Saturday, November 13, 2010

यूपी फिर बेदम, कम जुर्म का भ्रम (आखिरी)

समस्या ये है कि जो भी यूपी का मुख्यमंत्री बना, उसने सिस्टम को अपने हिसाब से चलाया। नई पीढ़ी के लोगों को ये नहीं पता कि प्रदेश का गृह मंत्री कौन है। हम बताते हैं। 1989 में नारायण दत्त तिवारी की सरकार में गोपीनाथ दीक्षित गृह मंत्री थे। उस सरकार के बाद यूपी में गृह मंत्रालय मुख्यमंत्रियों ने अपने पास ही रखा। इस लिस्ट में मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और मायावती के नाम आते हैं। देश के सबसे बड़े सूबे में अगर कोई होम मिनिस्टर होता है तो उसकी हैसियत मिनी मुख्यमंत्री से कम नहीं होगी, जो अब कोई सीएम बर्दाश्त नहीं करेगा। बात साफ है जो पुलिस का माईबाप,  वो सबका आका। सबने पुलिस को नौकर बना कर रखा। अब हालात ये हैं कि पुलिस वालों ने सुनना ही बंद कर दिया। जब जनता के नुमाइंदे ही गंभीर नहीं हैं तो डंडा फटकारने वाला भला क्यों सुनेगा आपकी? दही को इस कदर मथा कि माठा बन गया जो जड़ों को खोखला कर रहा है।

जनता नहीं नेता की सुरक्षा करती है यूपी पुलिस 
अफसर भी कम जि़म्मेदार नहीं हैं, यूपी के इस हाल के लिए। जब मई 2007 में मायावती ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली तो आईपीएस लॉबी में भूचाल आ गया। हर कोई प्रतिनियुक्ति पर केंद्र सरकार के पास जाना चाहता था। कुछ का लगाव मुलायम सिंह यादव से ज्यादा था। कई आईपीएस दिल्ली निकल लिए। प्रदेश में वैसे भी आईपीएस की कमी थी। मायावती ने अपने हिसाब से तबादले किए। अब तो जुर्म पर कान न देने वाले बड़े पुलिस अफसर सीधे मुख्यमंत्री से संपर्क होने की धौंस देते हैं।

बात मई 2005 की है। केंद्र की बेरुखी के कारण सूबे में ज़बरदस्त बिजली किल्लत थी। कानपुर में बीजेपी के विधायक सलिल विश्नोई ने आम लोगों के साथ प्रदर्शन किया। सलिल तत्कालीन एसएसपी रामेंद्र विक्रम सिंह के निशाने पर थे। रामेंद्र ने बिना बात जमकर सलिल की पिटाई की। विधायक कई दिनों तक अस्पताल में पडे़ रहे। लोग कहते हैं कि रामेंद्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से घरेलू ताल्लुकात थे।

अभी लगभग 20-25 दिन पहले राहुल गांधी गोरखपुर से मुंबई जाने वाली ट्रेन में बैठे। इसके पहले वो किराए की गाड़ी करके आराम से रेलवे स्टेशन पहुंचे लेकिन यूपी के खुफियातंत्र को हवा तक नहीं लगी। जो राहुल गांधी से अनजान थे वो अपराधियों-आतंकियों की क्या खुफियागीरी करेंगे। कुछ दिन पहले हुआ लखनऊ का सीएमओ हत्याकांड तो सबसे सनसीखेज़ रहा। कातिल अब तक पुलिस से दूर हैं। तकरीबन छह महीने पहले कानपुर के पॉश इलाके स्वरूप नगर में दो महिलाओं का कत्ल कर दिया गया। महिलाएं पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह की रिश्तेदार थीं। केस अब तक उलझा है। 2007 में जब यूपी विधानसभा चुनावों का ऎलान हुआ तो चुनाव आयोग की नज़र डीजीपी बुआ सिंह पर आकर टिकी। बुआ सिंह को हटाया गया। आयोग का कहना था कि उनके रहते निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकते। जिस शख्स पर 20  करोड़ लोगों की हिफाज़त का ज़िम्मा है, उस पर ऐसा लांछन लगे तो सिस्टम की सड़न का पता चल जाता है

मायावती के आने के बाद यूपी में एक नई हवा बही। फील गुड की। सिर्फ राजधानी में लॉ एंड आर्डर पर बैठक। पूरे प्रदेश से अफसर वहां पहुँचते हैं। वहां क्राइम कम करने के ‘नुस्खे‘ बताये जाते थे। फाइलों को देखकर सब दुरुस्त होने का दावा होता था। बिना रिपोर्ट लिखे अपराध तो कम दिखेंगे ही। अब कुछ बदलाव आया है। कमिश्नरी मुख्यालयों पर बड़े अफसर जाते हैं बैठक करने।

सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ???
चित्रकूट में डेढ़ साल पहले एक डकैत ने तीन दिन तक यूपी पुलिस को उलझाए रखा था। चंबल के बीहड़ों में डकैतों को मारने के अलावा आम लोगों को पुलिस ने कभी कोई राहत नहीं दी। इटावा-औरैया और यमुनापार के इलाके में तो अब तक ज़बरदस्त पकड़ (अपहरण) होती है और पुलिस बैठी रहती है। सैकड़ों मामले थाने ही नहीं पहुंचते। अपराध आटोमेटिक कम हो जाता है। महिलाओं से छेड़छाड़ के मामलों में पुलिस 14 फीसदी कमी का दावा कर रही है। चेन स्नेचिंग तो यूपी के बड़े शहरों में एक नया रोज़गार है। कभी-कभार कोई चेन स्नेचर पकड़ा जाता है तो उससे सैकड़ों चेनें बरामद होती हैं। हां,  पुलिस का एक और दावा है,  दलितों के खिलाफ अपराध कम होने का।

यूपी की जेलें तो अपराधियों के लिए फाइव स्टार होटल से कम नहीं हैं। वहां बंद नेताओं से लेकर जेबकतरों तक को हर सुविधा मिल सकती है। बशर्ते उसकी कीमत चुकाई जाए। जब भी जेलों पर छापे की रस्म होती है तो मोबाइल, लाइटर, चरस, ब्लेड जैसी चीज़ें आसानी से मिल जाती हैं। कई बार तो काजू-किशमिश भी मिले नेताओं और अपराधियों के बैरक से।

मार्च 2010 में तबादले पूरे करने के बाद यूपी सरकार ने ऎलान किया कि अब तबादले नहीं होंगे। तबादला नीति बनाई गई। साथ में जोड़ा गया कि मुख्यमंत्री आपात स्थितियों में तबादले को आज़ाद हैं। तब से अब तक न जाने कितनी बार पुलिस वाले थोक में इधर-उधर हुए। अब तो सूबे में कई ऎसे इंस्पेक्टर-एसएचओ हैं, जिनका विधायक-मंत्री तक कुछ नहीं बिगाड़ सकते। वजह,  उनके सीधे संबंध।


ऎसा नहीं है कि यूपी पुलिस 100 फीसदी काहिल हो गई है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लेकर सूबे के बाकी हिस्सों में कई बड़े आतंकवादी एटीएस ने पकड़े। स्लीपर सेल खोज निकाले। खतरा बढ़ता देख एटीएस में प्रदेश सरकार ने चुनिंदा जांबाज़ अफसरों को रखा। इसका नतीजा ये रहा कि यूपी में बीते दो-तीन सालों में कोई बड़ी आतंकी वारदात नहीं हुई। बात साफ है कि अगर सरकार और उसके कारिंदे ठान लें तो पत्थर से पानी निकालने में भी वक्त नहीं लगेगा। आज भी टीवी पर यूपी पुलिस की ज्यादती के सीन चल रहे हैं। देख कर सोचियेगा एक बार... ।

( लेखक प्रवीन मोहता आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं) 

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