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Saturday, November 13, 2010

फ्रॉम वॉशिंगटन-टू-काबुल वाया नई दिल्ली

राजीव कुमार 
(लेखक आईआईएमसीनयी दिल्ली के पूर्व छात्र और टीवी टुडे ग्रुप (हेडलाईंस टुडे) में कार्यरत हैं)
बराक ओबामा जा चुके हैं। जाते-जाते वो हमारे कानों को वो बातें सुना गए जिसे सुनने के लिए हम कब से बेकरार थे। लेकिन शोर-शराबा खत्म होने के बाद अब वक्त आ गया है जब हम गिफ्ट बॉक्स को खोलें और देखें कि जो आश्वासन मिला, वो हमारे कितने काम का है ? सबसे पहले बात सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की।  ओबामा और उनके सलाहकार जानते है कि भारत के लिए स्थाई सीट का रास्ता काफी लंबा है और मुश्किल भरा भी। सिर्फ अमेरिका के समर्थन से कुछ नहीं होगा। मान लीजिए चीन तैयार भी हो जाता है तो जापान,  जर्मनी,  दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील का क्या होगा? जिनका दावा भारत से कम मजबूत तो नहीं है। ये देश भारत को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं बशर्ते इन्हें भी स्थाई सीट मिले।


आसान नहीं होगी सुरक्षा परिषद की राह 
अगर भारत से रिश्तों के प्रति अमेरिका सचमुच गंभीर है तो उसे हमारी अफगानिस्तान सम्बन्धी चिंताओं पर ज्यादा गौर करना चाहिए था। भारतीय सांसदों को संबोधित करते हुए अगर ओबामा कहते कि अब से वाशिंगटन अपनी अफगान नीति और फ़ैसलों में भारत को पाकिस्तान से कम तवज्जो नहीं देगा”, तो ये बात सुरक्षा परिषद के लॉलीपाप से बेहतर और ज्यादा मुक़म्मल होती। अफगानिस्तान से हमारा रिश्ता पाकिस्तान से कहीं कमतर नहीं रहा है। ऑपरेशन एनड्युरिंग फ्रीडम की शुरुआत से ही भारत करज़ई सरकार को हर तरह से मदद देता आ रहा है। वो चाहे अफगानिस्तान को फिर से खड़ा करने के लिए बुनियादी जरूरतों का सामान हो  या फिर पेट भरने के लिए खाना।

रूस के साथ बन सकती है अफगानिस्तान में बात 
अफगानिस्तान में अमेरिका तालिबान से युद्ध लड़ रहा है और इस लड़ाई को जीतने के लिए वो सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान पर निर्भर है। अमेरिकी ड्रोन से मारे गए हर एक तलिबानी की जगह लेने के लिए अल-कायदा और आयमान-अल-जवाहिरी भस्मासुर की तरह सैकड़ों लड़ाकों को खड़ा कर देते हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका बुरी तरह फंस चुका है और इस लड़ाई का अंत दूर-दूर तक नहीं दिखता है। वो यह भी जानता है कि आतंकी संगठनों का मुख्यालय पाकिस्तानी सीमा के अंदर फाटा क्षेत्र में है,  जहां से इनके आका इनको संचालित कर रहे हैं। इन आतंकी संगठनों को आईएसआई से मिल रहे खुले समर्थन की बात भी अमेरिका से छिपी नहीं है।

विकास के लिए शान्ति चाहिए 
पाकिस्तान का यह दोहरा खेल तब तक चलेगा जब तक उसे लगता रहेगा कि अमेरिका के पास पाकिस्तान के साथ और उसकी शर्तों पर काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ज़रदारी सरकार,  ख़ासकर पाकिस्तानी सेना को जिस दिन अंदाजा हो जाएगा कि अब अमेरिका, पाकिस्तान के बिना भी अफगानिस्तान में जंग जीत सकता है उसी दिन आईएसएआई पर लगाम लग जाएगी और अमेरिका के लिए अफगानिस्तान में रास्ता आसान हो जाएग। भारत वहाँ अमेरिका के लिए अच्छा विकल्प मुहैया कराता है। कोल्ड वार के दौर से बाहर निकलकर अमेरिका को रशिया (रूस) से भी बात करनी चाहिए। भारत-रूस को साथ लेकर अमेरिका निश्चित रूप से ये जंग जीत सकता है। मुझे नहीं लगता कि रूस मौजूदा हालात में अमेरिका का साथ देने को तैयार नहीं होगा।

पाकिस्तान को ही निगल लेगा तालिबान 
कुछ विशेषज्ञों की राय हो सकती है कि इसके बाद पाकिस्तान ड्रोन को अपनी सीमा के अंदर घुसने से रोक सकता है और यहां तक कि खुलकर तालिबान के समर्थन में आ सकता है। जब पाकिस्तान, तालिबान की पुरानी तकनीक का मुकाबला नहीं कर सकता,  तब ड्रोन की उन्नत तकनीक से मुकाबला पाकिस्तान के वश की बात नहीं है। जहां तक तलिबान के समर्थन में खुल कर आने की बात है,  पाकिस्तान को इसके खतरे का पूरा एहसास है। अभी कुछ महीनों पहले ही तालिबान राजधानी इस्लामाबाद से सिर्फ 60  किलोमीटर दूर बुनेर तक आ पहुंचे थे। पाकिस्तान के पसीने छूटने लगे थे। इस घटना की याद अभी तक वहां के हुक्मरानों को होगी।


ऐसे में ओबामा प्रशासन अगर भारत से रिश्तों के प्रति सचमुच गंभीर है तो दिसंबर में होने वाली अपनी अफगानिस्तान समीक्षा बैठक में भारत के अफगानिस्तान में रोल पर फिर से गौर करेगा। अमेरिका अगर इस समीक्षा बैठक में पाकिस्तान को साफ-साफ संदेश देने में सफ़ल हो जाता है तो अफगानिस्तान में उसके लिए चीज़ें काफी आसान हो सकती हैं।