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Thursday, February 3, 2011

देसी सिनेमा : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं कामयाब

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
भारत में सिनेमा एक जुनून है और भारतीय सिने-उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा भी है। तकरीबन एक हजार फिल्मे हम हर साल बना डालते हैं। लेकिन इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अच्छे और कामयाब सिनेमा के तौर पर जाने नहीं जाते। 

भारतीय मापदंड के आधार पर तो हिंदी फ़िल्मों ने काफ़ी तरक्की की हैतकनीक के मामले में  हम आगे आए हैं और बाजार पहले से ज्यादा स्थिर हो गया है। लोकप्रियता और पहुंच के मामले में भी हम तकरीबन ग्लोबल हो गए हैं। भारत के अलावा हिंदी फ़िल्में मध्य-पूर्व और मध्य एशियाअफ़्रीका, अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया के कई हिस्सों में अपना एक अलग दर्शक वर्ग बना चुकी हैं। 

राज कपूर की आवारा’  से शाहरुख़ की कभी अलविदा न कहना’ तक विदेशों में हिंदी फ़िल्मों ने अच्छा कारोबार किया। लेकिन सवाल फिर भी बरकरार है कि क्या ये लोकप्रियता और कमाई  बॉलीवुड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन सिनेमा की कतार में खड़ा कर पाई है?

आज़ाद भारत के करीब 60  वर्षों के इतिहास में विदेशी भाषा की श्रेणी में कोई भी हिंदी फ़िल्म ऑस्कर नहीं जीत पाईं है- केवल तीन हिंदी फ़िल्में,  मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान अंतिम पांच में नामांकित हो पाई हैं। जिस स्लमडॉग मिलियनेयर  के आस्कर जीतने पर हम खुशी से झूम उठे,  मालूम हो कि इस फिल्म की महज पृष्ठभूमि और कलाकार ही भारतीय है। 

पथेर पांचाली : अंतरराष्ट्रीय  पहचान  मिली 
दरअसल, अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने की रेस हमने अभी तक शुरू ही नही की है। सच्चाई ये है कि विश्व सिनेमा के पटल पर भारतीय सिनेमा को पहली बार पहचान दिलाने वाली फिल्म सत्यजीत रे की पथेर पांचाली (1955) थी। रे ने यह फिल्म विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के उपन्यास के पहले हिस्से पर बनाई है। 1956 के अन्तरर्राष्ट्रीय कान फिल्म समारोह में  पथेर पांचाली को एक हृदयस्पर्शी ‘मानवीय दस्तावेज़’ कहा गया।  बाद में राय की अपू-त्रयी( अपू-ट्रिलजी) पथेर पांचाली (1955),  अपराजितो (1956)  और अपूर संसार (1959)) विश्व सिनेमा को भारतीय सिनेमा की देन मानी गई।

अडूर गोपालकृष्णन 
सत्यजीत रे के ही दौर के ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की कृतियां भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई हैं। घटक की फिल्मों में भारत विभाजन की त्रासदी कहानी की पृष्ठभूमि के रूप मौजूद रहती है। सत्यजीत रे की फिल्मों की एडिटिंग के तरीक़े में कट्स बेहद क़रीने के थे। मिसाल पथेर पाचाली  और  चारुलता हैं  लेकिन इसके उलट, घटक की फिल्मों के कट्स झटकेदार रहे। चाहे वो मेघे ढाका तारा’,’ सुबर्नरेखा हो या तिसता एकती नदीर नाम हो। जाहिर है कला और शिल्प के स्तर पर प्रयोग हमारी फिल्मों में भी देखे जाने लगे। आज भी बांग्ला के गौतम घोष, अपर्णा सेन और रितुपर्णो घोष जैसे फिल्मकार अपनी स्वतंत्र सोच और कलाशैली के साथ फिल्में बना रहे हैं।
बांग्ला फिल्मों के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भारतीय सिनेमा को इज़्ज़त मिली वह मलयालम की वजह से। 
गिरीश कर्नाड 
अडूर गोपालाकृष्णन ने 1984 में अपनी फिल्म मुखामुखम में एक ऐसा विषय उठाया, जिस पर फिल्म बनाने की बात कोई हिंदी फिल्मकार तो सोच भी नहीं सकता। मुखामुखम कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कलह, बिखराव और संकट की कहानी कहती है। नाल्लू पेनुगल हो या ओरु पेनम रंदानम, अडूर ने अपनी फिल्मों मे भारतीय जीवन के किसी न किसी पहलू को रेखांकित किया है। इसी तरह जी अरविंदन ने 1974 में उत्तरायणम् से फिल्म बनाने की जो गैर-पारंपरिक शैली शुरू की,  वह 1986 में चिदंबरम् आते-आते पूरी तरह परिपक्व हो चुकी थी। जी अरविंदन की कला-शैली मुख्यधारा के लिए अजूबा ही है। मलयालम के ही एक दूसरे फिल्मकार शाजी करुन ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। 

लोकप्रियता और बाजार के लिहाज से क्षेत्रीय सिनेमा के मुक़ाबलेमुंबईया हिन्दी सिनेमा बेशक आगे रहा पर कथानकचरित्र विकास और सिनेमटोग्रफी के नज़रिये से यह कभी भी क्षेत्रीय सिनेमा की गहराई हासिल नहीं कर पाया है।  

मलयालम की ही तरह मराठी सिनेमा भी विषय-वैविध्य के लिए मशहूर है। वी शांताराम की कुंकू (1937) और मानूस (1939) नारी मुक्ति और वेश्याओं के उद्धार की कहानी बेहतरीन सिनेमाई शैली में करती है। मौजूदा दौर में मराठी  सिनेमा में जब्बार पटेल और अमोल पालेकर जैसे फिल्मकारों के अलावा नई पौध भी उग आई है। संदीप सावंत की श्वास मराठी सिनेमा में कला के रेनेसां जैसा माना जा रहा है।

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास और विस्तार के लिहाज से  60 और 70 का दशक  स्वर्ण-काल था। इस दौर में हिंदी में जहां रोमांस का बोलबाला था, और बाद में चाकलेटी हीरो के चरित्र का विस्तार हुआ, क्षेत्रीय सिनेमा खुरदरी ज़मीन पर यथार्थ की तलाश कर रहा था। इन्ही दिनों बंगाल के बाद केरलकर्नाटक,असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में नई धारा का सिनेमा फला-फूला।   

वी. शांताराम 
कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कर्नाडब.व.कारंत और गिरीश कासरावल्ली ने अपनी फ़िल्मों से एक नई सांस्कृतिक क्रांति’ पैदा की। एक नाटककार के रूप में पहले ही मशहूर हो चुके गिरीश कर्नाड ने वंशवृक्षसे एक बेहतर निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनाई। ब व कारंत ने कर्नाड के साथ कई फिल्में की, लेकिन कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कासरावल्ली की जगह वही है जो केरल में अडूर गोपालाकृष्णन की है। हाल में गिरीश कासरावल्ली की गुलाबी टॉकीज़ ने एक बार फिर साबित किया कि आखिर क्यों क्षेत्रीय सिनेमा को दिलों और जिंदगी के करीब माना जाता है।
असम के सबसे चर्चित फिल्मकार जाह्नू बरुआ की हलोदया चौराये बाओधन खाय और रखगोरोलोये बोहु दूर जैसी फ़िल्में सामाजिक भ्रष्टाचारउत्पीड़न और राजनीतिक दुष्चक्र में फंसे कमजोर और वंचित तबके के जीवन संघर्ष की कथा कहती हैं। इसी तरह उड़िया में नीरद महापात्रा ने माया मिरगा के जरिए परिवार के टूटने की वजह गरीबी बताई। समाज की कसमसाहट का ऐसा जिक्र हिंदी में कम ही मिलता है।

लब्बोलुआब यह कि एक और जहां हिंदी सिनेमा दर्शकों को सपनीली दुनिया में ले जाता रहा, एक काल्पनिक दुनिया रचता रहा वहीं तमाम उपेक्षाओं के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा न सिर्फ जिंदा है बल्कि नई ज़मीन भी फोड़ रहा है...क्योंकि उसके पास दृष्टि भी है और मकसद भी।

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Tuesday, January 18, 2011

अब भी 'मज़लूम' बॉलीवुड की नायिकाएं

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्मों की नायिका ज़माने से ‘मज़लूम’ होने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है।

हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाते थे और सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखें तो आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहम के साथ ही गढ़ा गया है।

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएं देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम  की ‘दुनिया ना माने’ में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है।

लेकिन 'दुनिया न मानेंकी शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर ‘तदबीर’ की  नरगिस या तानसेन’ की खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है।

नर्गिस : अब तक याद मदर इंडिया 
महबूब ख़ान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई।  केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रूप में एक और शेड मिलता है।  बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है।

आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में  नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की ‘सीमा’ और बिमल रॉय की  बंदिनी’  में महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता दलित लड़की के सपने और  डर को तो ऋषिकेश  मुखर्जी की 'अनुपमाऔर 'अनुराधाभी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है। 

मधुबाला के दीवाने हुए दर्शक 
लेकिन फ़िल्म ‘जंगली’ के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की  और ये भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है। लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा।

नरगिसकामिनी कौशलमधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थींफिर भी 'अंदाज़दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसातराजकपूर की और 'महलअशोक कुमार की।

हालांकि राज कपूर की ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में ‘प्रेम रोग’ विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं।  वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं।

मन गुदगुदाती थीं जया  भादुडी 
अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। ‘अभिमान’ या 'मिलीजैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुईं पर इसी बीच परवीन बॉबी और ज़ीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा।

70 के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयीस्नेहीऔर नायक की राह में आंचल बिछाए  बैठी एक आदर्श नारी बनी रही। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है।

80 का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथाऔर चश्मेबद्दूर  या 'गोलमालजैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैंपर ये परंपरा कायम नहीं रह पाती।

शबाना का संजीदा अभिनय 
महेश भट्ट की ‘अर्थ’ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी मिली। भट्ट की इस फ़िल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज़्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को दिखाया।
सुबह और भूमिका’ भी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने ‘जख्मी औरत’ रुदाली और लेकिन’ से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए।

स्मिता अब तक यादें ताज़ा 
सावन-भादो’ से एक अनगढ़ लड़की के रुप में आईं रेखा ने ‘उमराव जान’ और ‘खूबसूरत’ जैसी फिल्मों से अपना अलग मुकाम बनाया लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग  से ही आया।

काजोल ‘दुश्मन’ और ‘बाज़ीगर’ में कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के 'ब्लैकमें कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की ‘सत्ता’ या गुलजार की 'हू तू तूबेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं।

ग्लोबल हों रहीं बॉलीवुड की अदाकारा 
बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त  बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं। 


हाल की  इश्क़िया  में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखेबहुत खूबसूरत हैंइन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएँगे..."


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Friday, December 24, 2010

बॉलीवुड : फिर जी उठेगा खलनायक

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मज़बूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। यह साबित करता है कि रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं।
हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षस।
हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी का असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वासग्रस्त लोग थे।
अछूत कन्या’ में प्रेम-कथा का विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसी तरह महबूब खान की ‘नज़मा’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में ‘दुनिया ना माने’ का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है।

50 और 60 के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र ‘साहूकारी पाश’ का सूदखोर महाजन मंटो की लिखी ‘किसान हत्या’ से होते हुए अपनी बुलंदियों पर महबूब खान की ‘औरत’ में पहुंचा और कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर 1956 में ‘मदर इंडिया’ में प्रस्तुत किया।
प्राण : अनोखा खलनायक 
भारत में डाकू की एक छवि रॉबिनहुडनुमा व्यक्ति की भी रही है और समाज में मौजूद अन्याय और शोषण की वजह से मजबूरी में डाकू बनने वाले किरदार लोकप्रिय रहे हैं। सुनील दत्त की सतही ‘मुझे जीने दो’ के बाद यह पात्र दिलीप कुमार की ‘गंगा-जमुना’ में 'क्लासिक डायमेंशनपाता है।


70 और 80 के दशक में तस्कर और व्यापारी विलेन बन गए और अब वे अधिक सुविधा-सम्पन्न और खतरनाक भी हो गए थे। चूंकि स्मगलिंग विदेशों में होती थीइसलिए खलनायक के साथ एक अंग्रेज-सा दिखने वाला किरदार भी परदे पर आने लगाजो दर्शर्कों की सहूलियत के लिए हिन्दी बोलता था।  
यह उस युग की बात है जब अर्थनीति 'सेंटरमें थी और आज जब अर्थनीति की रचना में ‘लेफ्टशामिल है, ‘गुरु’ जैसी फ़िल्म बनती हैं जिसमें पूंजीपति खलनायक होते हुए भी नायक की तरह पेश है और आख़िरी रील में वह स्वयं को महात्मा गाँधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है।
अजीत की मोना ने मचा दी धूम 
पाँचवे और छठे दशक में ही देवआनंद के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमेरिका में पनपे (noir) नोए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायमपेशा अपराधी रहे हैं जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्मे थे।
फिर समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ। सलीम-जावेद ने मेर्लिन ब्रेंडो की ‘वाटर फ्रंट’ के असर और हाजी मस्तान की छवि में ‘दीवार’ के एंटी-नायक को गढ़ा जिसमें उस दौर के ग़ुस्से को भी आवाज़ मिली।
इसी वक्त नायक-खलनायक की छवियों का घालमेल भी शुरु हुआ। श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ और निशांत’ में खलनायक तो जमींदार ही रहे लेकिन अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। इसी क्रम में पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ में आवाज मिली और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के असर को ‘देव’ में पेश किया गया।
अब तक याद गब्बर के डायलाग 
इसी दौरान खलनायक अब पूरे देश पर अपना अधिकार चाहने लगे। सिनेमा ने अजीबोगरीब दिखने वालेराक्षसों-सी हंसी हंसने वालेसिंहासन पर बैठेकाल्पनिक दुनिया के खलनायकों को जन्म दिया। शाकाल, डॉक्टर डैंग और मोगेंबो इन्हीं में से थे।
इसी बीच  1975  में एक ऐसा खलनायक आया जिसके बुरा होने की कोई वजह नहीं थी। वह बस बुरा था। वह गब्बर सिंह थाजिसका नाम सुनकर पचास कोस दूर रोते बच्चे भी सो जाते थे। हिन्दी समझने वाला ऐसा भारतीय मुश्किल ही मिलेगाजिसने ‘अब तेरा क्या होगा बे कालिया’ न सुना हो।
अमजद खान के बाद वैसा खौफ सिर्फ ‘दुश्मन’ और ‘संघर्ष’ के आशुतोष राणा ने ही पैदा किया। इन दोनों फिल्मों का सीरियल किलर 90 के दशक के उत्तरार्ध के उन खलनायकों का प्रतिनिधित्व करता हैजो मानसिक रूप से बीमार थे।
मोगेम्बो खुश हुआ !!!
मानसिक अपंगता के साथ शारीरिक अपंगता भी बॉलीवुड में खलनायकों के गुण की तरह इस्तेमाल की जाती रही है। अपनी क्षतिग्रस्त आंख के कारण ललिता पवार सालों तक दुष्ट सास के रोल करती रहीं। डर’ के हकलाते शाहरुख और  ओमकारा’ का लंगड़ा त्यागी भी इसी कड़ी में हैं।
इसी बीच हीरो-हीरोइन के घर से भागकर शादी करने वाली फिल्मों ने उनके माता-पिता को ही खलनायक बनाना शुरु कर दिया। इसके उलट  बागबान’  और ‘अवतार’ की संतानें अपने माता-पिता की खलनायक ही बन गईं। कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा तो ‘रोजा’ ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के रूप में बॉलीवुड को एक नया दुश्मन दिया। इन्ही दिनों बॉलीवुड के चरित्न वास्तविक जीवन के चरित्नों की तरह आधे भले-आधे बुरे होने लगे। ‘परिंदा’, ‘बाजीगर’, ‘डर’, ‘अंजाम’ और अग्निसाक्षी जैसी फिल्मों ने एक नई परिपाटी शुरु कीजिनके मुख्य चरित्न नकारात्मकता लिए हुए थे।
खलनायक को शाहरुख ने दी नई छवि 
लेकिन पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब कर दिया। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में पिता शुरू में विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगेलेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं। इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता हैलेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज्यादा नहीं है।
आशुतोष राणा  से थर्रा गए दर्शक 
संयोग ऐसा रहा कि तीनों ही फिल्में सफल रहीं। लिहाजा बाकी निर्देशकों को भी लगा कि अब फिल्मों में विलेन की जरूरत नहीं रह गई है। पिछले दस सालों में तनुजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित ही ऐसा विलेन आया हैजिसे देखकर घृणा होती है। फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है।

बहरहाल, सिनेमा अपने एकआयामी चरित्रों और कथानकों के साथ जी रहा है, लेकिन तय है कि खलनायकों की वापसी होगी, क्योंकि खलनायकत्व उत्तेजक है।

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