धीरज वशिष्ठ |
एक दोस्त के यहां पिछले दिनों गया। रास्ते से गुजर रहा था तो सोचा मिलता चलूं। घर पहुंचा तो भाईसाहब पूरी तरह फिट-फाट होकर कहीं जाने की तैयारी में दिखे। मैंने पूछा कि लगता है ग़लत वक़्त पर आ गया, तुम कहीं निकल रहे हो क्या? उसने कहा नहीं यार, आओ बैठो। मैंने पूछा फिर कहीं से आ रहे हो? बोला, अबे, नहीं यार, कहीं से नहीं आ रहा। मैंने पूछा तो फिर ये बाबूसाहब बनकर क्यों घर पर बैठे हो? उसने कहा, इसके पीछे कहानी है। दरअसल अगर घर में कोई ऐसा बंदा आ जाता है जिसके साथ मैं वक़्त बिल्कुल गुजारना नहीं चाहता तो कह देता हूं कि अरे यार तुम ग़लत वक़्त पर आ गए, मैं तो कहीं निकल रहा हूं। दूसरी तरफ तुम्हारी तरह कोई मनपसंद शख़्स आ जाता है तो कहता हूं कि ठीक वक़्त पर आए हो मैं अभी-अभी बाहर से ही आ रहा हूं।
मुझे ये बात सुनकर खुशी कम, हैरानी ज़्यादा हुई। मैं सोचने लगा कि ये भी क्या तरीक़ा है जीने का? हम मुखौटा पहने क्यों घूमते रहते हैं ? जैसा शख़्स सामने दिखा उसके हिसाब से चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लिया।
न्यूज़ चैनल में काम करते हुए इस तरह के “मुखौटा व्यक्तित्व” को मैंने खूब देखा। बॉस के दिमाग में कोई आइडिया आया नहीं कि उनके सामने मुखौटों की भीड़ नज़र आने लगती है। वाह सर, क्या स्टोरी आइडिया है, ज़बरदस्त टीआरपी बटोर लेंगे हमलोग। बॉस थोड़ा से हटे नहीं कि फुसफुसाहट शुरू। अबे यार, इस स्टोरी पर कहीं आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का है ? इससे कचरा तो कुछ नहीं होगा यार..वगैरह..वगैरह। देख लीजिए, मुखौटा अब बदल गया ।
उखाड फेकना होगा मुखौटा |
एक खंडित व्यक्तित्व चारों तरफ नज़र आ रहा है। हमने ख़ुद को ही कई टुकड़ों में बांट रखा है। इस मुखौटे ने हमारा क़त्ल कर दिया है। इस मुखौटे ने हमें ख़ुद से अनजान बना दिया है। इस मुखौटे ने हमारे हर एक भरोसे का गला घोंट दिया है। इस मुखौटे ने शक, फ़रेब और धोखे की दीवार खड़ी कर दी है। नहीं, सारे मुखौटों को अब उतारना पड़ेगा। इस झूठे व्यक्तित्व को गिराना होगा। हम जैसे हैं, वैसे नग्न खड़े हो जाएं- कोई मुखौटा नहीं, सिर्फ असली चेहरा।
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