Friday, December 10, 2010

...ये बनाना रिपब्लिक क्या बला है?

सुशांत झा 
( लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और दिल्ली में पत्रकार हैं)
जकल जिसे देखो, वहीं बनाना रिपब्लिक का नाम लेता जा रहा है। बात शुरू हुई नीरा राडिया से, फिर रतन टाटा ने तस्दीक किया कि हम बनाना रिपब्लिक में रहते हैं। इधर हमारे कामरेड भाईलोग सालों से ये बात कहते आ रहे थे, पर किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था। आखिरकार हमने आजिज आकर अपने एक दोस्त से पूछ ही लिया कि मियां ये बनाना रिपब्लिक क्या बला है? उसका कहना था कि यू नोजब रिपब्लिक बनाना की तरह हो जाए तो उसे बनाना रिपब्लिक कहते हैं! मैंने कहा कि अर्थ स्‍पष्‍ट करो। तो उसने कहा कि जिस देश को लोग पके हुए केले की तरह मनमर्जी दबा दें, तो वो बनाना रिपब्लिक हो जाता है!

इधर हाजीपुर से  एक भाई ने फोन पर दावा किया कि बनाना रिपब्लिक का नाम हाजीपुर के केला बागान पर पड़ा है! उसका तर्क था कि जैसे गंगा किनारे के दियारा में (नदी के किनारे का इलाका) जिसकी लाठी उसकी भैंस चलती है’, वही हाल बनाना रिपब्लिक का भी होता है! मुझे लगा कि ये सही परिभाषा है। वैसे हाजीपुर के ही एक दूसरे सज्जन ने फोन किया कि ऐसा कहना हाजीपुर के केला बागान का अपमान है और इस पर मानहानि का मामला बन सकता है! आखिर दियाराके भी कुछ अपने नियम-कानून होते हैं, उसकी तुलना आप बनाना रिपब्लिक से कैसे कर सकते हैं?

खैर, इस सवाल ने मुझे भी कई दिनों तक परेशान किया। फिर महर्षि गूगल ने बताया कि बनाना रिपब्लिक दरअसल उसे कहते हैं, जहां वाकई जिसकी लाठी उसकी भैंस होती है।

दरअसल, बनाना रिपब्लिक का नामकरण एक अमेरिकी लेखक ओ हेनरी ने 20वीं सदी के शुरुआती सालों में किया था। हेनरी साहब ने 1904  में कैबेज एंड किग्सनामकी अपने लघुकहानी संग्रह में इसका ज़िक्र किया था, जब वे अमेरिकी कानूनों से बचने के लिए होंडुरस में रह रहे थे। होंडुरस, उत्तरी अमेरिकी महाद्वीप मे ही है, मैक्सिको-ग्वाटेमाला से बिल्कुल सटा हुआ, उसके दक्षिण में।

रतन टाटा यानी भरोसे का दूसरा नाम !!!
बनाना रिपब्लिक  का केले से वाकई संबंध है। दरअसल, जब बागवानी कृषि के लिए बड़े पैमाने पर गुलामों और दासों का उपयोग किया जा रहा था, तो उस समय भूस्वामियों ने बुरी तरह गुंडागर्दी मचा रखी थी। बागवानी कृषि में बड़े पैमाने पर केले का उत्पादन होता था और दासों से जानवरों की तरह काम लिया जाता था। ये भूस्वामी आपस में भी लड़ते थे और साथ ही उन देशों की सत्ता को इन्होंने अपनी रखैल बना लिया था। उन भूस्वामियों की बड़ी-बड़ी कंपनियां थीं, जो केले का निर्यात अमेरिका और यूरोप के बाजारों में करती थीं। कहते हैं कि पहली बार जब इसका निर्यात यूरोपियन मार्केट में हुआ, तो उसमें हज़ार फीसदी का मुनाफा हुआ था! उसी केले की बागवानी के नाम पर ऐसे देशों को बनाना रिपब्लिक कहा गया। जहां नियम-कायदों की जगह ताकत, पूंजी और भाई-भतीजावाद का नंगा खेल चलता था। केले को डॉलर में बदलने का ये सिलसिला 19वीं सदी के शुरुआत में चालू हुआ था।
बाद में  लोग कैरिबियन द्वीप समूहों के अलावा कई लैटिन अमेरिकी देशों को बनाना रिपब्लिक कहने लगे। वजह साफ थी। यहां लाठी का नंगा नाच होता था। वैसे इन देशों में व्यापक पैमाने पर केले की खेती करने का काम रेल पटरी बिछाने वाली अमेरिकी कंपनी के मालिक हेनरी मेग्स और माईनर कीथ ने किया था, जिसने मजदूरों को खाना खिलाने के लिए रेलवे पटरियों के किनारे केले की खेती शुरू की। बाद में यह केला सोना उगलने लगा और इसे लेकर खून-खराबे, सत्ता पलट और मजदूरों पर अमानुषिक अत्याचार शुरू हो गये।

कहते हैं कि  केले की खेती से इतना मुनाफा होने लगा कि केला कंपनियों ने वहां की सत्ता का दुरुपयोग कर कई इलाकों पर कब्जा कर लिया। माईनर कीथ जो रेल पटरी बिछाते थे, उन्होंने कई केला कंपनियों के साथ अपनी रेल पटरी कंपनी का विलय कर इतनी बड़ी कंपनी बना ली कि उन्होंने अमेरिका के 80  फीसदी केला कारोबार पर ही कब्जा कर लिया! अब वे बनाना किंगबन गये। इसके लिए हर उपलब्ध साधन अपनाये गये। हालत ये हो गयी कि इन केला कंपनियों ने दक्षिण अमेरिका, कैरिबियाई द्वीप समूह और केंद्रीय अमेरिका के लाखों लोगों को भूमिहीन बनाकर बंधुआ मजदूर बना लिया गया। इन मजदूरों को सीमित रूप से भोजन और यौन संबंध बनाने की आजादी मिली हुई थी।

राडिया के चक्कर में पड़ गई कई जगह " रेड "
ये केला कंपनियां  इतनी ताकतवर थीं कि इन्होंने सीआईए के साथ मिलकर कई देशों में तख्ता पलट कराया और कई राष्ट्रपतियों की हत्या कर दी गयी। पाब्लो नेरुदा ने लैटिन अमरीकी देशों में इन केला कंपनियों के राजनीतिक प्रभुत्व की अपनी कविता ला यूनाईटेड फ्रूट कंपनीमें भर्त्सना भी की।

उस हिसाब से  देखा जाए तो केला कंपनियों की तरह अपने यहां कंपनियां ज़मीन से लेकर स्पेक्ट्रम तक की लूटमार करती ही रहती हैं। तो फिर टाटा साहब का कहना ठीक है कि हम बनाना रिपब्लिक हो गये हैं! अंग्रेजी में ये शब्द कितना अच्छा लगता है…!

2 comments:

  1. वाह सुशांत..क्या लिखा है। पहले को लगा कि तुम अपने मिजाज के उलट व्यंग्य और हास्य लिखने वाले हो। लेकिन पता लगा कि हास्य तो महज चाशनी थी। अंदर ज्ञान भरा था। जानकारी पूर्ण लेख..तुम्हारे लेख न सिर्फ आईआईएमसी के पूर्व छात्रों के ब्लॉग के लिए उपयुक्त हैं बल्कि पत्रकारिता के छात्रों के लिए भी...। साधु..।

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  2. बहुत बेहतरीन। बहुत रोचक तरीके से जानकारियों को पेश किया गया है। धन्यवाद।

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