Tuesday, September 21, 2010

कांग्रेस के आंगन में किलकारी...


 (लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली के पूर्व छात्र हैं और फिलहाल 'स्टार न्यूज' में कार्यरत हैं. )  

मनोज मुकुल 
20 साल बाद बिहार कांग्रेस के आंगन में किलकारी गूंज रही है। बीते 20 साल में कांग्रेस की यहां जो स्थिति थी वो किसी से छिपी नहीं है। सालों तक यहां कांग्रेसियों ने राज किया लेकिन एक बार हाथ से सत्ता निकली तो फिर पिछलग्गु बनकर रह गये। 
90 में लालू के सत्ता में आने के वक्त भी पार्टी हार भले गई थी लेकिन स्थिति बेहतर थी.. लेकिन धीरे धीरे नाम लेने वाला कोई नहीं बचा। सबसे बुरा वक्त तो कांग्रेसियों के लिए रहा 2004-2005 का। पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा, कभी कांग्रेस विधायक दल के नेता (विपक्ष के नेता) रहे रामाश्रय प्रसाद सिंह, प्रदेश अध्यक्ष रामजतन सिन्हा जैसे जन्मजात कांग्रेसियों ने पार्टी से नाता तोड़ लिया। अपने राजनीतिक फायदे के लिए कोई नीतीश के साथ गया तो कोई पासवान के साथ। लेकिन एक बार फिर से दिन फिरने को है। पटना के सदाकत आश्रम में इन दिनों दिन में ही दिवाली मन रही है। रोज मिलन समारोह आयोजित हो रहे हैं। 
आज बिहार में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। साल 2005 के विधानसभा चुनाव में लालू से तालमेल कर कांग्रेस के 51 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। 9 सीटों पर जीत मिली। कुल 6.09 फीसदी वोट मिले, यानी 51 उम्मीदवारों को मिले 14 लाख 35 हजार 449 वोट। लेकिन लोकसभा 2009 के चुनाव में हालात बदल गये। हालांकि पार्टी को एक सीट का नुकसान हुआ लेकिन अकेले चुनाव लड़कर भी दो सीटों पर जीत मिली, और राज्य में कांग्रेस को जिंदा करने में मजबूती मिली। 2009 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी से नाता तोड़ कांग्रेस ने जो फसल बोने का काम किया था अब उसे इस विधानसभा चुनाव में उसके काटने का वक्त आ गया है। हालांकि कांग्रेस के पास बिहार में अब भी कोई सबसे बड़ा सर्वमान्य चेहरा नहीं है जिसके दम पर वोट मांगने की पार्टी हिम्मत कर सके। लेकिन बदले हालात में पार्टी किसी भी गठबंधन (लालू या नीतीश)को चुनौती देने की हैसियत में है इससे इनकार नहीं कर सकते। तभी तो लगातार नीतीश और लालू दोनों कांग्रेस पर वार करते दिख रहे हैं। अब खासियत देखिए कांग्रेस का जो शुरुआती आधार वोट रहा है उसका झुकाव फिर से पार्टी की ओर लौट रहा है। विधानसभा उपचुनाव 2009 में इसकी झलक देखने को मिली थी। देश की वर्तमान विषम राजनीतिक परिस्थितियों को भुनाने में विपक्षी नाकाम है लिहाजा बिहार में कांग्रेस को ललकारने का घाटा नीतीश और लालू को ही है। बाद इसके आज की तारीख में बिहार के ज्यादातर बाहुलबली कांग्रेस का दामन भी थामे हुए हैं। कोसी के इलाके में आनंद मोहन हों या फिर पप्पू यादव। लालू के साले साधु यादव भी कांग्रेस में ही हैं। रही सही कसर को संपूर्ण करने के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह पहुंचने वाले हैं। कांग्रेस की स्ट्रेटजी पर गौर करें तो उसकी कोशिश बिहार के हर इलाके से एक बड़ा नाम और बड़े चेहरे को अपने साथ जोड़ने की है। अब अररिया के पूर्व बीजेपी सांसद सुखदेव पासवान भी कांग्रेसी हो गये हैं। बिहार में 21 अक्टूबर को पहल पहले दौर की वोटिंग है। और आज की तारीख में पार्टी सबसे मजबूत स्थिति में इसी इलाके में हैं। आनंद मोहन, पप्पू यादव भले जेल में हैं लेकिन इन बाहुबली पूर्व सांसदों की पूर्व सांसद पत्नियां कमान संभालने के लिए काफी है। दलित वोटरों के लिए इस इलाके में कभी सबसे बड़ा चेहरा रहे सुखदेव पासवान भी अब साथ हो गये हैं। प्रदेश अध्यक्ष और पार्टी के युवा अल्पसंख्यक चेहरा महबूब अली कैसर भी इसी इलाके से आते हैं। पहले दौर के चुनाव में अगर कांग्रेस अपने इन धुरंधरों के जरिये सही टिकट बंटवारे के साथ वोट मैनजमेंट का पुख्ता इंतजाम कर लेती है। तो इसका बड़ा संदेश बिहार के बाकी इलाकों में जाएगा, जो विरोधियों के प्राण सूखाने के लिए काफी हो सकता है। कांग्रेस की कमोबेश कोशिश यही होनी चाहिए। अखिलेश सिंह के पार्टी में शामिल होने के बाद बड़े भूमिहार नेता की जो कमी हो गई थी वो कमी भी पूरी हो जाएगी। 20 साल तक नीतीश की सियासत को चमकाने के लिए रणनीति बनाने वाले सांसद ललन सिंह के बारे में लगातार कहा जा रहा है कि इन दिनों वो कांग्रेस के लिए समीकरण बना रहे हैं... ऐसी बात है तो ये शुभ संकेत है पार्टी के लिए। पाला बदलने वाले नेताओं की आज की तारीख में कांग्रेस पहली पसंद हैं। लोकसभा टिकट न देने से नाराज दलबदल के माहिर खिलाड़ी नागमणि हों या फिर शराब के मुद्दे पर नीतीश सरकार में मंत्री पद छोड़ने वाले जमशेद अशऱफ, या अब गया के भोरे से विधायक विजय राम। इतना ही नहीं पूर्व सांसद और पूर्व विधायक तो थोक के भाव में हर हफ्ते शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस चूंकि दिल्ली से डील होने वाली पार्टी है लिहाजा हर नेता को शामिल कराने से पहले दिल्ली से हरी झंडी की जरूरत पड़ती है। इसी बीच में अगर पुराने बॉस को मालूम हो गया तो मनाने, बचाने का ऑपरेशन शुरू हो जाता है। इसके चक्कर में कांग्रेस के मिलन समारोह वाली लिस्ट और लंबी नहीं हो पाई है। खबर तो ये भी है कि लालू के दूसरे साले सुभाष यादव भी कांग्रेस की ओर टकटकी लगाये बैठे हैं.. लेकिन जब तक साधु यहां डेरा जमाये हैं तब तकउनका आना डाउटफुल लग रहा है लेकिन राजनीति में कुछ साफ साफ आप कह भी नहीं सकते। पूर्व सांसद जयप्रकाश यादव को भी भाव नहीं मिल रहा सो वो भी लालू से कन्नी काटे हुए है आश्चर्य न हो किसी दिन उनके कल्टी मारने के बारे में भी सुन सकते हैं। कहने का मतलब ये कि कांग्रेस का आधार मजबूत तो हुआ है इसमें कोई आश्चर्य तो है नहीं। वैसे भी सहरसा में राहुल गांधी की जो रैली हुई उसको देखकर उस इलाके में जेडीयू और आरजेडी दोनों के कान खड़े हो चुके हैं. पहले चरण में कोसी और पूर्णिया के जिन 47 सीटों पर चुनाव होने हैं उनमे से एनडीए के पास 29 सीटें हैं। (16 जेडीयू और 13 बीजेपी), लालू के पास 5 है तो कांग्रेस के पास 4 सीटें। मतलब थोक के भाव में खोने का आइटम यहां जेडीयू और बीजेपी के पास ही है। बिहार में कांग्रेस के नाम पर कोई बड़ा चेहरा भले न हो लेकिन अगर जातीय हिसाब से बांट दें तो... अल्पसंख्यकों के सबसे बड़े चेहरे तो खुद प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर हैं। 
राष्ट्रीय प्रवक्ता शकील अहमद, किशनगंज वाले सांसद असरारूल हक हैं। 2005 के चुनाव में जो 9 विधायक जीते थे उनमें से चार मुसलमान थे। बाद में कैसर और जमशेद अशरफ के बाद गिनती बढ़ गई। दलित चेहरे के रूप में विधायक दल के नेता अशोक राम के अलावा ताजा ताजा पार्टी में आए सुखदेव पासवान को भी गिन लीजिए। (मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष हो चुकी हैं) भूमिहार फेस वैसे तो रामजतन सिन्हा, अनिल शर्मा, महाचंद्र प्रसाद सिंह, शाही और पांडे खानदान जैसे लोग भी हैं.. लेकिन अखिलेश सिंह और ललन सिंह जैसे बड़े नाम के जुड़ने के बाद ताकत और ज्यादा बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। राजपूतों में लवली आनंद अपने आप में चेहरा है। लालू के यादव वोट में सेंधमारी के लिए कोसी, पूर्णिया में पप्पू यादव, और खुद लालू के घर वाले इलाके में साले साधु यादव। कुर्मी के वोट मिलने की गारंटी तो कांग्रेस के कोई भी बड़े नेता नहीं दे सकते लेकिन सदानंद सिंह अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को भरोसा दे रहे हैं। रही बात 6 फीसदी वोट वाले कोइरी की तो नागमणी खुद को राज्य के सबसे बड़े कोइरी नेता मानते हैं.. 6 फीसदी पर न सही जहानाबाद, औरंगाबाद, पटना में थोड़ा बहुत प्रभाव तो है ही। वैसे भी नाम तो बड़ा ही है। कमी दिखती है तो ब्राह्मण नेता की। मिथलांचल इलाके में कांग्रेस को एक बड़ा नेता चाहिए... प्रेमचंद्र मिश्रा जैसे लोग भले ही पार्टी के लिए पुराने हों ऑफिस के लिए ठीक हैं वोट मांगने के लिए नहीं कह सकते। कहने का मतलब ये कि बिहार कांग्रेस के प्रभारी मुकुल वासनिक बड़ी ही महीनी से पार्टी के लिए ऑपरेशन चला रहे हैं। बिहार में नए बाहुबलियों की पहली च्वाइस भी कांग्रेस ही है। पिछले दो हफ्ते में पटना हवाई अड्डे से लेकर पार्टी कार्यालय तक मीडिया से बात करते मुकुल वासनिक की कोई भी तस्वीर देख लीजिए, उनके आसपास खड़े लोगों को जो जानते हैं आसानी से पहचान लेंगे। मुकुल वासनिक अपने स्ट्रेटजी में सफल होते दिख रहे हैं... अभी तक अनुशासन भंग होने की कोई खबर कांग्रेस के खेमे से नहीं आई है। पुराने दिन याद कीजिए अनिल शर्मा अध्यक्ष थे और हर मीटिंग में कुछ न कुछ खरमंडल होता था। लालू और पासवान से नाता तोड़कर कांग्रेस ने सिर्फ इन दोनों की मुश्किलें नहीं बढ़ाई हैं.. धड़कन नीतीश की भी तेज है। लालू से नाता तोड़ने का फायदा ही है कि एक तीसरा मजबूत विकल्प बिहार में तैयार हो गया है। इस चुनाव में 20 से 25 सीटें भी मिल जाती है (जो कि मिल सकती है) तो सत्ता की चाबी कांग्रेस के हाथ में होगी। लेकिन सवाल ये कि क्या त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कांग्रेसी फिर लालू-पासवान से दोस्ती करेंगे। या बिहार में नीतीश के साथ कांग्रेस का नया गठबंधन बनेगा। नतीजों का इंतजार कीजिए। पहले चरण के चुनाव के बाद ही कांग्रेस की हैसियत की तस्वीर साफ हो जाएगी।

2 comments:

  1. अच्छा लेख.

    ReplyDelete
  2. But this is to be seen whether congress makes any mark with the help of borrowed and fired guns...!

    ReplyDelete