Sunday, September 26, 2010

जलता झरिया, बुझते लोग

संदीप झा 
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व छात्र हैं और वर्तमान में डीडी न्यूज में कार्यरत हैं.)
कोयलांचल का नाम आते ही ज़हन में धनबाद की तस्वीर उभरती है। धनबाद से ही सटा एक छोटा सा शहर है झरिया। झरिया से हमारा-आपका वास्ता कभी-कभी टीवी चैनलों पर सड़क पर पड़ी दरारों के बीच से निकलती आग की लपटों की विजुअल से ही होता आया है। इससे पहले शायद ही कभी राष्ट्रीय स्तर पर झरिया का ज़िक्र हुआ होगा। जमाने से झरियावासी कोयला के रूप में अपने पास मौजूद संसाधन पर गर्व करते आए थे लेकिन उन्होंने शायद ही कभी सोचा होगा कि उनकी जमीन के नीचे मौजूद कोयला उनके जी का जंजाल बन जाएगा। 
कुछ यूँ सुलग रही है झरिया के नीचे की धरती. साभार : GOOGLE 
     दरअसल झरिया शहर के नीचे जो लाखों टन कोयला दबा हैं उसमें आग लग गई है और 'झरिया बचाओ समिति'  के कार्यकर्ताओं की मानें तो जानबूझकर आग लगा दी गई है। आग के हालात कितने भयावह हो चुके हैं,  इसका अंदाज शाम के वक्त शहर में घुसते ही हो जाता है। शहर के चारो ओर उठती हुई नीली लपटें झरिया का काला सच बन गयी हैं। आग का प्रकोप अभी शहर की बाहरी चौहद्दी तक ही है,  बावजूद इसके सरकारी आंकड़ों के मुताबिक तकरीबन एक लाख परिवारों को विस्थापित किया जाना जरूरी हो गया है। ज़ाहिर है एक लाख परिवारों के विस्थापन का मतलब तकरीबन पांच लाख लोगों को उनकी ज़मीन से उजाड़ना होगा। और वो भी तब जब आग अभी शहर के बाहर ही है। कोयला कंपनियों की मनमानी चलती रही तो बकौल झरिया बचाओ समिति, पूरा शहर खाली कराना होगा। दरअसल कोयला कंपनियों ने सरकार पर दबाव बना कर इसकी प्रक्रिया शुरू भी कर दी है। पहले उस रास्ते से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग को अपना मार्ग बदलना पड़ा फिर खतरनाक मानते हुए झरिया रेलवे स्टेशन को बंद कर नए जगह पर स्टेशन बनाने की कवायद शुरू कर दी गई। और अब झरिया के लोगों को डंडे के बल पर जबरदस्ती विस्थापित करने की तैयारी में प्रशासन को लगाए जाने की तैयारी है। नीचे जलती आग और बरसात के दिनों में जम़ीदोज होने की घटना ने अब तक झरिया के कई लोगों की जाने भी ले ली हैं। लेकिन राज्य सरकार और केंद्र सरकार लालफीताशाही और कोयले की सरकारी कंपनियों के मनमर्जी के आगे बेबस नज़र आ रही है। 
बकौल झरिया बचाओ समिति ये पूरा मामला बीसीसीएल की ओपन कास्ट माइनिंग की नीति पर जोर देने का नतीजा है। समिति इसके पीछे छिपे स्वार्थ को उद्धघाटित करते हुए कहती है कि झरिया में पहले ओपन कास्ट माइनिंग नहीं होती थी। कोयला भूमिगत खनन के ज़रिए निकाला जाता था। लेकिन 90 के दशक के मध्य से बीसीसीएल ने कम खर्च और ज्यादा उत्पादन की नीति अपनाते हुए ओपन कास्ट माइनिंग का सहारा लिया। जिसका नतीजा अब सामने है। समिति का आरोप है कि इसके जरिए महज उपरी सतह का ही कोयला निकल पाता है जबकि झरिया के नीचे तकरीबन 2000 फीट तक कोयले का भंडार मौजूद है। शुरूआती 500 फीट की खुदाई के बाद कंपनी उस जमीन को यूं ही छोड़ कर जमीन के अगले हिस्से में खुदाई शुरू कर देती है। जिससे तेजी से उत्पादन तो बढ़ता है लेकिन नीचे तकरीबन 1500 फीट गहराई तक का कोयला बर्बाद होने के लिए या कोयला माफिया के लिए छोड़ दिया जाता है। 
इन छोड़ी हुई कोयला खदानों पर कोयला माफियाओं की गिद्द दृष्टि पहले से ही होती है। जिसका नतीजा होता है  बाकी बचे हुए कोयले के लिए अवैध खनन की शुरूआत जिसकी बंदरबाँट में तकरीबन हरेक स्टेक होल्डर का हिस्सा होने की संभावना से शायद ही कोई इंकार करेगा। यही अवैध खनन कोयले में आग की वजह होती है जो धीरे-धीरे नीचे तक पहुंच कर झरिया शहर के अंदर तक पहुँचने की ओर तेजी से बढ़ रही है। इस आग से झरिया वासियों के लिए भले ही अपने जमीन और घर से उजड़ने की नौबत आ गई है लेकिन कोयला के काले सौदागरों की पौ बारह हो रही है। इसी क्रम में झरिया बचाओ समिति पूछती है कि आखिर जो कोयला अंडरग्राउंड माइनिंग के जरिए आसानी से, बिना किसी नुकसान और किसी को विस्थापित किए निकाला जा सकता है , उसके लिए ओपन कास्ट माइनिंग क्यों? समिति पूछती है कि मान लीजिएझरिया की जमीन बीसीसीएल को दे भी दी जाए तो क्या इनकी भूख बस इससे खत्म हो जाएगी। अगला नंबर उससे आगे के कस्बे या गाँव का नहीं आएगा? समिति आगे कहती है कि यहीं पाँच किलोमीटर की दूरी पर प्राइवेट कंपनी की खानों में अंडर ग्राउंड माइनिंग के जरिए कोयला निकालने का काम सालों से चल रहा है लेकिन वहाँ कभी कोई हादसा नहीं हुआ, फिर बीसीसीएल को ही ओपन कास्ट माइनिंग की क्यों पड़ी है। क्या इसी एक बात से बीसीसीएल की कारगुजारी का खुलासा नहीं हो जाता। 
समिति आगे कहती है कि बीसीसीएल को दरअसल इस नीति से को चालू रखने के फायदे भी कई हैं। दुनिया की सबसे मंहगी जमीन (इस बात के लिए उनके पास पर्याप्त तर्क है। दरअसल झरिया में मिलने वाले कोयला कोकिंग  कोल है जिससे इस्पात की सफाई का काम बखूबी होता है जो उच्चतम कोटि के कोयले से ही संभव है। जाहिर है जिस ज़मीन के भीतर ये कोयला है वो दुनिया की सबसे नहीं तो कम से कम भारत की सबसे मंहगी ज़मीन होने का हक तो रखती है।) औने-पौने दाम में बीसीसीएल को मिलता जा रहा है। महज 500 फीट खुदाई से जो कोयला निकल पाए, उससे उत्पादन भी हर साल बढ़ता हुआ दिख रहा है और इससे जो विस्थापन की समस्या आ रही है उससे केंद्र सरकार निपटे। बीसीसीएल के हाथ सिर्फ लड्डू ही लड्डू। कोई उत्तरदायित्व नहीं।
 ये तो थी समस्या की जड़ , समस्या का दूसरा पहलू यहीं से शुरू होता है। दरअसल इस मामले पर झरिया के कुछ लोगों का एक समूह लगातार कानूनी से लेकर हर तरह की लड़ाई लड़ रहा है। कोर्ट के दबाव के बाद अग्निचक्र के घेरे में आ रहे लोगों के विस्थापन और इस समस्या से निपटने के लिए एक योजना भ बनाई गई है जिसमें लोगों को विस्थापित करने और लगी आग बुझाने के लिए दो स्तरों पर काम होना है। इसके लिए 7000-8000 करोड़ रूपए की राशि स्वीकृत भी की गई है, केंद्र सरकार की तरफ से। जिसमें से 2000 करोड़ रूपया आग बुझाने पर खर्च किया जाना है। लेकिन झरिया बचाओ समिति के रमेश खन्ना बताते हैं कि यहाँ भी बीसीसीएल अपनी करनी से बाज नहीं आ रहा है। आग बुझाने का काम तो कितनी गंभीरता से किया जा रहा है वो आप शाम को झरिया पहुँचते ही देख लेते हैं लेकिन विस्थापितों को बसाने के लिए पायलट योजना के तौर पर 2300 मकान शुरूआती तौर पर बनाए गए हैं जिसमें जाने के लिए कोई भी विस्थापित परिवार तैयार नहीं है।
रमेश खन्ना बताते हैं कि इसमें तीन मंजिले अपार्टमेंट बनाए गए हैं। जिसमें एक-एक मंजिल एक-एक परिवार को दी जानी है। प्रत्येक मंजिल पर 9.5 *11  का एक कमरा किचन-बाथरूम सहित एक परिवार को दिया जाना है। ज़ाहिर है औसतन चार-पांच सदस्यों वाले एक परिवार के लिए देश की सबसे मंहगी जमीन के बदले में दिया जाने वाला ये सौदा कोई भी मंजूर नहीं कर सकता। खन्ना साहब आगे जोड़ते हैं,  चलिए किसी तरह चार पांच लोगों वाला एक ग्रामीण परिवार इस दड़बेनुमा फ्लैट में रह भी ले तो अपने जानवर कहाँ बांधे? अपार्टमेंट की छत पर?  लिहाजा 2300 फ्लैट बन कर तैयार हैं लेकिन कोई परिवार इसमें आने को तैयार नहीं। उस पर तुर्रा ये कि ये शहर से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। वहाँ आकर रहने वाले लोगों के लिए रोज़गार का कोई साधन उपलब्ध नहीं है।
पूरी कहानी सुनाने के बाद जो सवाल झरिया बचाओ समिति पूछती है, उससे सिर्फ झरियावासियों का सरकार के प्रति गुस्सा ही ज़ाहिर नहीं होता बल्कि पूरी व्यवस्था ही एक तरह से कठघरे में खड़ी नज़र आती है।  रमेश खन्ना कहते हैं, आखिर देश की सबसे मंहगी ज़मीन का सौदा राज्य की नक्सली आत्मसमर्पण नीति में मिलने वाले मुआवजे से भी काफी कम है। ऐसे में सरकार क्या झरिया वालों को खुद अपनी तरफ से नक्सली बनने की राह पर नहीं धकेल रही ? सवाल जायज है लेकिन इसका जबाव शायद झरिया बचाओ समिति के पास भी नहीं। कोयले की नीली लौ में सिर्फ झरिया ही नहीं जल रहा है। झरियावासियों के मन में ये सवाल भी शायद अभी हल्की लौ में ही जल रहा है। डर है कहीं ये सवाल एक बड़े विस्फोट का रूप न धर ले।

1 comment:

  1. सवाल सिर्फ झरिया का नही है। यह लोकतंत्र की सौतेली संतानों के प्रति सरकार का रवैया है।

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