Saturday, October 9, 2010

फ़िल्मी सफर : भारत से इंडिया तक...

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज में वरिष्ठ संवाददाता है.)  
सिनेमा,  जिसके भविष्य के बारे में इसके आविष्कारक लुमियर बंधु भी बहुत आश्वस्त नहीं थे,  आज भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना गया है। जुलाई 1896,  जब भारत में पहली बार किसी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था,  तबसे आज तक सिनेमा की गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हम अपने निजी और सामाजिक जीवन  की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो सब कुछ श्वेत-श्याम ही दिखेगा। 
सिनेमा  ने समाज के सच को एक दस्तावेज़  की तरह संजो रखा है। चाहे वह 1930  में आरएसडी चौधरी  की बनाई  व्रत  होजिसमें  मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था इसी वजह से अँगरेज़ सरकार ने इस फिल्म को बैन भी कर दिया था चाहे 1937  में वी शांताराम की  दुनिया न माने। बेमेल विवाह पर बनी इस फिल्म को सामाजिक समस्या पर बनी कालजयी फिल्मों में शुमार किया जा सकता है। 
फिल्म श्री 420 का एक सीन 
जिस दौर में  देश  के बटवारे  की मांग  और सांप्रदायिक वैमनस्य जड़े जमा चुका था,  1941 में फिल्म बनी  पड़ोसी,  जो सांप्रदायिक सौहार्द पर आधारित थी। फिल्म शकुंतला के भरत को नए भारत के मेटाफर के रूप में इस्तेमाल किया गया था।  जाति हालांकि आज भी  लगान  और  राजनीति  तक में दिखी हैलेकिन इससे बहुत पहले 1936 में ही देविका रानी और अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज़  की  अछूतकन्या  में जाति प्रथा का मुद्दा उठा चुके थे। दलित मुद्दे पर फिल्मों में बाद  में बनी फिल्म सुजाता  को कोई कैसे भुला सकता है।
देश आजाद हुआ  तो एक नए किस्म का आदर्शवाद  छाया था। फिल्में भी इससे अछूती नहीं थीं। देश के नवनिर्माण में उसने कदमताल करते हुए युवा वर्ग को नई दिशा,  नई सोच और नए सपने बुनने के मौके दिए 
 50 का दशक संयुक्त परिवार और सामाजिक  समरता की फ़िल्मों का दशक था। 'संसार’, ‘घूँघट’, 'घराना’,  और ‘गृहस्थी’ जैसी फ़िल्मों  ने समाज की पारिवारिक इकाई में भरोसे को सिल्वर स्क्रीन पर आवाज़ दी।
इन्हीं  मूल्यों  और सुखांत कहानियों के बीच  कुछ  ऐसी  फिल्में  भी इस दौर  में  आईं,  जिसने  समाज में वैचारिक स्तर पर आ रहे बदलाव को दिखाया।  
एंग्री यंगमैन अमिताभ   
एक ओर तो राज  कपूर-दिलीप कुमार-देव आनंद  की तिकड़ी अपने रोमांस के सहारे दुनिया जीत रहे थे। लेकिन राज कपूर की फिल्मों में एक वैचारिक रुझान साफ दिख रहा था वह असर था मार्क्सवाद  का।  गौरी  से करिअर शुरु करने वाले राज कपूर अभिनेता के तौर पर चार्ली चैप्लिन का भारतीय संस्करण पेश करने की कोशिश में थे। हालांकि श्री 420  में वह  नायिका के साथ एक ही छतरी के नीचे बारिश में भींगकर गाते भी हैं  इस तरह राज कपूर ने दब-छिप कर रहने वाले भारतीय रोमांस को एक नया अहसास दिया।
हालांकि,  भारतीय सिनेमा के संदर्भ में किसी  विचारधारा की बात थोड़ी विसंगत लग सकती है। लेकिन 50 के दशक के शुरुआती दौर में विचारधारा का असर फिल्मों पर दिखा। बिमल रॉय की  दो बीघा ज़मीन  भारत में नव-यथार्थवाद का मील का पत्थर है।
लेकिन ज्यादातर भारतीय फिल्मों में वामपंथी  विचारधारा के दर्शन होते हैं वह कोई क्रांतिकारी विचारधारा न होकर सामाजिक न्याय की  हिमायत करने वाली है। इसमें समाज सुधार,  भूमि सुधार,  गाँधीवादी दर्शन और सामाजिक न्याय सभी कुछ शामिल है। लेकिन हर आदर्शवाद की तरह फिल्मों का यह गांधी प्रेरित आदर्शवाद ज्यादा दिन टिका नहीं। ऐसे में आराधना से राजेश खन्ना का अवतार हुआ। खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता  यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा,  जो सिर्फ ख्वाब थे।  
फिल्म वेल्कम टू सज्जनपुर  
इस तरह  का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ तो होता  नहीं है। इसलिए ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी। दर्शक बेचैन थे। मंहगाईबेरोज़गारी,  भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ की  ज़रुरत थी। ऐसे में एक लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लगी। इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके। ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता। 
कुछ लोग  तो इतना तक कहते है कि गुस्सैल अमिताभ ने  70  के दशक  में  एक बड़ी क्रांति  की राह  रोक  दी।  बहरहाल,  अमिताभ का गुस्सा भी कुली,  इंकलाब आते-आते लोगों को गुस्सा दिलाने लगा। जब भी इस अमिताभ ने खुद  को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं या अग्निपथ में बदलना चाहा  तो  लोगों ने  स्वीकार नहीं किया। 
तो  नएपन की कमी से  से लाल बादशाह,  मृत्युदाता  और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया अमिताभ लोगों को नहीं भाया। वजह, उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता की सोच बदल गयी थी। अब लोगो के पास खर्च करने के लिए पैसा था  तो वह रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करे ?
'किंग खान' बने शाहरुख  
ऐसे में  एक और नए लड़के  ने दस्तक  दी।  यह लड़का  इतना  'कूल' है कि अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के छोटे से गांव तक चला आए। (NRI) परदेसी भारतीयों की कहानियों पर और परदेसी भारतीयों के लिए बनाई गई फिल्मों में शाहरुख खान  का किरदार राज मल्होत्रा एक सिंबल के तौर पर उभरा। 
हालांकि,  परदेसी भारतीयों के लिए बनाई जा  रही  फिल्मों  में तड़क-भड़क ज्यादा हो गयी और भारत के आम आदमी का सिनेमा के कथानक से  रिश्ता कमजोर हो गया। ऐसे में मिड्ल सिनेमा ताजा हवा का झोंका बनकर आया है। व्यावसायिक रूप से सफल इन फिल्मों का क्राफ्ट और कंटेंट दोनों मुख्यधारा की फिल्मों से बेहतर है। आमिर खान की लगान,  तारे ज़मीन पर जैसी कई फिल्में, शाहरुख की स्वदेश  और चक दे इंडिया  और श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर, वेलडन अब्बा ने सामयिक  विषयों को फिल्मो में जगह दी है। तब अलग से यह कहने की ज़रूरत नही रह जाती कि  सिनेमा समाज का  अक्स है जो भारत से इंडिया की कहानी है 

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