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Monday, February 14, 2011

मुखौटा पहने घूमती दुनिया !

धीरज वशिष्ठ 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
एक दोस्त के यहां पिछले दिनों गया। रास्ते से गुजर रहा था तो सोचा मिलता चलूं। घर पहुंचा तो भाईसाहब पूरी तरह फिट-फाट होकर कहीं जाने की तैयारी में दिखे। मैंने पूछा कि लगता है ग़लत वक़्त पर आ गया, तुम कहीं निकल रहे हो क्या?  उसने कहा नहीं यार, आओ बैठो। मैंने पूछा फिर कहीं से आ रहे हो? बोला, अबे, नहीं यार, कहीं से नहीं आ रहा। मैंने पूछा तो फिर ये बाबूसाहब बनकर क्यों घर पर बैठे हो?  उसने कहा, इसके पीछे कहानी है। दरअसल अगर घर में कोई ऐसा बंदा आ जाता है जिसके साथ मैं वक़्त बिल्कुल गुजारना नहीं चाहता तो कह देता हूं कि अरे यार तुम ग़लत वक़्त पर आ गए, मैं तो कहीं निकल रहा हूं। दूसरी तरफ तुम्हारी तरह कोई मनपसंद शख़्स आ जाता है तो कहता हूं कि ठीक वक़्त पर आए हो मैं अभी-अभी बाहर से ही आ रहा हूं।

मुझे ये बात सुनकर खुशी कम, हैरानी ज़्यादा हुई। मैं सोचने लगा कि ये भी क्या तरीक़ा है जीने का?  हम मुखौटा पहने क्यों घूमते रहते हैं ? जैसा शख़्स सामने दिखा उसके हिसाब से चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लिया।
न्यूज़ चैनल में काम करते हुए इस तरह के मुखौटा व्यक्तित्वको मैंने खूब देखा। बॉस के दिमाग में कोई आइडिया आया नहीं कि उनके सामने मुखौटों की भीड़ नज़र आने लगती है। वाह सर, क्या स्टोरी आइडिया है, ज़बरदस्त टीआरपी बटोर लेंगे हमलोग। बॉस थोड़ा से हटे नहीं कि फुसफुसाहट शुरू। अबे यार, इस स्टोरी पर कहीं आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का है ?  इससे कचरा तो कुछ नहीं होगा यार..वगैरह..वगैरह। देख लीजिए, मुखौटा अब बदल गया

उखाड फेकना होगा मुखौटा 
आए दिन हमारे-आपके चारों तरफ मुखौटों की ये भीड़ नज़र आती रहती है। स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि हम ख़ुद के चेहरे पर कब कौन-सा मुखौटा चढ़ा लेते हैं ये ख़ुद को भी नहीं पता। हम झूठे चेहरे को लेकर घूम रहे हैं। हम नकली व्यक्तित्व को ढोए चले जा रहे हैं। मुखौटे के ऊपर मुखौटा। नकली चेहरे के ऊपर एक और नकली चेहरा। हम दिनभर में इतने बार मुखौटे बदलते रहते हैं कि किसी कोने से आ रही हमारे ही व्यक्तित्व की सिसकियां ही हमें सुनाई नहीं देती।    

एक खंडित व्यक्तित्व चारों तरफ नज़र आ रहा है। हमने ख़ुद को ही कई टुकड़ों में बांट रखा है। इस मुखौटे ने हमारा क़त्ल कर दिया है। इस मुखौटे ने हमें ख़ुद से अनजान बना दिया है। इस मुखौटे ने हमारे हर एक भरोसे का गला घोंट दिया है। इस मुखौटे ने शक, फ़रेब और धोखे की दीवार खड़ी कर दी है। नहीं, सारे मुखौटों को अब उतारना पड़ेगा। इस झूठे व्यक्तित्व को गिराना होगा। हम जैसे हैं, वैसे नग्न खड़े हो जाएं- कोई मुखौटा नहीं, सिर्फ असली चेहरा।

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Wednesday, January 19, 2011

दे दो आज़ादी इक पल जीने की!

आल इज्ज़ वेल ???
आज़ादी! ये शब्द सुनते ही ज़्यादातर लोगों को 15 अगस्त की याद आ जाती है। कई लोग तो आज़ादी को सिर्फ अंग्रेज़ों से मिली आज़ादी समझते हैं लेकिन...अब इसके मायने बदल रहे हैं। कहने को तो हम राजनीतिक रूप से आज़ाद हो गए। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में अब लोगों की जेबें भी भारी होने लगी हैं, मतलब आर्थिक आज़ादी। सिर्फ इतने पर ही आकर टिक जाती है हमारी सोच।


कभी न तो हम इससे आगे सोचते हैं और न हमें सोचने की इजाज़त होती है। अपनी मर्ज़ी से जीने की आज़ादी कभी मिली ही नहीं। जिसने ऐसा सोचा, या तो उसका कत्ल कर दिया गया या फिर उसको दिमागी तौर पर पर ‘थर्ड डिग्री’ में रख दिया गया। सब कुछ खामोश! असली आज़ादी के लिए नई जेनरेशन कुलबुला रही है लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा। चिंता पहले किसकी करें? देश की, अपनी या परिवार की, करियर की या फिर अपनी किसी पसर्नल बात की? टेंशन ही टेंशन है।  

बचपन में मम्मी सुबह तैयार करके स्कूल भेज देती थीं। छोटे थे, समझ कम थी तो स्कूल जाना बहुत बुरा लगता था। अब हमें स्कूल जाने से फायदे समझ में आ रहे हैं। उस वक्त किसी को मैथ्स पढ़ना अच्छा नहीं लगता था, किसी को साइंस। मन मारकर पढ़ते थे। धीमे-धीमे स्कूल का वक्त कब गुज़र गया, पता ही नहीं चला। 14 साल की उम्र आते-आते सपनों को पंख लगने लगे थे। मन हर उस चीज़ की ओर जाता था, जो भी करना मना था। उस वक्त अपनी जि़दगी में थोड़ा स्पेस चाहिए होता था, जो मिलता नहीं था। हम क्रिकेट खेलना चाहते थे, लेकिन किताबें पीछा नहीं छोड़ती थीं। इस दौर में कई बड़ी खुराफातें भी की लेकिन सब दब गया। इन खुराफातों में क्रिएटिविटी भी छिपी थी लेकिन बैग, करियर, किताबें और सब चौपट। छटपटाहट बहुत ज़्यादा थी लेकिन कुछ हो नहीं पाता था।

मैं कहाँ जाऊं?
20 साल की उम्र आते-आते करियर की हवा ने ऎसा झकझोरा कि किसी काम के नहीं रहे। इधर जाऊं कि उधर। आमिर खान कहते हैं न, कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन है सॉल्यूशन कुछ पता नहीं। हम कभी वो चाहते ही नहीं थे जो ‘वो’ चाहते थे। वो जो चाहते थे, हमें नामंज़ूर था। कुछ को मनचाहा करियर भी मिल गया और कुछ ताकते ही रह गए। खैर जैसे-तैसे अपने क्रिएटिव दिमाग से कुछ कागज़ की डिग्रियां हासिल कर लीं। अब करियर की कार चलने को बेकरार थी। चल भी पड़ी। आज़ादी यहां पर भी नहीं मिल रही थी। घुटन तो बहुत ज़्यादा थी लेकिन दोस्तों के आगे ग़म भूल जाते थे। जिन्होंने खुद को इससे बाहर निकालने का रिस्क लिया, उनसे पूछिए, कितने पापड़ बेलने पड़े।

कुछ साल नौकरी करने के बाद एक अलग तरह का प्रेशर आया। इसे हम ‘फ्रीडम किलर’ कहते हैं। शादी करने का प्रेशर। कुछ करना चाहते हैं तो कुछ नहीं करना चाहते हैं, कुछ अपनी पसंद की लड़की से करना चाहते हैं तो कुछ बैचलर रहना पसंद करते हैं लेकिन फिर वही बात...सोसायटी का प्रेशर। एक दोस्त फेसबुक पर कह रहा था, हम लोग पूरी ज़िंदगी में ज़्यादातर वक्त पड़ोसी की फिक्र में गुज़ार देते हैं।कुछ करो या न करो, ब्याह कर लो प्लीज़। लड़की/लड़का पसंद है तो ठीक वरना दूसरों का मन रखने के लिए ही शादी कर लो। जो अपनी पसंद को अपनाते हैं, उनका हश्र निरूपमा पाठक जैसा होता है। कोई सुनवाई नहीं है भाई। हमारी नई जेनरेशन जाए तो जाए कहां। कोई भी तो सुनने वाला नहीं है। सर्द रात में अंधेरी सड़क पर आप अकेले हैं। कोहरा पड़ रहा है। सर्दी से बचने और ट्रक से जान बचाने की फिक्र जैसा हाल है।

क्या मिलेगा मुश्किल का हल???
80 के दशक में पैदा हुए लोग काफी घुटन महसूस कर रहे हैं। साल्यूशन तो फिलहाल दिख नहीं रहा है। बचपन से अब तक हर पल घुटने को मजबूर लोग पागल से हो रहे हैं। कई बार कई लोगों को कहते सुना, सब छोड़कर भाग जाने का मन करता है। क्या करें, दिल भर गया। बस, अब और नहीं। सवाल ढेर सारे हैं, समाज और देश के ठेकेदारों के पास कोई जवाब नहीं है। जवाब देना उनके लिए मुश्किल भी तो हैं। पता नहीं क्या होगा? बचपन तो गया जवानी भी गई...

नदियों पर बांध बना दिए गए। बड़ी-बड़ी कंक्रीट की बिल्डिंगों ने हवा का रास्ता रोकने की कोशिश की है। स्प्रिंग को जितना दबाया जाएगा, वो उतना ऊंची उठेगी। डर ये है कि कहीं ऐसा न हो और ये जेनरेशन भी भीड़ का हिस्सा बनकर खो जाए हमेशा के लिए। या आएंगे थ्री ईडियटस।

Sunday, January 16, 2011

तेज़ी, तरक्की और तनाव

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धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
तेज़ भागती जिंदगी में एक कॉमन प्रॉब्लम जो हमारे सामने आ खड़ी है वो है- तनाव। हाई ब्लडप्रेशर, ऐंगज़ाइटी (चिंता), डिप्रेशन जैसी तमाम बीमारियां इस तनाव की देन है। छोटे बच्चों से लेकर बड़े कामकाजी लोग हर कोई तनाव से दो-चार है। ऐसे में सवाल है कि इस तनाव से छुटकारा कैसे मिले? योग की परंपरा में तनाव से लड़ने की अचूक तकनीक है। आसन, प्राणायाम और रिलेक्शेशन तकनीक से लेकर कई दूसरी तमाम चीज़ें। न्यूज़ रूम के फाइव फ़िटनेस मंत्र आलेख में मैंने इससे संबंधित कुछ चीजों का ज़िक्र किया था, लेकिन यहां तनाव को लेकर योग के जो गहरे कॉन्सेप्ट हैं, उसकी बात करेंगे।


क्यों होता है तनाव ?
तैतरीय उपनिषद हमारे शरीर को पांच कोशों का बना मानता है। इन पांच कोशों में मनोमय कोश काफी अहम हैं। तनाव का संबंध मनोमय कोश में असंतुलन से है। असुंतलन की वजह है अनियमित जीवन शैली, हमारी महत्वकांक्षाएं, हर दिन आसमान छूती उम्मीदें वगैरह..वगैरह। तनाव को लेकर योग के इस कॉन्सेप्ट को एक लाइन में कहें तो,  स्पीड इज़ ए स्ट्रेस। हमारी रफ़्तार भरी ज़िंदगी ने तनाव को पैदा करने का काम किया है। क्लास में फर्स्ट आने की तेज़ी, करियर में आगे बढ़ने की तेज़ी। कम उम्र में सबकुछ पाने लेने की तेज़ी। इस तेज़ी ने हमें बैचेन कर रखा है, हमारी शांति खो चुकी है और हम बीमारियों के एक घर बन गए हैं।


कैसे मिले निज़ात ?
सवाल है कि तनाव से छुटकारा कैसे मिले ? जिंदगी में ऐसी कई चीज़ें हैं जिसे हम चाहकर भी बदल नहीं सकते। इस भागदौड़ वाली जिंदगी में हमें न चाहते हुए भी भागना पड़ता है। ऐसे में अपने मनोमय कोश को संतुलित रखने के लिए मानसिक धरातल पर हमें ज्यादा काम करना पड़ेगा। चीज़ों को देखने, रिएक्ट करने की मानसिकता बदलनी पड़ेगी।


... मन का न हो तो ज्यादा अच्छा !!!
तनाव में फंसी जिंदगी की नाव 
  अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग में एकबार लिखा था कि कैसे उनकी पिता की बताई गईं बातें जीवनभर उनके काम आती रही। नैनीताल के शेरवुड स्कूल की बातों को याद करते बच्चन साहब लिखते हैं, स्कूल में वो एकबार बीमार पड़ गए थे और नाटक में अपना रोल नहीं कर पाए । काफी अच्छी तैयारी के बावजूद रोल न कर पाने का तनाव बच्चन के कोमल मन में घर कर गया। तभी उनके पिता आए और रोते हुए अमिताभ को उन्हें समझाया- मन का हो तो अच्छा न हो तो और भी अच्छा अमिताभ ने पिता के बताए इस मंत्र को ज़िंदगी भर याद रखा। सभी जानते हैं कि उनकी ज़िंदगी में किस कदर उतार-चढ़ाव आए, लेकिन पिता के बताए इस मंत्र ने उन्हें हमेशा तनाव से दूर रखा और इसतरह वो अपने करियर और परिवार को फिर से पटरी पर लौटा सके। हम भी अपने को बच्चन साहब और मालगुड़ी डेज़ के एक पात्र की तरह सब रामजी की लीला है कहकर तनाव से दूर रह सकते हैं।

महत्वाकांक्षा को जाने दें
महत्वाकांक्षा तनाव की सबसे बड़ी वजह है। तनाव से दूर रहना है तो होशपूर्वक महत्वाकांक्षा को जीवन से जाने दें। महत्वाकांक्षा खबर देती है कि हम भविष्य में जीते हैं, हमारा वर्तमान से कोई सरोकार नहीं है। योग वर्तमान में होने की कला है। गीता कहती है तेरा सिर्फ कर्म पर अधिकार है फल पर नहीं। हम मेहनत से जी न चुराएं लेकिन फल में ज्यादा उलझे नहीं। मेहनत करने पर किसी वजह से हमें मन का सोचा नहीं मिलता और हम तनाव की गिरफ़्त में आने लगते हैं।

चले वाते चलं चित्तं...
यौगिक ग्रंथों का मानना है कि " चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् ", अर्थात प्राणवायु तेज़ हो तो मन तेज़ होता है और प्राणवायु शांत हो तो मन शांत होता है। ये सूत्र हमें तनाव से लड़ने की तकनीक देता है। जब हमारा मन अशांत होता है यानी तनाव का शिकार तो उस वक्त हमें लंबी-गहरी सांस यानी डीप ब्रीदिंग करनी चाहिए। जैसे-जैसे हमारी सांसें सिंक्रोनाइज़ होती जाएंगी, हमारा मन शांत होता जाएगा और हमें मिलेगी तनाव से छुट्टी। उज्जयी प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और ऊं चैंटिंग सबसे ज्यादा कारगर।

ये आराम कौन-सी बला है ?
हंसो-कहकहे लगा लो....
जी हां, इस तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में हमने आराम को खुद से काफी दूर कर दिया है। आराम हराम है के कॉन्सेप्ट ने हमारी जिंदगी को नर्क बना दिया है। हमारा शरीर कोई मशीन नहीं, जिससे हम जैसे-तैसे काम लेते रहें। हमने आराम को सबसे बड़ा दुश्मन मान रखा है। सात-आठ घंटे की कम्पलीट नींद हमें फिट रखने के लिए बेहद ज़रूरी है। इस वक्त शरीर अपने कल-पुर्जों को दुरस्त कर रहा होता है ताकि हम आगे काम करने के लिए अपने को तैयार कर सकें। काम के बीच एक-दो मिनट की झपकी भी आपको काफी तरोताज़ा कर जाती है।


बच्चों के साथ दोस्ती करें
छोटे बच्चों के साथ खेलना शुरू कर दें। खासतौर पर तनाव के वक्त अपने को छोटे बच्चों को साथ बिज़ी करें, आप पाएंगे तनाव छूमंदर हो गया। बेहतर हो आप ख़ुद ही बच्चे बन जाएं।


आख़िरी बार ठहाका कब लगाया ?

खासतौर पर महानगरों की संस्कृति में हम हंसना भूल गएं हैं। हमें ठीक से याद नहीं होगा कि हम आख़िरी बार कब ठहाके लगाकर हंसे थे। सो, ठहाके को जीवन को शामिल करें। हां, कुछ लोग आपको देहाती कह सकते है, लेकिन ये बात भी तो ठहाके लगाने के लिए काफी है। हा हा हा।
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Monday, January 10, 2011

....तब सो पाएंगे आप शांति से

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
एक छोटी बच्ची अपने हमउम्र लड़के के साथ खेल रही थी। उस लड़के के पास कंचे का एक अच्छा कलेक्शन था, जबकि लड़की के पास कुछ मिठाइयां। लड़के ने उस लड़की से कहा कि मैं तुम्हें अपने सारे कंचे दे दूंगा, अगर तुम अपनी सारी मिठाइयां मुझे दे दो। लड़की राज़ी हो गई और अपनी सारी मिठाइयां दे दीं। मिठाई के बदले लड़के ने अपने कंचे के कलेक्शन से कुछ बड़े और सुंदर कंचे छोड़कर बाकी सभी कंचे लड़की को दे दिए। उस रात लड़की शांति से सोई, लेकिन लड़का सो न पाया। पूरी रात करवटों में गुज़र गई। ये सोच कर लड़के की नींद उड़ी रही कि कहीं उसकी तरह लड़की ने भी सबसे स्वादिष्ट और लाजवाब मिठाइयां अपने पास छुपा न रखीं हो।
ये कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर लगती है। ये छोटी-सी कहानी हमारे चरित्र की कहानी या कहें तो हम अपनी जिंदगी को कैसे जीते हैं, इसकी कहानी कहती है। इस कहानी को समझ सकें तो इसमें पूरी गीता समा जाए। इस कहानी के सार में अब तक मानवता के दिए गए तमाम उपदेश समा जाएं।
कहानी कहती है कि उस रात वो लड़की शांति से सो पाई। ये शांति कुछ बांटने की शांति है। ये शांति उस मानसिकता से आती है, जहां चीज़ें सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे लिए नहीं होतीं, उस पर सिर्फ़ हमारा अधिकार होने का दंभ नहीं होता। हम जब किसी को कुछ देते हैं तो हमारा ह्रदय खिल उठता है। अपनी ज़िंदगी में आपने कई बार इसे महसूस किया होगा। याद कीजिए उस वक्त को जब आप किसी के मददगार बन गए थे। उस छोटी-सी मदद के बदले भले ही आपको कुछ न मिला हो, लेकिन उस दिन आपने ख़ुद को काफी हल्का महसूस किया होगा । ये देने का आनंद है, ये किसी को मदद पहुंचाने की खुशबू है, ये किसी के काम आने की शांति है।
कहानी कहती है कि उस रात लड़का सो नहीं पाया, रात भर करवटें बदलता रहा। हालांकि लड़के के पास उसके शानदार कंचे भी रह गए और लड़की की सारी मिठाइयां भी आ गई, लेकिन चैन न था, बेचैनी सोने नहीं दे रही थी। ये बेचैनी आती है बेईमानी से। सबकुछ हड़प कर जाने की मानसिकता हमें सोने नहीं देती, चैन की सांस लेने नहीं देती। जहां उस लड़की का ह्रदय-कमल खिल उठा, वहीं कुछ शानदार कंचे दबाकर उस लड़के ने अपने ह्रदय को सिकोड़ लिया । इस सिकुड़े ह्रदय ने उस लड़के को रात भर परेशान किए रखा।
हम जिंदगी भर इस छोटे बच्चे की तरह चालबाज़ियों में फंसे रहते हैं। सबकुछ पा लेने की छटपटाहट ने हमसे शांति छीन ली है। दुनिया में जो कुछ बेहतर है, जो चीज़ें अच्छी है, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे पास हो- इस मानसिकता ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। हमारे पास सबकुछ होते हुए भी हम सबसे दरिद्र हो गए हैं, हम सबसे दीन-हीन मालूम पड़ते हैं, हम सबसे भिखमंगे नज़र आते हैं।
ये कहानी ये भी कहती है कि हम संबंधों को लेकर भी कितने बेईमान हैं। कभी कुछ कंचे, कभी कुछ पैसे तो कभी कुछ पद को लेकर हम उन संबंधों से भी दग़ा कर जाते हैं, जिसके होने से हमारा होना है। चंद पैसों के ख़ातिर एक भाई अपने भाई का ही गला घोंट देता है। कुछ टुकड़े ज़मीन की ख़ातिर एक बेटा अपने पिता का ही हत्यारा बन जाता है। थोड़ी सी कामयाबी की ख़ातिर एक दोस्त दूसरे दोस्त को दग़ा दे जाता है, एक दूसरे की क़ब्र खोदने लगता है। आख़िर हम कहां जा रहे हैं ?
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Tuesday, January 4, 2011

ये जो है ज़िन्दगी ..............

मुकेश झा 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र और प्रोपर्टी एक्सपर्ट पत्रिका में सीनियर सब एडिटर हैं.)
इतना आसान नहीं है, इन राहों पर चलना, जहां पर कुछ पदचिन्ह के इतिहास बने हों। कहने के लिए तो आप यह भी बोल सकते हैं कि यह दुनिया बदल रही है और वक्त बदल रहा है। हम चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर पाते हैं, जिसे करना समाज और देश के लिए बेहद ज़रूरी है। लेकिन सिस्टम ने सफलता की एक नई परिभाषा से काफी कुछ बदल दिया है। सफलता के मापदंड बदल गए हैं। एक सफल इंसान के रूप में हम खुद को तौलने के बाद ही अपनी आवाज़ बुलंद करने में ही बुद्धिमानी महसूस करते हैं।

बदल गए सफलता के पैमाने 
शायद, यह तर्क विवादों से परे हो सकता है, जब हम उसे एक मानवीय पक्ष के रूप में देखें तो। संभव भी है कि इस सिद्धांत को लेकर कुछ लोग नाक- भौं भी सिकोड़े लेकिन सत्य के करीब पहुंचना हमारे बूते से बाहर की चीज़ हो रही है। समस्याएं पहले भी थी, आज भी है और रहेंगी। समस्याओं का असली निराकरण समाज आज बेहतर रूप से नहीं ढूंढ पा रहा है।

इन समस्याओं को लेकर हाल ही मेरी बातचीत एक मनोवैज्ञानिक से हुई तो उन्होंने स्पष्ट कहा है कि समस्या का निदान उस समय तक संभव नहीं है, जब तक हर व्यक्ति इसमें अपनी महत्ता और भूमिका को लेकर अपना स्पष्ट मत न रखे। उनका यह भी कहना था कि हम पहले से ज्यादा तार्किक हो गए है। हर एक बात को तर्क की कसौटी पर कसना मानवीय सोच बनती जा रही है। दुनिया में हर एक चीज़ को आप तर्क पर रखेंगे तो संभव है कि समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती चली जाएं। 

एक और महत्वपूर्ण पक्ष सामने रखना बहुत ज़रूरी है। आपका विकास और व्यवहार कैसे और किस रूप में काम कर रहा है। इस मामले में आपके व्यक्तित्व की परिभाषा काफी हद तक परिवारिक पृष्ठभूमि दे देती है। सवाल उठता है कि एक बेहतर परिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़े लोग भी जघन्य अपराध कर रहे हैं तो फिर गलती और चूक कहां हो रही है? इसमें माध्यम की भूमिका किसी हीरो-विलेन से कम नहीं है। माध्यम यानि संचार, इसकी दुनिया समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है। ये माध्यम पहले भी थे, लेकिन वर्तमान स्वरूप अति प्रभावित कर रहा  है। दिखावे का समाज और पश्चिमी संस्कृति के बहाव ने इसकी दिशा को दिगभ्रमित कर रखा है। सामंजस्य की स्थिति लगभग खत्म होने के कगार पर है। व्यक्तिवाद की सोच को शायद फैशन और पैशन के तौर पर लिया जा रहा है। हम पहले सोचते हैं कि कहां और किसे किस रूप में बोला जाए कि हमें ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। यहां कहने का आशय है कि हम पैसों की जुबां बोलने पर खुद को बेहतर साबित करने की एक ऐसी होड़ में शामिल हैं, जहां तर्क पर दुनिया टिकी है। तर्क-विर्तक की दौड़ कोई नई नहीं है लेकिन आज के दौर में भावनाएं खोती जा रही है। आखिर किस कसौटी पर जिंदगी है। इस कसौटी को भले ही कुछ लोग और नाम दें लेकिन मज़बूरी कतई नहीं है। सवाल उठता है कि हम मज़बूर हैं या हमारी व्यवस्था मज़बूर बनने को बाध्य कर रही है।

हर चीज़ पर नहीं हों सकता तर्क-वितर्क 
एक वैज्ञानिक का कहना है कि हम समाज और व्यक्ति को एक व्यवस्थित  सॉफ्टवेयर  के रूप में देखते हैं। यह एक ऐसा सामाजिक  सॉफ्टवेयर है, जिसकी प्रोग्रामिंग सिस्टम के अनुसार इस प्रकार से हो चुकी है कि ज्यादा स्पेस इसमें खाली नहीं बचा है। स्पेस का मतलब है कि ज्यादा अतिरिक्त न तो आप कर सकते हैं और न सोच सकते हैं। खैर, मनुष्य और मशीन में एक फर्क यहां ज़रूर दिखता है कि हम यूटोपियन बनकर कुछ समय के लिए सोच सकते हैं। शायद, यह सोच का स्वरूप भी सीमित दायरे में होकर ही व्यापक बन गया है। इसे कौन और कैसे संचालित कर रहा है, यह सवाल उठना लाजिमी है। आपकी परिस्थिति आपको संचालित करती है। फिर यह परिस्थिति लाता कौन है? हम खुद अपने को लेकर जिम्मेदार ज़रूर हैं लेकिन कुछ बातें ऐसी है, जिसको लेकर हम या आप कतई जिम्मेदार नहीं हैं।


याद कीजिए वह दिन जब एक छोटी सी घटना घट जाने पर कैसी हाय-तौबा मचती थी लेकिन अब तर्क के माध्यम से लोग कुछ ज्यादा समझदार हो चुके हैं। तार्किक सिद्धांतों को लेकर बहस ज़रूर छिड़ सकती है लेकिन यह संभव है कि बिना निष्कर्ष लिए ही कहीं खत्म न हो जाए। आज हमारे सामने कितनी समस्याएं हैं, लेकिन हम उस ढंग से विरोध नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी ज़रूरत है। विरोध के रूप भी ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़ गया है। संकेत के रूप को कैंडिल ऐसे ढाल रहा है, जैसे वह कैंडिल नहीं क्रांति की मशाल हो। हम अपनी दिल की बात कैसे और किस रूप में कहें, उसके लिए तकनीकी की दुनिया ने कई नये द्वार खोल दिए हैं लेकिन क्षेत्र विस्तार अति सीमित है।

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Sunday, January 2, 2011

प्यार के नाम पर पहरेदारी!

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
क्या आपको किसी से प्यार हुआ है ?  आप किसी के प्यार में कभी गिरफ्तार हुए हैं ?  कुछ ऐसे ही मिलते-जुलते दो-चार सवाल हैं जिससे हम सभी की मुठभेड़ होती है। हर कहीं प्यार के अंकुर पनपते, उसकी कलियां खिलती तो कहीं प्यार के फूल की खुशबू बिखरती नज़र आती है। खासतौर पर मेट्रो कल्चर में ऐसा शायद ही कोई लड़का-लड़की मिले जो कभी प्यार की बगिया में ना मिलें हों। लैला-मजनू और हीर-रांझा आज होते तो प्यार के इन गुलदस्तों को देखकर बाग-बाग हो जाते। हां..वो इस प्यार की गहराई में जाने की कोशिश करते तो उन्हें गुलदस्ते के नकली फूलों से दो-चार होना पड़ता।


ढाई अक्षर-प्रेम के इस नाम पर आज सबकुछ हो रहा है, सिर्फ प्यार नहीं। कई लोग मुझसे इत्तफाक ना रखें, लेकिन फ़ैसले लेने में जल्दबाज़ी भी क्या.. थोड़ा देखें तो सही कि प्यार की गली में क्या-क्या गुल खिलते हैं। मेरे देखे प्यार की शुरुआत फिजिकल एटरेक्शन से होती है और पहरेदारी पर जाकर अटक जाती है। शारीरिक आकर्षण नेचुरल है, इसको लेकर कोई एतराज़ नहीं। परेशानी दरअसल प्यार के नाम पर पहरेदारी को लेकर है।


एक सज्जन की बात यहां शेयर करना चाहूंगा। साहब काफी आशिक मिजाज़ हैं। चाहे ऑफिस में हो या घर की बालकनी में नज़रें तो हमेशा रूप-यौवना को ही तलाशती रहती हैं। थोड़ा से मौका मिल जाए तो लड़की के सामने इस तरह से लार-टपकाते नज़र आएंगे कि बेचारे कुत्तों को भी शर्म आ जाए। साहब की एक खूबसूरत बीवी भी हैं। जनाब का खूब ख़्याल रखती हैं। बावजूद पति-पत्नी के बीच महाभारत अक्सर छिड़ी रहती है। दरअसल, साहब को अपनी बीवी का किसी ग़ैर से बात करना सख्त नापसंद है। पड़ोस के वर्मा जी से बीवी ने मीठी ज़ुबान में थोड़ा हाल-चाल क्या पूछ लिया, घर में हायतौबा मच जाती है, महाभारत शुरू हो जाती    है। उस दिन बीवी का फोन थोड़ा बिजी मिला तो अगले कॉल में सवालों की झड़ी लग गई.. किससे बात हो रही थीइतनी देर तक बातचीत करने की क्या ज़रुरत थी ? ... वगैरह....वगैरह।


एक-दूसरे को ठीक से समझते ही नहीं प्रेमी-जोड़े 
क्या आप इसे मियां-बीवी के बीच प्यार कहेंगे। दरअसल प्यार के नाम पर ये पहरेदारी है। प्यार के नाम पे ये मल्कियत जताने की कोशिश है। हम किसी से प्यार करते हैं तो उसे अपनी संपत्ति समझने लगते हैं। इस मल्कियत की वजह से व्यक्तिगत आज़ादी का दम घुट जाता है। एक प्रेमी जोड़े को मैं जानता हूं जिनके बीच अच्छी बनती है, लेकिन लड़की की जैसे ही अपने एक क्लासमेट से ज़्यादा बातचीत शुरू हुई कि प्रेमी का सारा प्यार काफ़ूर हो गया। साफ चेतावनी दे दी गई कि चुन लो.. प्यार चाहिए या दोस्त ? अब उन्हें कौन समझाए कि दोस्ती की बुनियाद भी प्यार ही है। ऐसे कई जोड़े हैं जो बजायफ्ता अपनी गर्लफ्रैंड के मेल का पासवर्ड रखते हैं, मेल चेक करते हैं, फोन मैसेज से लेकर कॉल डिटेल तक को खंगाला जाता है। अब इसे आप क्या कहेंगे प्यार या पहरा ?


बेजुबान भी करते एक-दूसरे पर भरोसा 
एक प्रेमिका ने अपनी प्रेमी से पूछा कि क्या तुम शादी के बाद भी मुझे इतना ही प्यार करते रहोगे ? प्रेमी ने कहा, बिल्कुल अगर तुम्हारे पति को कोई एतराज़ न हो ! आज का प्यार कमोबेश ऐसा ही रह गया है। कहीं प्यार के नाम पर मल्कियत, तो कहीं प्यार के नाम पर पहरेदारी, तो कहीं प्यार के नाम पर टाइम पास। आज चारों तरफ प्यार करते हुए लोग आपको मिल जाएंगे, लेकिन प्यार कहीं अंधेरी कोठी में आठ-आठ आंसू रो रहा है।



प्यार की बगिया में ज़रूरी है भरोसे का फूल खिलना। प्रेमी जोड़ा करीब रहते हुए एक-दूसरी की आज़ादी और भावनाओं का ख़्याल रखे। प्यार के नाम पर हमें पहरेदारी बंद करनी होगी। खासतौर पर पुरुष मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है, जहां लड़की की अपनी ख़ुद की कोई मर्ज़ी नहीं, ख़ुद की कोई दुनिया नहीं, आज़ादी नहीं। हर चीज़ पर उसका प्यार ही पहरा बना बैठा है। इस पहरेदारी के बीच प्यार कहीं कराह रहा है, तड़प रहा है, आख़िरी सांसें ले रहा है।

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