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Thursday, November 4, 2010

मत काटो रिटेल की ‘ टेल '

हजारों का रोज़गार निगल लेगा वाल-मार्ट 

भारत के रिटेल सेक्टर के बारे में सुनते ही अमेरिका और बाकी देशों की बड़ी कंपनियों की आंखों में चमक आ जाती है। आए भी क्यों नहीं? इसकी कई वजहें जो मौजूद हैं। बढ़ती आबादी के बीच बेहद तेज़ी से उभरता दि ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास। इस वर्ग के बारे में जो कहा जाए वो ही कम है। जब दो साल पहले पूरी दुनिया आर्थिक मंदी का रोना रो रही थी तो भी भारतीय कंपनियों पर उतना असर नहीं आया। वजह, दि ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास। कोई नौकरीपेशा तो कोई कारोबारी। कोई आईटी क्षेत्र में तो कोई छोटे मेडिकल स्टोर या किराना दुकान का मालिक। मंदी में भी लोगों की क्रय शक्ति अच्छी थी। देश की तरक्की के साथ मिडिल क्लास भी कदमताल कर रहा है। पूरे साल छोटी से छोटी चीज से लेकर डिजिटल कैमरा, मोबाइल, कारें और न जानें किस-किस चीज के विज्ञापन लोगों को लुभाते हैं।

अब थोड़ी बात करते हैं अपकी गली के नुक्कड़ पर मौजूद जनरल स्टोर वाले की। दिल्ली, मुंबई, भोपाल, कानपुर, पटना, बरेली जैसी टियर 1, 2 और 3 सिटी में हर जगह मिलते हैं ये जनरल स्टोर वाले। इनके पास काफी पूंजी तो नहीं होती है लेकिन व्यवहार कुशल होते हैं। पीढि़यों से चल रहे छोटे कारोबार से पूरे परिवार का पेट भरते हैं। मोहल्ले के लोग उधार पर रोज़मर्रा का सामान खरीदते हैं। दिल्ली में तो जनरल स्टोर मालिकों ने कुछ लड़के भी नौकरी पर रख लिए हैं। लोगों को इन्स्टेंट सर्विस देने के लिए। वजह, देर हुई तो लोग बिग बाजार, रिलायंस फ्रेश जैसे स्टोर की तरफ चले जाएंगे और उनके पेट पर लात। कोई कुछ भी कहे लेकिन हकीकत ये है कि बिग बाज़ार, रिलायंस फ्रेश, स्पेंसर जैसे स्टोर के आ जाने से आसपास के छोटे दुकानदारों के धंधे पर सीधा असर आया है। भरोसा न हो तो कभी फुर्सत में अपने जनरल स्टोर वाले से पूछिए।

अमेरिका के माईबाप बराक ओबामा इंडिया आ रहे हैं। इस बार वो भारत-पाकिस्तान के झमेले में उलझने कम और अपने यहां की मरती कंपनियों को ऑक्सजीन दिलवाने का काम करेंगे। वो भी दि  ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास और दि ग्रेट इंडियन रिटेल बाज़ार के सहारे। हथियार भी बेचने की कोशिश करेंगे। अमेरिका की सबसे बड़ी रिटेल चेन वाल-मार्ट के सीईओ माइकल डयूक भी बीते दिनों भारत आये। अभी तक सिंगल ब्रांड में 51 फीसदी एफडीआई के बाद वे भारती एयरटेल के सहारे मल्टीब्रांड रिटेल को एफडीआई के लिए खोलने पर लॉबिंग कर रहे थे। वे कहते हैं, भारत सरकार से सकारात्मक संकेत मिले हैं। हमारे आने से वेस्ट (बर्बादी) कम होगी और किसानों को उपज का पूरा दाम मिलेगा। उनके साथ फ्रांस की केरेफोर और ब्रिटेन की टेस्को भी इंडिया की ओर ललचाई नज़रों से देख रही हैं।

इंडिया की जीवनधारा हैं नुक्कड़ की दुकानें 
अब आंकड़ों पर गौर करें। ब्रांड माकेर्टिंग इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2010 में भारत के रिटेल सेक्टर की कुल बिक्री 353 बिलियन यूएस डॉलर है जो 2014 में बढ़कर 543 बिलियन डॉलर हो जाएगी। मतलब मार्केट में लगभग 11 फीसदी से ज्यादा की ग्रोथ। गोरे लोगों की आंखें फटने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है। छोटे जनरल स्टोरों की बिक्री 2014 तक 15.29 बिलियन हो जायेगी। बढ़त 154 फीसदी से होगी। और तो और भारत में छोटे मेडिकल स्टोर साल 2014 तक 88 फीसदी की गति से तरक्की करेंगे। अमेरिका की मैनजमेंट कनसल्टेंसी कंपनी एटी करने का ग्लोबल रिटेल डेवलपमेंट इंडेक्स भी कहता है कि इंडिया का रिटेल सेक्टर 11 फीसदी से बढ़ेगा। वो भी दुनिया में सबसे तेज़। बीते पांच सालों में भारतीय बाज़ार को चौथी बार ये मुकाम हासिल हुआ है। दूसरी फर्म मैकिंसे की रिपोर्ट की हेडिंग ही ‘ दि ग्रेट इंडियन बाजार ’ है।

असंगठित क्षेत्र को खतरा 
रिटेल की तरक्की की ये कहानी तब है जब खुलेआम देश में श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ा दी गई। साप्ताहिक बंदी का कोई नियम बिग बाज़ार, रिलायंस फ्रेश और स्पेंसर जैसे स्टोरों पर लागू नहीं होता जबकि छोटे दुकानदारों को एक दिन बंदी रखना ज़रूरी है। केंद्र सरकार अब मल्टीब्रांड रिटेल को एफडीआई के लिए खोलने पर विचार कर रही है। शक्कराचार्य शरद पवार कहते हैं कि हम राज्य सरकारों से बात करेंगे। सरकार को समिति की रिपोर्ट का इंतज़ार है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक प्रधानमंत्री मल्टीब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआई चाहते हैं। कहने की बात नहीं कि देश में कोक, पेप्सिको, सैमसंग, एलजी जैसी कंपनियों ने जो भी मुकाम हासिल किया है, वो इन छोटे दुकानदारों की बदौलत ही है। पूरी तरह असंगठित लोग अपना पेट भर रहे हैं। बढ़ता मिडिल क्लास इनको सांसें दे रहा है।

जनरल स्टोर जैसी जगहों की हकीकत तो आंख खोलने वाली है। सिर्फ दुकानदार के अलावा भी इस चेन के सैकड़ों लोगों का इससे पेट भरता है। कोई पैकिंग के काम में लगा है तो कोई मजदूरी के तो कोई ब्रेड बनाने के। अगर सरकार मल्टी ब्रांड रिटेल को एफडीआई के लिए खोलती है तो इसका सीधा मतलब होगा, हज़ारों लोगों की रोजीरोटी के लिए करोड़ों परिवारों को कंगाल कर देना। अब तक पूंजी छोटे-छोटे दुकानदारों के बीच बंटी थी। बड़ी कंपनियों के आ जाने से पूंजी का बहाव एक तरफ होगा। बड़े पैमाने पर खरीद और बड़े पैमाने पर बिक्री। नतीजा, छोटे जनरल स्टोरों, दुकानों, निर्माण इकाइयों में तालाबंदी, बेरोज़गारी। अगर सरकार आम जनभावना के उलट मल्टी ब्रांड रिटेल को एफडीआई के लिए खोलती है तो बुंदेलखंड और विदर्भ के किसानों की तरह नत्था मरेगा, ज़रूर मरेगा (क्योंकि उसके पास और कोई चारा नहीं होगा)
( लेखक प्रवीन मोहता आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं