कॉमेडी शो ने बदली गालियों की तासीर !!! |
तेरी मां का साकीनाका...इन दिनों टीवी पर आने वाले कॉमेडी शो में ये गाली बड़ी हिट है. कुत्ता ...कमीना...साला...इन गालियों में अब वो बात नहीं रह गई है. न बोलने वाले को मजा आता है और ना ही सुनने वाले को इसलिए अब नई-नई गालियां बन रही हैं. या फिर ये कहा जा सकता है कि बोलचाल वाली गंभीर गालियों में बदलाव किया जा रहा है. गालियों में ह्यूमर ठूंसा जा रहा है... इससे गालियों की गंभीरता तो कम हो रही है. (ये चिंता का विषय हो सकता है) लेकिन इन गालियों को बोल-सुनकर बड़ा मज़ा आता है. (ऐसा टुच्चे लोगों का मानना है.) ये गालियां जुबान पर भी उतनी ही चढ़ती हैं और इसे खुलेआम बोल भी सकते हैं.
अब क्या किया जाए. लोगों को मजा भी इसी में आता है. आखिर कॉमेडी शो में ऐसे ही तो शामिल नहीं किया गया. कॉमेडी वाले भी अपने शो के लिए खूब मेहनत करते हैं. किस बात पर हंसी आएगी. और कहां पंच मारना है, इसके लिए खूब माथापच्ची की जाती है, तब जाकर ऐसी गालियाँ निकलती हैं जिसका सब मिल बैठ कर मजा लेते हैं. अब लोगों को साफ-सुथरे जोक्स पर हंसी ही कहां आती है. तो क्या किया जाए...इसलिए उनकी भी मजबूरी है... अब तो बिना नॉनवेज के बात ही नहीं बनती. लोगों का टेस्ट बदल गया है फिर चाहे बात टेलीविजन की हो या सिनेमा की.
चतुर के ' बलात्कार ' ने तो ' चमत्कार ' कर दिया |
अब अगर आपको कहा जाए कि ब्लॉकबस्टर फिल्म थ्री इडियट्स के सबसे यादागार सीन के बारे में बताएं तो शर्तिया आप चतुर के चमत्कार ( टुच्चे लोग चमत्कार की जगह बलात्कार कह सकते हैं) वाला सीन ही कहेंगे. जरा सोचिए... वो सीन कहां से वेज था... उसमें तो नॉनवेज की भरमार थी... चतुर जी चमत्कार के बदले बलात्कार करते रहे और हम दिल खोलकर हंसते रहे. हंसते हंसते पेट में बल पड़ गए....अंकल आंटी साथ में हंस रहे थे....और उनके बच्चे भी. फिर चतुर जी ने मंत्री जी के धन के बदले प्रिसिंपल के हाथों में कुछ और ही दे दिया...(ये बात टुच्चे लोगों को भी बोलने में बुरा लगेगी...) लेकिन बात मजेदार लगी...लोग दिल खोलकर हंसे.... पेट दुखने लगे...चतुर पूरे भाषण का बलात्कार करके चमत्कार कर गए.
दबंग भी बड़ी हिट रही...चुलबुल पाण्डेय को लोगों ने खूब पसंद किया. अब जरा फिल्म के फेमस डायलॉग के बारे में आपसे पूछा जाए तो आप क्या कहेंगे ? एक डायलॉग बड़ा हिट रहा.... तेरे बदन में इतने छेद करूंगा कि भूल जाएगा....कि सांस कहां से लूं और पादूं कहां से....( बिना ये शब्द लिखे मजा नहीं आ रहा है...टुच्चेपन के लिए माफी चाहूंगा !!!) वाह...वाह...क्या डायलॉग है....फिर मुन्नी भी तो झंडूबाम हुई थी... अपने डॉर्लिंग के लिए बेचारी ने कैसे-कैसे सितम सहे. बदनाम तो हुई ही सिनेमाहॉल और झंडूबाम भी हो गईं.(टुच्चे लोगों के लिए ये शब्द पसंदीदा हो सकता है...ऐसी मेरी राय है...) फिल्म हिट हुई तो बड़ा बवाल हुआ. झंडुबाम वालों ने मुकदमा भी किया. मामला कॉपीराइट का था. सिर दर्द बाम वाली कंपनी के लिए मल्लिका झंडुबाम बनने को तैयार हुई... तब जाकर मामला सुलझा. वैसे मुकदमा उस क्रिएटिव दिमाग वाले को भी करना था...जिसने बोलचाल की भाषा में इस महान शब्द को शामिल किया. उसके झंडुपने पर चुलबुल पाण्डेय मजे करके चला गया.
एक बाम ने कई किये काम...झंडू बाम... |
और तो और रियलिस्टिक सिनेमा की बात ही अलग है....ऐसी फिल्मों में तो सीधे-सीधे गंभीर गालियों को ही शामिल कर लिया जाता है. रियल दिखाने के लिए इतना तो करना ही पड़ता है. इसके बिना मजा भी नहीं आता. और इसके लिए सेंसर बोर्ड यू/ए या ए सर्टिफिकेट भी दे तो क्या फर्क पड़ता है...लोग सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट देखकर तो फिल्में देखने जाते नहीं. इश्किया में नसीरुद्दीन शाह गांव में नदी किनारे के नजारे का जो वर्णन करते हैं....तो मजा आ जाता है.
हाल ये है कि कमीना तो कोई गाली ही नहीं रही...विशाल भारद्वाज ने इस शब्द की इतनी ऐसी की तैसी की है कि शब्द के मायने ही बदल गए. इस शब्द का ऐसा ट्रांसफॉर्मेंशन किया कि शब्द में समाहित गाली की पूरी गंभीरता ही खत्म हो गई. फिल्म रिलीज होने के वक्त हाल ये था कि अगर आप किसी को कमीना कह देते तो वो खुद को शाहिद कपूर समझने लगता, साथ में डायलॉग भी मार देता... दुनिया बड़ी कुत्ती चीज है और मैं बड़ा कमीना...हा...हा...हा...
गालियों की घटती गंभीरता चिंता का विषय है और सबसे बड़ी बात ये है कि अपने फायदे के लिए सबसे ज्यादा क्रिएटिव लोगों ने ही उसकी ऐसी की तैसी की है...अब गालियां सुनकर भी हंसी आने लगे...तो आदमी अपनी भड़ास कैसे निकालेगा...गंभीर गालियों के साथ ये खिलवाड़ ठीक नहीं है.