Showing posts with label ADVERTISEMENT. Show all posts
Showing posts with label ADVERTISEMENT. Show all posts

Tuesday, November 2, 2010

हैव अ हैप्पी पीरियड !!!

बच्चे नहीं कभी-कभी बड़े भी होते परेशान 
अब ये तो टुच्चेपन की हद है. ये भी कोई सब्जेक्ट है लिखने का. पता नहीं लोग क्या सोचेंगे...सायकि होने का आरोप भी लग सकता है लेकिन हम जो रोज देखते हैं, उसके बारे में मन में विचार तो जरूर उठते हैं कि आखिर ये है क्या. अब ये अलग बात है कि हम पर ये पाबंदी है कि हम देखकर चुप रहें...उस पर बात ना करें...जरा सी चर्चा हमारी संस्कृति की धज्जियां उड़ा सकती है. हमें पुरखों से जो संस्कार मिले हैं उसकी एक पल में ऐसी की तैसी हो सकती है इसलिए चुप रहना ही बेहतर है...जुबान खोलते ही आपकी इज्जत लुट जाएगी.

मेरे एक दोस्त ने एक बड़ा मजेदार वाक्या सुनाया. एक बार वो अपने दादाजी के साथ टेलीविजन देख रहा था. कोई फिल्म या सीरियल आ रहा था और बीच में ब्रेक आया,  वही ' हैव अ हैप्पी पीरियड ' वाला ऐ़ड आने लगा. दादाजी थोड़े बहुत पढ़े लिखे तो थे लेकिन आप उन्हें नए जमाने का नहीं कह सकते. ऐ़ड खत्म होते ही वो अपने पोते पर भड़क पड़े. बोले-“ कितने नालायक हो तुम...एक ढंग का काम नहीं कर सकते...देखा तुमने कितनी अच्छी चीज है ये... कितने अच्छे से पानी सोखती है... घरेलू कामों में कितने काम की हो सकती है ये लेकिन तुम्हें क्या...बाजार से बाकी फालतू की चीजें लाओगे... लेकिन ऐसी काम की चीजों पर तुम्हारा ध्यान कभी नहीं जाता...”   मेरा दोस्त हक्का-बक्का उन्हें सुनता रह गया. बेचारा क्या बोलता, बस बगले झांकने लगा. अब तक ऐसा लगता था कि  सिर्फ छोटे बच्चों के साथ ये दिक्कत थी कि उनके सवालों के क्या जवाब दिए जाएं लेकिन जब 80 साल के बुजुर्ग ऐसे सवाल पूछें तो उन्हें क्या जवाब दिया जाए. 

ये हाल है और हमें अपने संस्कारों की पड़ी है. अब या तो हम अपने संस्कारों के साथ थोड़ा समझौता कर लें या फिर टेलीविजन बंद रखें. टेलीविजन खुलेगा तो ' हैव अ हैप्पी पीरियड ' भी आएगा, मुसली पावर एक्स्ट्रा भी दिखेगा और नए नए फ्लेवर्स के साथ मैनफोर्स कंडोम भी. 

ज़रूरी सवाल छोड़ जाता है टीवी 
बात  जितनी हल्की लगती है दरअसल उतनी हल्की है नहीं. अगर 80 साल के दादाजी आज टेलीविजन देखकर कंफ्यूज हो रहे हैं तो आठ साल का बच्चा भी  हो रहा है और ये हर जगह की बात है. मुश्किल ये है कि उपाय के तौर पर सिर्फ संस्कारों को बचाने की दुहाई दी जाती है. टेलीविजन के कंटेट पर निगाह रखने की बात की जाती है. हैव अ हैप्पी पीरियड के बारे में बोलना अभी तक ठीक नहीं समझा जाता ?


मेरा एक दोस्त है. एक अच्छी सी कंपनी में काम कर रहा है. आजकल उसकी खूब विदेश यात्राएं हो रही हैं.  उस वक्त हम इंटरमीडिएट में थे और टुच्चेपन में मेरा कोई जवाब नहीं था. जब भी मैं उससे कोई टुच्चेपन वाली बात करता तो वो नाराज हो जाता. उसे “ गंदी बातें ”  बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती थी. मैं उससे हमेशा कहता कि अबे तू अजीब आदमी है. इतना बड़ा हो गया है और कोई गंदा काम ” नहीं करता. एक दिन जनाब पिक्चर हॉल में मिल गए. चोरी-छिपे मॉर्निंग शो देखने आए थे… मुझसे नजरें बचाने लगे

बाद में पता चला कि वो नीली फिल्में भी खूब देखते हैं. उनके साथ दिक्कत ये थी कि उनके अंदर संस्कार इतने कूट-कूट कर  भर दिए गए थे कि वो खुलेआम कोई “गंदा काम” नहीं करते थे. जिन दोस्तों की पहुंच उनके घर तक थी उनके साथ वो  कुछ शेयर भी नहीं करते थे लेकिन चोरी छिपे वो हर’ गंदा काम’  करने में माहिर हो चुके थे. चोरी छिपे वो अपने सारे संस्कारों की ऐसी की तैसी कर चुके थे.

ये हाल आज भी नहीं बदला है. बस इससे होने वाले साइड इफेक्ट्स बदल गए हैं. संस्कारों की आज भी हमें उतनी ही परवाह है और चोरी-छिपे इंटरनेट पर हम आज भी उसकी वैसे ही ऐसी की तैसी कर रहे हैं. बांध जितना ऊंचा होगा उस पर दवाब उतना ही ज्यादा होगा. कुछ “ गंदी जानकारियां ” बड़ी जरूरी होती हैं ताकि कोई ' हैव अ हैप्पी पीरियड ' पर कोई सवाल ना पूछे. 

विवेक आनंद 
( लेखक आईआईएमसी नयी दिल्ली के पूर्व छात्र हैं. )