this time, this is not the factor. Nitish is not getting the full fledged support of Rajputs, Bhumihars, Brahmins and Koiries. Yes, he has cosolidated his support among MBCs.
So, in caste equations he has not great edge. But on the perception count, he is far ahead. Bihar has witnessed a great improvement in law and order and roads. He has tried to improve the health care and education. Bihar is trying to attract new investments, thought no big ticket investment has materialized till yet.
This is too complex issue whether development will defeat the caste sentiment or not. Bihari society, not less than any other society, is too much engrossed into caste, and at micro level it plays a great role.
Cong can change equations
In the Muslim and Yadav dominated areas of North-East Bihar which is going to poll in the first phase, Congress has put its great resource and which way it will damage the equations is to be seen yet. The desperate statements of both Lalu and Nitish proves this. Here Nitish is trying to make it a 'either or fight' while Laloo is tryiing to make it a triangular fight as it suits him.
Laloo knows better that on perception count he can not beat Nitish. So, the entry of Congress was a welcome note for Lalu but the intensity with which Congress is contesting the poll is making Lalu sleepless, as it is now eating its Muslim and Yadav votes also.
Lalu Yadav : Let's hope for the best
The first phase will tell a lot. If Congress is able to garner support from minorities then, Lalu can wish for good performance in other parts as the Upper castes will have split in votes and they will also vote for Congress. If it does not happen and Lalu is strong there, then Upper caste will again consolidate for Nitish. So, it is going to be an interesting event.
Congress knows it, Nitish knows it and who knows it better than Lalu? That's why Congress has put all its stalwarts in the poll field including PM, Rahul and Sonia Gandhi. Let's watch!!!




                                        

Monday, October 18, 2010

Macro of Micro Finance

DHEERAJ KUMAR
( Writer is Senior Associate Producer in CNBC-AWAAZ and IIMC alumnus) 
Last week has been very busy for at least those who track the micro finance sector in India. I do not claim to track the micro finance so deeply, but due to the facts that I follow the sector a bit more than others and personally I like the concept of micro finance, I decided to pen down my thoughts on the recent happenings related to the issue. Lets start from the very basic things. Though the term MicroFinance gives impression that it is a petty section of the financial world, I must tell you that this is not so. Note some facts here: about 18% of Indian population (which translates to more than 20 crores people) carries a micro finance account (these include small post office savings as well), only in our country there are more than 3,000 micro finance companies or NGOs who works as self help groups (SHGs) and involved in micro finance works and the total loan outstanding of Indian MFIs lies between Rs. 160-175 billion. These are the facts which are enough to tell you how MACRO the business of Micro Finance in India is.
Its all about business
Now, I come to the issue due to which micro finance sector is in news these days. According to the latest report, about 25 borrowers of MFIs have committed suicides in recent weeks in Andhra Pradesh due to the harassment of the lenders (and out of these 25, 17 borrowers were the clients of SKS Micro finance, the biggest MFI of the country). When there was too much hue and cry over it, the Andhra Pradesh Government passed an ordinance to check irregularities by MFIs, which provides 3 years sentence and Rs. 1 lakh penalty for harassing borrowers. Also, the banking sector regulator RBI appointed sub-committee of its board to look into the micro finance loans as there are allegations on these MFIs that they charge exorbitant rate of interest from their borrowers. So far so good. But here the questions which pop up is that whether the suicides were committed only due to the harassment of borrowers and if the MFIs have been charging so much interest rate, why were the respective authorities silent till yet? 
We make you feel happy !!!!
No doubt, penury and financial crisis may be the reasons behind the suicides in Andhra Pradesh, but is it due to the pressure of MFIs only? There are high chances that some of the borrowers could be borrowing from other sources such as moneylenders as well. So only to nail MFIs over the suicide issue is not correct according to me. So far the charging of high interest rate is concerned, all over the world the interest rate on small loans for small borrowers is almost double that of the base rate (or prime lending rate) of the banks. There is high risk involved in such loan as there is no collateral or normally the borrowers don't possess any valuable asset which can be mortgaged. This is also the reason why big or mainstream banks do not borrow money to the poor people and hence the need for micro finance company. Of course, there should be some check on the MFIs to see whether they are exploiting the poor. If current rules are talked about, RBI has no direct control over interest rate being charged by MFIs as they are regulated by same set of rules as non-banking financial companies ( NBFC). Though the MFIs get concessional funds from banks under priority sector lending so it is assumed that the benefits need to be passed on to borrowers.
Vikram Akula, Chief Executive of SKS Microfinance claimed that of the 26% interest rate, 8.5% is the cost of borrowing, 9% cost of delivery, 1% put aside for hardship cases (as per RBI rules), corporate tax is 3% and the company margin is 4-5%. He is ready to lower down the rate of interest by 2%, at the same time he cites the SIDBI study, according to which the annual income increase for the borrowers after gaining back the cost of capital is almost 45%. If SIDBI study is to be believed it means that the system of micro finance has been doing the work of poverty alleviation very well. Here I would present some more facts about MFIs in India. Out of the 10 biggest MFIs, 5 are based in Andhra Pradesh, these include SKS, Spandan, Share Microfin and Ashmita Microfin. Only the SKS has more than 7 million borrowers to whom it has disbursed more than Rs. 14,000 crore. This is not a small figure and it is enough to make one understand the importance of micro finance in our country.
Muhammad Yunus
The pioneer of micro finance in the world Muhammad Yunus has got Nobel Peace Prize for his exemplary work in poverty alleviation in Bangladesh. His Grameen Bank is a role model for the MFIs all over the world. Though Muhammad Yunus is also critical of the MFIs charging a very high interest rates and is of the opinion that MFIs should not charge more than 15%. He also criticized the MFIs going public for raising funds. I am a great admirer of him but here I differ with him as I think if the money raised is used for the welfare of a larger section, there is no problem. Muhammad Yunus argued that the benefits of the micro finance should be passed on only to the borrowers and poor and should not be used for paying dividends to the investors. But I feel that if any business has to grow big, it should be based on sustainable model and so there is a need to add as many people with the business as possible and for it, if you pay dividend, there is no harm. Remember that business don't run on ethics only and for a larger cause of poverty alleviation, innovations like micro finance need to be developed. The chief mentor of Infosys N R Narayanmurthy, who is called corporate saint in industry circle, made a killing through his PE fund Catamaran, when the SKS was listed on stock exchanges as he got 1.3% share of the company in lieu of his investment of Rs. 28.12 Crore in January this year. The market value of SKS is about $2 bn and the investment of  Murthy is worth Rs. 117 crore today. So, if a saint can make money by promoting social business, why should not the larger public be part of it? Am I sounding pro SKS here? No, I am only saying that the attempts should be made for promoting such social business more and more in our country and we should refrain from taking any step which could hamper the growth of such social innovations (especially when we talk about financial inclusion and want to achieve the goal as soon as possible).


              

Friday, October 15, 2010

नया झारखंड गढ़ने की शर्तें

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज के वरिष्ठ संवाददाता हैं )   
झारखंड में राजनीति का एक नया ग्रामर विकसित हुआ है। झारखंड बने  10 साल होने को हैं।  इन दस सालों में झारखंड के लोगों को क्या मिलावहां की विधायिका और राजनीति की क्या सौगात है वहां के लोगों को जवाब हैपूरी व्यवस्था को अविश्वसनीय बना देना।

झारखंड के शासक वर्ग ने दिखा दिया कि वे पूरे सूबे को भी बेच सकते हैं। हालांकि राजनीति के जिस ग्रामर की बात हो रही है,  वह देश भर में कभी-कभार दिखाई देती थी लेकिन झारखंड में यह ग्रामर स्थापित हो गयी है। भ्रष्टाचार के प्रैक्टिशनर। आचार-व्यवहार में जो प्रामाणिक तौर पर सबसे भ्रष्ट हैं, वे ही भ्रष्टाचार की बुराई कर रहे हैं। यानी चोर और साधु की भूमिका एक हो गई है। नायकखलनायक लग नहीं रहे। पर यह झारखंड का ग्रामर है। कहावत है - सेन्ह पर बिरहा। यानी सेंध की जगह से ऊंचे आवाज में गीत गाया जाए। 

सवाल यही है क्या झारखंड विकास की नई पगडंडी पकड़ सकता है? जवाब है  हां, लेकिन तब, जब हम मान लें कि  मौजूदा राजनीतिक पार्टियों में कोई झारखंड का पुनर्निर्माण नहीं कर सकती। लोकपहल,  छात्रशक्ति का उदय,  झारखंड के सार्वजनिक जीवन की संपूर्ण सफाई के लिए नागरिक समाज का बनना-विकसित होना और कुराज के खिलाफ आक्रोश, यही रास्ते बचे हैं झारखंड गढ़ने के लिए। वर्षों के झारखंड की देन है ये।

स्थापित और प्रामाणिक तथ्य है कि ईमानदार नौकरशाही बड़ा काम कर सकती है। आमतौर पर नौकरशाही तदर्थवाद और यथास्थितिवाद के लिए आदर्श माहौल पैदा करती है., लेकिन कुछ कर गुजरने वाले तो उस झुंड में भी होंगे ही, बल्कि हैं भी। उनके पक्ष में माहौल बनाना बड़ी चुनौती है।


नया गढ़ने के लिए इँस्टिट्यूशंस की बुनियाद ज़रूरी है। किसी भी समाज की चाल. चरित्र और चेहरा इँस्टिट्यूशंस ही बदल सकते हैं। इँस्टिट्यूशंस शिक्षा मेंप्रशासन में राजनीति में यानी उन सभी क्षेत्रों में, जहां मानव संसाधन को गढ़ा और बनाया जाता है। जातिधर्म, समुदाय और क्षेत्र से परे उदार राजनीति को  प्रश्रय देना ज़रूरी है।


आज हर दल में,  शासन में, मीडिया में अच्छे लोग हैं  पर वे पीछे हैं। ऐसे लोग की एकजुटता और सक्रियता क़ानून का राज स्थापित करने में मददगार होगी। यही हीरावल दस्ता समाज और राजनीति को अनुकरणीय और नैतिक बनाने की बुनियाद रख सकता है।