Monday, November 29, 2010

कब गंभीर होंगी भोजपुरी फिल्में..?

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ  संवाददाता हैं )
पिछले साल नबंवर में गोवा में हुए भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भोजपुरी फिल्मों की गैरमौजूदगी पर पत्रकार बिरादरी ने कुछ सवालात उठाए थे। आयोजकों के जवाब से और लोगों की राय से जो बात सामने आई कि ज़्यादातर लोग भोजपुरी फिल्मों को समारोह के लायक नहीं मानते। मलयालम, तमिल और कन्नड़ सिनेमा के बेहतर प्रतिनिधित्व के बरअक्स भोजपुरी फिल्मों का मौजूदा स्तर थोड़ा हताश करने वाला है।

भारतीय सिनेमा के क्षितिज पर भोजपुरी फिल्मों के उदय के दूसरे चरण को देखकर सुखद आश्चर्य होता है। ससुरा बड़ा पईसावाला, दारोगाबाबू, आईलवयू से चलकर भोजपुरी फिल्मों ने गंगा और ऐसी ही फिल्मों से अलग मुकाम हासिल कर लिया है। लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर क्या वजह रही कि संघर्षरत लोकगायक मनोज तिवारी अचानक सुपरस्टार बन जाते हैं। अमिताभ, नगमा, अजय देवगन और  जैकी श्रोफ जैसे कलाकार भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए तैयार है।



निकलना होगा हंसी-मजाक से बाहर 
जाहिर है, काल के स्तर पर बेहद निचले दर्जे का होने पर भी भोजपुरी का बेहतरीन बिज़नेस नामी बनियों को इस भाषा तक खींच लाया है। 30 लाख की लागत से बनी मनोज तिवारी की ससुरा बड़ा पईसावाला जैसी सेक्स कॉमेडी ने 15 करोड़ का बिज़नेस किया और उनकी ही दूसरी फिल्म ‘दारोगा बाबू आईलवयू’ ने करोड़ की कमाई की।

भोजपुरी फिल्मों में अब पुराने बॉलीवुड हिट फिल्मों के रीमेक का दौर आ रहा है। शोले,  नमक हलाल जैसी कई फिल्मों का भोजपुरीकरण किया जा रहा है। स्पाइडरमैन जैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म के मकड़मानव के रूप में रिलीज़ होना भोजपुरी के बाज़ार की ताकत का इज़हार ही तो है। नमक हलाल भी बबुआ खिलाड़ीददवा अनाड़ी के नाम से तैयार की जा रही है।

यहां तक सब कुछ बेहतर है। हिंदी फिल्मों का हिंदी पट्टीवाला भदेस दर्शक भोजपुरी फिल्मों की ओर शिफ्ट हो गया है। ससुरा... और दारोगा बाबू.. जैसी छोटे बजट की फिल्में उस वक्त रिलीज हुईं जब बॉलीवुड की ए-ग्रेड की फिल्में अभिषेक-अमिताभ-रानी की बंटी और बबली और आमिर खान की मंगल पांडे-द राइजिंग के कारोबार पर बढ़त पा ली थी। लेकिन, लगता है कि अब भोजपुरी फिल्मों के जागने का वक्त आ गया है। द्विअर्थी संवादों, खराब संपादनऔर कहानी में लौंडा नाच जैसी चीजें दर्शक को सिनेमाहॉल तक खींच लाने के लिए ज़रूरी तो है, लेकिन किस्सागोई की जो शानदार परंपरा बंगला, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा में है, गंभीर दर्शक भोजपुरी में भी वैसा स्तर देखने की उम्मीद में है।

क्या ये वक्त नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा थोड़ा गंभीर होकर सोचे..? आखिर हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने भोजपुरी की ओर क्यों रुख किया है। जा़हिर हैकारपोरेट, कभी खुशी कभी ग़म, कुछ-कुछ होता है या ऐसी ही बड़ी तादाद में बन रही फिल्मों से हिंदी पट्टी का गंवई दर्शक जुड़ नहीं पा रहा था। दरअसलये फिल्में बनी  भी  गंवई  दर्शकों  के लिए  नहीं  थी।

ये तो बनी ही थीं, सात समुंदर पार बसे अप्रवासी दर्शकों के लिए। पहले भी फिल्मों की तड़क-भड़क और ग्लैमर में गांव नकली था। नकली किसान और गांव की गोरी भी नकली। ऐसे में भोजपुरी फिल्मों ताज़ा हवा के झोंके की तरह नमूदार हुईँ। ससुरा.. में ही देखें तो असली परिवेश में असली चौकी, लोटे, और घटनाओं के साथ कहानी को फिल्माया गया है। ऐसे में दर्शक सीधे अपने आसपास की चीज को परदे पर देखकर सम्मोहित हो गया। इन फिल्मों में वह सब था, जो मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों से गायब हो गया था।

लेकिन बीतते वक्त के साथ भोजपुरी फिल्मों में ताज़ा बयार बहाने की उम्मीद अब धूमिल पड़ती जा रहा है। इन फिल्मों में भी वही सब - यानी मारधाड़रोमांस, फूहड़ हास्य और बेढभ गाने हैं- जो हिंदी फिल्मों में देख-देखकर दर्शक ऊब गया था और उसी वजह से भोजपुरी की ओर शिफ्ट हुआ था। ऐसे में भोजपुरी सिनेमा को ज़रूर तमिल सिनेमा से सबक सीखने की ज़रूरत है।

कुछ साल पहले तक तमिल सिनेमा भी कथानक के स्तर पर उसी दौर से गुजर रहा था, जहां अभी भोजपुरी का सिनेमा खड़ा है। लेकिन हाल में युवा निर्देशकों की टीम ने मणिरत्नम की राह चलते हुए एक नई ज़मीन फोड़ी है। तमिल में ‘कादल’ के बाद ‘कल्लूरी’ इस साल की कामयाब फिल्म साबित हुई है। दरअसल, तमिल सिनेमा में एक ऩई धारा पैदा हुई है।

भोजपुरी सुपरस्टार मनोज तिवारी 
समकालीन तमिल सिनेमा में आ रहे शांत लेकिन रेखांकित किए जाने लायक बदलाव की कहानी बयां कर रहा है। यह धारा एक नए बौद्धिक, यथार्थवादी और मजबूत पटकथा वाली किस्सागोई वाली फिल्मों की है। फिल्म में चरित्रों, प्लॉट और संवादों को अचूक तरीके से पिरोया गया है।

ये चरित्र छोटे शहरों के होने पर भी हीनभावना से ग्रस्त नहीं है और अपने खांटी गंवईपन को संवेदनाओं के साथ उघाड़ते हैं। फिल्म के सारे चरित्र बिलाशक दक्षिण भारतीय दिखते हैं। ज़ाहिर है, उन्हें दिखना भी चाहिए। फ्रेम में दिख रहा हर चेहरा असली दिखता है। पात्रों के चेहरे पर जबरन मेकअप पोतकर सिनेमाई दिखाने की कोई कोशिश नहीं है।


क्या सवाल महज इन फिल्मों की कला, उम्दा निर्देशन या उत्कृष्ट कहानी हीहै..। जी नहीं, इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई भी की है। कल्लूरी जैसी फिल्में अपने कम बजट और यथार्थवाद के बावजूद बड़े सितारे वाले फिल्मों की बनिस्बत ज़्यादा मनोरंजक साबित हो रही हैं। दरअसल, तमिल सिनेमा की इस नई धारा ने व्यावसायिक सिनेमा की ऊर्जा और मनोरंजन को कला सिनेमा की जटिलता और संवेदना में खूबसूरती से पिरो दिया है। इस धारा की झलक तो मणिरत्नम की ‘नायकन’ और ‘आयिता इझूथु’ में ही मिल गई थी,  लेकिन ऩई पीढ़ी के फिल्मकारों तक यह संदेश पहुंचने में एक दशक से ज़्यादा का वक्त लग गया।


इन फिल्मों के साथ ही तमिल सिनेमा के एक नए दर्शक वर्ग, युवा दर्शकों का उदय हुआ है। जो नई चीज़ देखना पसंद कर रहा है। पिछली दीवाली पर धड़ाके के साथ रिलीज़ हुई आझागिया तमिल मागन, वोल और माचाकाईन जैसी व्यावसायिक बड़े बजट की फिल्में दर्शकों के इस वर्ग को मनोरंजक नहीं लगता। दरअसल, दर्शकों के इस वर्ग को नई धारा के खोजपूर्ण सिनेमा का चस्का लग गया है। तमिल फिल्मों की इस नई धारा की एक और खासियत है- शैली। हर निर्देशक का अंदाज-ए-बयां ज़ुदा है। इनमें गाने सीमित है, आम तौर पर ये गाने भी पृष्ठभूमि में होते हैं।


छोटी अवधि की इन फिल्मों में कॉमेडी के लिए भी अलग से समांतर कथा नहीं चल रही होती  बल्कि हास्य को कथानक के भीतर से ही सहज स्थितियों से पैदा किया जा रहा है। ज़्यादातर फिल्मों के विषय बारीकी से परखे हुए होते हैं- गंवई कहानियों का बारीक ऑब्जरवेशन। तमिल सिनेमा की इस नई बयार के ज्यादातर चरित्रों की जड़े परिवार,  संस्कृतियों और परंपरा में गहरे धंसी हैं। नए तमिल निर्देशकों ने एक ऐसे दर्शक वर्ग के बारे में संकेत दे दिया- जो चरित्रप्रधान,  अच्छी पटकथा वाले कम बजट की फिल्मों को सर आंखों पर बैठाने के लिए तैयार है।


तो सवाल ये है कि क्या भोजपुरी दर्शक अच्छी फिल्मों से उदासीन ही रहना चाहते हैं या फिर उसे ठीक फिल्में मिल नहीं पा रही है। कैमरे की भाषा को और अच्छा किया जा सकने के ढेरों संभावना भोजपुरी में मौजूद हैं। स्थानीय मुद्दों पर बात करने के लिए ज़रूरी नहीं कि हर फिल्म में होली का फूहड़ गीत या लौंडा नाच डाला जाए। भोजपुरी फिल्मों के प्रति अश्लील होने की मानसिकता बन चुकी है, क्या वह बदल नहीं सकती। क्या भोजपुरी निर्देशकों में कोई शक्तिवेल, कोई हृतिक घटक, सत्यजीत रे या अडूर नहीं।
Related Posts :
फ़िल्मी सफर : भारत से इंडिया तक..

Sunday, November 28, 2010

अब देना होगा नीतीश को असली इम्तिहान

मनोज मुकुल  
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और स्टार न्यूज़ में एसोसिएट सीनियर प्रोडयूसर हैं)
विकास, विकास और विकास। बिहार की नई पीढ़ी विकास का नाम भूल चुकी थी। लेकिन पिछले पांच सालों के दौरान उसने जो कुछ देखा, सुना उसका नतीजा ये है कि आज देश में विकास की बात हो रही है और लोग बिहार का नाम ले रहे हैं। नीतीश की जीत के कई मायने है। लेकिन अब सबसे बड़ी चुनौती है लोगों के लिए रोजगार के मौके पैदा करना। बिहार में बंद हो चुके उद्योग-धंधे को फिर से पटरी पर लाना। बिहार से बाहर गए लोगों को बिहार वापस लाना। अब नीतीश के पास इसके बारे में क्या मॉडल है इसका खुलासा अभी न तो बिहार के सामने हुआ है और ना ही देश के सामने। बिहार की सियासत को बिरादरी की वजह से लोग ज्यादा जानते थे। इस बार भी बिरादरी को कम करके किसी ने नहीं आंका था लेकिन नीतीश से आस लगाए हर धर्म, जाति के लोगों ने बिरादरी को बाय-बाय कर विकास को गले लगाया। कारण था उम्मीद। लोगों ने नीतीश कुमार में अपनी खुशहाली की तस्वीर देखी। लिहाजा नीतीश को दिल खोलकर काम करने का मौका दिया है।

जल्दी खत्म होगा हनीमून पीरियड 
पिछले पांच साल की तुलना लालू-राबड़ी के 15 साल से होती रही, लिहाजा नीतीश के पांच साल भारी पड़े। अब जब नीतीश की तुलना उनके अपने ही पांच साल से होनी है लिहाजा चुनौती बड़ी है। बिहार में रहने वाले लोग अब चमचमाती सड़कों के आदी हो चुके हैं। उनके लिए चमचमाती सड़कें,  स्कूल में समय पर शिक्षकों का आना,  अस्पताल में डॉक्टरों का समय से पहुंचना धीरे-धीरे पुरानी बातें होती चली जाएंगी। बिहार से बाहर रहने वाले लोग साल में त्योहार-शादी ब्याह के मौके पर एकाध बार बिहार जाते हैं लिहाजा उनके लिए चमचमाती सड़कें और वहां का बदला माहौल जरूर नया होता है लेकिन जो लोग वहीं रहते हैं उनके लिए ये बातें नई नहीं होंगी। लिहाजा अब उनकी नई अपेक्षाओं पर खुद को साबित करना नीतीश के लिए चुनौती का काम होगा। 

बिहार की पुरानी सड़कें चमचमा जरूर रही है लेकिन ट्रैफिक एक बड़ी समस्या बन गया है। चाहे पटना हो या मुजफ्फरपुर। छपरा,  दरभंगा और जहानाबाद, हर शहर और शहर के बाहर व्यस्त सड़कों पर ट्रैफिक का बोझ बढ़ता जा रहा है। कारण भी है बिहार के लोगों की परचेंजिंग कैपेसिटी जिस अनुपात में बढ़ रही उस अनुपात में कोई ग्रेटर पटना या ग्रेटर दरभंगा टाइप नया कुछ नहीं हो रहा है और फोरलेन या सिक्सलेन का मामला हर जगह के लिए है भी नहीं। इस समस्या से निपटने के लिए भी कुछ जल्दी ही करना होगा। 

सेंट्रल यूनिवर्सिटी,  आईआईटी,  आईआईएम टाइप आइटम भी 9  करोड़ की आबादी वाले बिहार को चाहिए। कब तक यहां के लड़के टपला खाते फिरेंगे? जात-पात के बंधन से ऊपर उठकर लोगों ने मौका दिया है तो हर लेवल पर मुस्तैदी से खड़ा होना होगा। 

विरोधी तो विरोधी समर्थक भी कहते हैं कि नीतीश के कार्यकाल में अफसरशाही को मजबूती मिली है और घूसखोरी-भ्रष्टाचार को बढ़ावा। सच्चाई भी है। लूटने की आदत पहले से पड़ी हुई है जिसे ठीक करना होगा। ट्रांसफर-पोस्टिंग और छोटी-मोटी बहालियों में भी लाखों का खेल रुका नहीं है। अंतर इतना हुआ कि पहले टेबल के ऊपर से होता था अभी टेबल के नीचे से हो रहा है।  इस चीज को सुधारने का मौका बिहार के लोगों ने दिया है। 

बढ़ गयी हैं बिहार के लोगों की उम्मीदें 
अपराध पूरी तरह काबू में नहीं आ सकता, इसे हर कोई मानता है लेकिन अपराधियों को जिनका आशीर्वाद मिला है वैसे लोगों पर कंट्रोल कीजिए ताकि समाज खुशी से कमा सके, खा सके। लोग खुश रहेंगे और आप खुश रहेंगे। लोगों को कष्ट हुआ तो आप भी चैन से सो नहीं पाएंगे,  उन लोगों की तरह। 

फिलहाल चुनौतियां पहले से ज्यादा है। एक बार साबित हो चुके इंसान को खुद को साबित करना है जो कर दिया उसको भी साथ ले चलना है। और कुछ करने के लिए पूरा वक्त भी है। सत्ता के अहंकार का वक्त नहीं है। फिलवक्त माहौल को और ठीक करने का है। और, हां किसी और के लिए बिहार में फिलहाल कोई स्कोप नहीं है। ऊपर से इतिहास गवाह है बिहार की धरती पर उठकर जो गिर गया, दोबारा कभी नहीं उठा है। मौका बेहतर है सेवा करके साबित कीजिए । इस बार सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाला वोटर न तो कुर्मी था न कोइरी, न कोई राजपूत, भूमिहार,  वैश्य,  मुसलमान या फिर यादव,  पूरे बिहार ने चुना है अब बिहार को यकीन दिलाइए।

Saturday, November 27, 2010

मक्के का महल मिचेल कॉर्न पैलेस

मुकेश झा 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र और प्रोपर्टी एक्सपर्ट पत्रिका में सीनियर सब एडिटर हैं.) 
द मिचेल कॉर्न पैलेस (The Mitchell Corn Palace)

एक परिचय
स्थान - 604, नॉर्थ मेन स्ट्रीट, मिचेल, साऊथ डकोटा, यूएसए
स्थिति – पूरा तैयार
निर्माण वर्ष -1921 (गुम्बद और मीनार को वर्ष 1937 में जोड़ा गया)
उपयोग -  बहुउद्देशीय रूप में 
शिखर - 26.2 मीटर
छत - 20.7 मीटर
फ्लोर्स की संख्या - 2
फ्लोर एरिया - 4042.2 स्क्वेयर मीटर
आर्किटेक्ट कंपनी - Rapp & Rapp

महल का भव्य नज़ारा 
मकई या कॉर्न भी इमारत की इबारत लिख चुका है। वह भी प्रसिद्ध स्थानों पर। यह पढ़कर भले ही आप कुछ देर के लिए सोच में पड़ जाएं लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिका के मिचेल में इसके सहारे महल बनाया गया है। यह जगह अमेरिका के दक्षिण डकोटा प्रान्त में है। मिचेल अमेरिका ही नहीं पूरे विश्व में प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में एक है। इस पर्यटन स्थल को द मिचेल कॉर्न पैलेस चार चांद लगा रहा है। मिचेल में प्रत्येक साल 5 लाख से ज्यादा सैलानी आते हैं। इस महल को नया रूप क्रोप आर्ट के सहारे दिया गया है। इसके भित्तिचित्र और डिज़ाइन को कॉर्न और अन्य अनाजों से सुन्दर रूप में ढाला गया है। 



मक्के की नक्काशीनुमा कारीगरी 
<यह स्थान कई महत्वपूर्ण गेम्स का मेजबानी भी कर चुका है। खासकर, डकोटा वेसलीयेन यूनिवर्सिटी ((Dakota Wesleyan University) और मिचेल हाईस्कूल करनल्स (Mitchell High School Kernels) के बीच बॉस्केट बॉल के मैच के समय इसकी लोकप्रियता का ग्राफ काफी ऊंचा हो चला था। मिचेल पेलैस का उद्धाटन वर्ष 1892 में किया गया था। इसका निर्माण उस समय लोगों को यहां पर बसने के लिए प्रोत्साहित करने का एक तरीका था। चूंकि दक्षिणी डकोटा में काफी उपजाऊ भूमि है और यहां पर अनाज उत्पादन काफी बेहतर होता है। इस महल को कॉर्न से बनाने के पीछे शायद यही कॉन्सेप्ट रहा होगा कि यह स्थान मानव बस्ती के लिए बेहतर है। हालांकि शुरुआती दौर में यह लकड़ीनुमा किले के रूप में था, जिसे वर्ष 1904-05 में बनाया गया। इस लकड़ीनुमा किले को कालान्तर में कॉर्न पैलेस के रूप में बदला गया। फिर वर्ष 1921 में इसे फिर से बनाया गया, जिसे शिकागो की प्रसिद्ध कंपनी रैप एंड रैप ने तैयार किया। इस महल में वर्ष 1937 में गुम्बद और मीनार की संरचना को जोड़ा  गए। कॉर्न पैलेस का शिखर 26.2 मीटर है। इसकी छत करीब 20.7 मीटर और फ्लोर्स की संख्या 2  है। 

मक्के से बने सुन्दर चित्र 
महल में फ्लोर एरिया 4042.2 स्क्वेयर मीटर के क्षेत्र में फैला है। प्रत्येक साल इसके रूप और रंग में कुछ न कुछ खास प्रकार के परिवर्तन किए जाते हैं। इस परिवर्तन में हर बार कुछ न कुछ खास थीम ज़रूर होता है। इस थीम को यहां के स्थानीय कलाकार तैयार करते हैं। वर्ष 1948  से लेकर 1971 तक इसके पैनल (फलक) की संरचना को जीवंन स्वरूप ऑस्कर हो ( (Oscar Howe) नामक कलाकार ने तैयार किया था। मिचेल कॉर्न पैलेस की दीवारों को अद्भुत रूप में कैलविन शुल्ट्ज़ ने 1977 से लेकर 2002 तक तैयार किया था। वर्ष 2003 में इसकी दीवारों की सजावट को शर्री रांस्डेल्स ने जीवंत रूप दिया। इस स्थान की लोकप्रियता का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा यहां पर आ चुके हैं। प्रत्येक साल द मिचेल कॉर्न पैलेस सजाने में करीब 1.5 लाख डॉलर का खर्च होता है।


Realated Posts : 

न्यूयॉर्क के होटल फोर सीज़न्स की एक रात मतलब 16 लाख

Thursday, November 25, 2010

26/11 : हर दिल ज़ख़्मी, हर चेहरे पर दर्द...

एक-एक आंसू की कीमत देनी होगी दहशतगर्दों को 
रात लगभग 10.30 बजे का वक्त था। मैं कानपुर के जिस अखबार में काम करता था, उसके डाक संस्करण समय से छूट गए थे। प्रिंटिंग शुरू होने वाली थी। अपना पेज टाइम से छोड़ने के बाद मैं कुर्सी पर बैठा एक हाथ से एजेंसी का वायर चेक कर रहा था। अचानक एजेंसी का फ्लैश आया,  फायरिंग आउटसाइड छत्रपति शिवाजी टर्मिनस इन मुंबई। मैंने इसे अंडरवर्ल्ड के लोगों की खुराफात मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया। 10 मिनट भी नहीं बीता कि एजेंसी ने तड़ातड़ मुंबई में कई जगहों पर फायरिंग,  कई लोगों के मरने,  ग्रेनेड चलने जैसे फ्लैश देने शुरू कर दिए। पहले पेज के लोग अपना टिफिन खोलने जा रहे थे लेकिन एजेंसी के फ्लैश देख सबने टिफिन बंद कर दिए। टीवी पर न्यूज़ चैनल लगाया गया तो सबकी आंखें फटी रह गईं। हमारी अपनी मुंबई में ताबड़तोड़ बम और गोलियां चल रही थीं। जंग का मैदान बन गई थी, सिटी ऑफ ड्रीम्स। मेरे ऑफिस में हर कोई टीवी के पास खड़ा हो गया। डाक संस्करणों की प्रिंटिंग रोक दी गई। मुंबई ब्यूरो और दिल्ली से पहली खबर आने का इंतजार जो था। ये काली रात 26 नवम्बर 2008 की थी। 

तभी मेरा दिल-दिमाग पलभर के लिए बंद सा हो गया। शाम को ही तो पापा से बात हुई थी। उन्होंने कहा था कि आज गेटवे ऑफ इंडिया और मरीन ड्राइव जाने का प्रोग्राम है, चाचाजी के साथ। पापा-मम्मी एक शादी में शामिल होने कानपुर से मुंबई गए थे। मैंने पॉकेट से अपना मोबाइल निकाला और पापा का नंबर मिलाने लगा। अरे...पापा का तो नंबर ही मुझे याद नहीं आ रहा। आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था। क्या करूं? बड़ी मुश्किल से पापा का मोबाइल नंबर सर्च किया और डायल बटन दबाया। ये क्या....मोबाइल की घंटी बजी लेकिन फोन नहीं उठा। मैं पागल सा हो गया। तब तक टीवी और एजेंसी ने कन्फर्म कर दिया था कि मुंबई पर आतंकवादियों ने हमला किया है।

जो भी हो जीतती तो जिंदगी ही है 
अनहोनी की आशंका से दिल कांप उठा। मेरी आंखें भर आईं....होंठ थरथराने लगे। मन में सवाल,  फोन क्यों नहीं उठा। हे भगवान...ये क्या हो रहा है? हमारी छोटी सी हैप्पी फैमिली! थोड़ी हिम्मत दिखाई और दोबारा पापा का मोबाइल नंबर डायल किया। कुछ सेकेंड तक घंटी बजी और फोन उठा। ये आवाज़ पापा की थी। मन ही मन भगवान का शुक्रिया अदा किया ! पापा से पूछा,  आप कहां हो?  कैसे हो और चोट तो नहीं लगी?  मम्मी कहां हैं? मेरे नॉन स्टॉप सवालों से पापा सब कुछ समझ चुके थे। बोले, हम मरीन ड्राइव के पास थे, तभी अचानक ताबड़तोड़ गोलियां चलने लगीं। हम ठीक हैं। कोई चोट नहीं लगी। तुम्हारी मम्मी भी एकदम ठीक हैं। पापा को ये बोलते देख मम्मी ने तेज़ आवाज़ में कहा, हम ठीक हैं बेटा। सबका हाल जानने के बाद पापा ने हमें बताया कि मरीन ड्राइव के पास अचानक ज़बरदस्त फायरिंग की आवाज़ें आने लगीं। हाथों में मशीनगन लेकर मुंबई पुलिस आई और घूमते-फिरते लोगों को तुरंत वहां से अपने घरों को चले जाने को कहा। लोगों में हल्की भगदड़ सी मची लेकिन सब लोग डरे-सहमे अपने घर लौट गए। बेहद तेज़ कदमों से। मुंबई पुलिस के जवानों ने चारों तरफ से मोर्चा संभाल लिया था। ताकि मरीन ड्राइव पर मौजूद लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। तसल्ली होने के बाद मैंने फोन काटा और अपने बड़े भाई को घर पर फोन मिलाया। मम्मी-पापा की सलामती की खबर सुनकर उनका गला भर गया। कुछ बोल ही नहीं पाए। हम सबने फिर से भगवान का शुक्रिया अदा किया।
इतनी शक्ति हमें देना दाता....


ये तो हमारी खुशकिस्मती थी कि सब ठीक था लेकिन 183 लोग इतने खुशकिस्मत नहीं थे। उनके परिवार उजड़ गए। बच्चे अनाथ हो गए। बूढ़े मां-बाप अकेले रह गए...जवान बेटा चला गया। बूढ़े पिता ने जवान बेटे की अर्थी को कंधा दिया। हम मुंबई हमले में मारे गए लोगों के दर्द को गहराई से समझ सकते हैं। कुछ दिन बाद कानपुर में मुंबई हमले से नाराज़ लोगों ने सड़क पर एक बड़ी सी होर्डिंग लगाई थी। उसमें मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था, राज ठाकरे गधा है...मुंबई के साथ पूरा भारत खड़ा है।

( लेखक प्रवीन मोहता आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं )

Wednesday, November 24, 2010

A Lesson For India From Bihar

RAJIV KUMAR
(Writer is IIMC alumnus and presently working in TV Today Group ( Headlines Today)
His nickname is Munna, he is an engineering graduate and a teetotaller and today the 59-year-old Nitish Kumar is Bihar's man of the moment. But how he did the magic! Let's decipher..!
Bihar has shown the way, Development can fetch you votes as well.

It is high time leaders doing identity/ religion based (RJD, BJP) politics should re-think & re-invent their ideology.

Time to party for Nitish
Nitish Kumar successfully eroded the basis of the RJD’s electoral advantage by, first, winning over a section of the Muslims and, secondly, by retaining the support of the upper castes as well via the BJP. It was clever tactics where the BJP was made to act strictly in accordance with the script written by Nitish Kumar by excluding the minority-baiters and also keeping the upper castes on board.

3 cards, which worked for Nitish were Women empowerment, MBC & good law and order.

There is definitely dent in Lalu’s Muslim-Yadav equation. Nitish lured Muslim at least towards JD(U) candidate & softened their stand towards the whole NDA.

Lalu Yadav lost his base
Nitish Kumar made it abundantly clear that he has nothing to do with its pro-Hindu agenda. Nitish Kumar ensured that Bihar remained riot-free throughout the last five years. And Bhagalpur riot convictions was a feather in his cap.

Lalu-Paswan failed to see writing on the wall. They failed to see Muslim voters have evolved since Ayodhya. They know what is good for them.

How are you Rahul Baba?
It was election based on Imaginary vs. Real issues. On the one hand Nitish was ready with his implementation card at the same time RJD & INC were scaring minorities with Gujarat (Modi) ghost. Issues in Gujarat found no taker in Bihar.

Congress\ Rahul Gandhi's claim that Nitish misused funds sent for Bihar hurt the Bihari sensibilities. Nitish's rebuttal found takers as he said it's not Centre's\Congress's money.

Nitish evoked Bihari pride\ sub-nationalism in place of Lalu's parochial rant for Backward Caste & for M-Y.


No taker for Dynasty politics….Rabri, Sadhu, Subhash all out.