Friday, December 31, 2010

हमारी प्यारी चवन्नी!!!

विवेक आनंद 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं)
मेरी प्यारी चवन्नी...सरकार ने तुम्हें गैरज़रूरी मान लिया है कुछ महीनों बाद तुम सिर्फ यादों में रह जाओगी किसी संग्रहालय की सुनहरे कब्र में दफना दी जाओगी  लोग आएंगे और तुम्हें याद करेंगे कि कैसे-किसी वक्त तुम्हारी भी हुकूमत चलती थीतुम्हारी कीमत इतनी थी कि राजा लोग भी दिल मांगने के लिए तुम्हें उछालते थे तुम्हारी जवानी वाले उन दिनों के बारे में मुझे हाल ही में पता चला, जब मैंने वो गाना सुना कि ‘राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के’...कैसा सुनहरा वक्त रहा होगा वो जब तुम्हारे बदले दिल का सौदा किया जाता रहा होगा एकबारगी अपनी हथेलियों पर तुम्हारे नर्म स्पर्श की याद ताजा हो आई बड़े बुजुर्गो से भी सुना था तुम्हारे यौवन के दिनों के बारे में, जब तुम्हारे बदले में एक सेर घी मिला करता था और एक थान कपड़ा भी मिल जाता था दादी अपने कितने ही किस्सों में तुम्हारा जिक्र करती थीं कैसी चमक आ जाती थी उनके चेहरे पर जब भी वो तुम्हारे बारे में बतातीं... तुम्हारी ढलती उम्र की बड़ी फिक्र थी उन्हें और मैं तो बस उनकी बातें हैरत से सुना करता थासोचा करता...अच्छा... तुम कभी इतनी भी जवान थीं  

अब यादों में रह जाएगी चवन्नी 
बचपन की कितनी ही यादें तुम्हारे साथ जुड़ी हैं तुम मेरे पास रहो या ना रहो, तुम्हारी वो यादें तो हमेशा ही  मेरे साथ रहेंगी दादी कहती थीं कि बचपन से ही मैं तुम्हारे मोहपाश में बंधा था तुम्हारा सुनहरा रंग मुझे बहुत पसंद था उस वक्त मुझे कहां समझ थी कि मैं तुम्हारा मोल समझ पाता दादी की हथेलियों पर 10-20 पैसों के बीच तुम शरमाई से पड़ी रहती...और मैं तुम्हें झट से उठा लेता... तुम्हारे स्नेह बंधन में ऐसा बंधा था कि दादी को डर लगा रहता... कि मैं तुम्हें निगल ना लूं

जब तुम्हारा मोल समझने की उम्र हुई,  तब भी तुम मेरे सबसे करीब थी मैं तो इतने भर में खुश रहता था कि तुम मुझे पांच खट्ठी-मीठी गोलियां दे जाती हो तुम्हारे बदले मुझे सुनहरे रैपर वाली एक बड़ी टॉफी मिल जाती है, जो उस वक्त बड़ी मुश्किल से पूरे मुंह में आ पाती थीवो  खट्टा-मीठा चूरन मुझे कितना पसंद था एक पूरा का पूरा पैकेट तुम दे जाती थी कितने प्यारे दिन थे वो तुम्हारे... और मेरे भी स्कूल के गेट एक बूढ़े बाबा बैठा करते थे अपनी टोकरी में ताज़े खीरे-ककड़ी और कागजी नींबू लेकर मैं अक्सर तुम्हारे बदले में खीरा या ककड़ी लेता था रिक्शे पर बैठकर स्कूल से घर की पांच किलोमीटर की दूरी तय करता थाअपनी बहनों के साथ रास्ते भर में भी सारे खीरे औऱ ककड़ी खत्म नहीं कर पाता था जेबखर्च में मम्मी तुम्हें ही दिया करती थीं और मुझे तुमसे ज्यादा कुछ चाहिए भी नहीं था क्या-क्या याद करूं तुम्हारे बारे में अपने पेंसिल बॉक्स में कितना सहेज कर रखता था तुम्हें...और मेरी गुल्लक में तो सिर्फ तुम ही रहती थी
जैसे-जैसे बड़ा होता गया, दुनियादारी की समझ मुझमें भी ठूसी गई तुम्हारी ढलती उम्र की मुझे बार बार याद दिलाई गई अब मैं भी मम्मी से जिद करने लगा था, बोलता- अब तुममें वो बात नहीं रह गई थी...मेरी हथेलियां भी तो बड़ी हो गईं थीं और जरूरतें भी लेकिन कभी भी बचपन के तुम्हारे साथ को नहीं भूल पाया...अभी तक याद है। सच्ची!

कभी खूब जलवा था चवन्नी  (25 पैसे) का 
लोग तुम्हें भूलने लगे थे तुम्हें मुहावरों में गढ़ा जाने लगा था एक दिन किसी दोस्त ने कहा, बड़ी चवन्नी मुस्कान ले रहे हो चवन्नी मुस्कान का मतलब समझा तो अच्छा लगाचलो किसी न किसी बहाने तो तुम्हें याद किया जा रहा था अब मेरी मुस्कान में भी तुम थी लेकिन उस वक्त मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा जब मैंने ये जाना कि लोग कमतर चीजों को चवन्नी छाप कहने लगे हैं। चवन्नी छाप लड़का...चवन्नी छाप फलां...चवन्नी छाप फलां। आज सुबह ही तो एफएम रेडियो पर सुन रहा था. "ये क्या मेड के आने पर तुम्हारी चवन्नियां ज़मीन पर गिरने लगती हैं।" लोग तुम्हें हिकारत की नजरों से देखने लगे थेलोगों के लिए धीरे-धीरे तुम गैरज़रूरी होती जा रही थी बाजार में तुम्हारी कोई साख नहीं रह गई थी


अभी कुछ दिन पहले ही तुम कहीं से अचानक मेरी जेब में आ गई थी मैंने तुम्हे बड़े गौर से देखा और सहेज कर रख लिया। अब तुम हमेशा मेरे पास रहोगी चवन्नी। धीरे धीरे लोग तुम्हें भूल जाएंगे लेकिन मैं तुम्हें कहां भूल पाऊंगाकहां भूल पाया उन खट्टी-मीठी गोलियों का स्वाद, चटपटे चूरन का मज़ा, कहां भूल पाया उस बूढ़े बाबा की वो आवाज.जो मेरी गली में आवाज लगाया करते थे, चार आने का आइसक्रीम। आई लव यू चवन्नी.... :-(

Thursday, December 30, 2010

क्यूँ बार-बार होता है प्यार!!!

विवेक आनंद 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं)
उस वक्त शायद मैं चौथी क्लास में रहा होऊंगा हम तीन लोगों का एक ग्रुप था मैं और मेरे साथ दो लड़कियां हम सारे काम एकसाथ ही करते थे... टिफिन खाने और होमवर्क करने से लेकर छोटी-मोटी शैतानियाँ तक सभी में तीनों का बराबर का हिस्सा होता था उस दिन सिग्नेचर को लेकर बात चल रही थी वो पेंसिल से अपने सिग्नेचर बनाकर दिखा रही थीं मेरी बारी भी आई लेकिन पता  नहीं क्यों... मैंने कहा कि मैं तुम्हें कल अपना सिग्नेचर दिखाऊंगा उस दिन मैं घर गया... और बड़े प्यार से एक कार्ड बनाया कलर पेंसिल से पहले पन्ने पर कुछ सुंदर से फूल और भीतर के पन्ने में बड़े-बड़े और सुंदर अक्षरों में लिखा... I LOVE YOUदूसरे दिन फिर सिग्नेचर की बात उठी मैंने दोनों में एक लड़की, जो मुझसे कुछ ज्यादा घुली-मिली थी, उसे वो कार्ड दे दिया कार्ड के भीतरी पन्ने पर लिखे जज़्बात देखते ही वो भड़क गई बोली, तुम यही सब करते हो, रुको मैं प्रिंसिपल मैम से शिकायत करती हूं मेरी तो हवा निकल गई, समझ में नहीं आया कि मैंने ये क्या कर दिया? पूरे दिन सांस अटकी रही खैर उसने शिकायत प्रिसिंपल मैम से न कर मेरी दीदी से की जो कि हमारी सीनियर भी थीं उसके बाद ग्रुप खत्म, बातचीत बंद तकरीबन एक साल बाद उस स्कूल में वो मेरा आखिरी दिन था आखिरी दिन के आखिरी पीरियड में वो मेरे करीब आई हमें पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से कुछ किताबें मिली थीं उसने बस इतना पूछा, जरा देखूं तुम्हें कौन सी किताब मिली है


ऐसा क्यूं होता है बार-बार 
लंबा अरसा बीत गया लेकिन ये बात मुझे बिलकुल ठीक से याद है। याद करके अच्छा लगता है, हंसी आती है कि उस छोटी सी उम्र में भी मेरे पास एक नन्हा सा दिल था। हर किसी की जिंदगी में ऐसे अनुभव होंगे। कुछ इसी तरह के प्यारे अहसास वाले लम्हें होंगे फिर हम जिंदगी में आगे निकल जाते हैं। फिर कोई मिलता है और हमें अच्छा लगता है। वो हमें भी पसंद करे तो अच्छी बात है, न करे तो हम परेशान होते हैं। कुछ उल्टे-पुल्टे काम करते हैं। जिंदगी फिर हमें कहीं और ले जाती है और यादों की पोटली में ऐसे अनगिनत लम्हें संजो जाती है। हम पीछे मुड़कर उन पलों को याद करते हैं। जो भी हो...एक अच्छा अहसास ही होता है। अपनी बेवकूफी पर हंसी आती है। अपनी उल्टी-पुल्टी हरकतों को याद कर हम मुस्कुराते हैं। यही तो है वो अहसास। अब इसे प्यार कहें... आकर्षण कहें... या दिमाग का कोई केमिकल लोचा। ये बार-बार होता है और जितनी बार हो... अच्छा है।


जिंदगी जब कभी बोझिल लगने लगती है, जब टेंशन ज्यादा होने लगता है तो  ऐसी यादें ही हमें तरोताजा कर जाती हैं। इसलिए ऐसी यादें जितनी ज्यादा होंगी उतना ही ये यकीन रहेगा कि हमने अपनी जिंदगी को भरपूर जीया है। हमने खूब प्यार किया है। बेकार की बात है जो कहते हैं कि प्यार जिंदगी में सिर्फ एक बार ही होता है। प्यार तो कई बार होता है। यहां तक कि एक के प्यार में होने के बावजूद किसी और से हो सकता है।


दिल तो बच्चा है जी...
लंदन में एक दिलचस्प रिसर्च की गई प्यार पर। नतीजों से ये बात सामने आई कि दिल पर एतबार करना सचमुच मुश्किल है। किसी एक पर दिल आ जाने के बाद भी ये न फिसले, कहना आसान नहीं  है। यहां तक कि एक सच्चे जीवनसाथी के हासिल हो जाने के बाद भी दिल के फिसलने की कम गुंजाइश नहीं रहती। एक प्यार मिलने के बाद भी दिल किसी और किसी के लिए भी धड़क सकता है। और ऐसा हर पांचवे व्यक्ति में एक के साथ हो सकता है। चाहे वो आदमी हों या औरत। उनका ये प्यार दफ्तर में काम करने वाले/वाली से हो सकता है, अपने दोस्तों में किसी एक से हो सकता है और जो लोग अपने जीवनसाथी से पूरी तरह खुश हैं... वो भी ऐसे प्यार में पाए गए हैं। ‘जब वी मेट’ को याद करिये. शाहिद से करीना कहती है...प्यार में कुछ सही-गलत नहीं होता।


सर्वे में 50 फीसदी लोगों ने ये माना कि उनके दिल में अपने जीवनसाथी के अलावा भी किसी और के लिए गहरी भावनाएं हैं और लोग इसे गलत भी नहीं मानते। छह में एक शख्स ने ये माना कि प्यार हासिल हो जाने के बाद भी अगर उनका दिल किसी के लिए धड़कता है तो वो अपने दिल की आवाज को सुनेंगे। शोध में ये भी पता चला कि आमतौर पर किसी दूसरे के लिए इस तरह की फीलिंग्स तीन-साढ़े तीन साल तक टिकती हैं।



रिसर्च लंदन की है इसलिए हो सकता है कि सर्वेक्षण के नतीजे हर जगह के लिए एक से न हों लेकिन इतना तो माना ही जा सकता है कि दिल के मामले थोड़े पेंचीदा होते हैं। भावनाओं को काबू करना सबसे मुश्किल है और भावनाएं किसी के लिए हों तो इसमें गलत क्या है? हम उस अहसास को सिर्फ एक बार क्यों जीएं? प्यार बार-बार हो तो क्या बुरा है


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Saturday, December 25, 2010

“शरीर के मरने पर भी नहीं मरुंगा”

धीरज वशिष्ठ
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
सेक्स और मृत्यु- ये दो ऐसे सब्जेक्ट हैं जिसपर लोग बात करने से अक्सर कतराते हैं। सेक्स को लेकर तो कभी बात भी हो जाए लेकिन मृत्यु से हम एक दूरी बनाए रहते हैं। हम मौत से इतने डरे हुए हैं कि उससे संबंधित बातें करने से भी जी-चुराते हैं। हम भले ही मृत्यु की बात तक से कोसों दूर रहें, लेकिन मौत उतना ही परम सत्य है, जितनी जिंदगी।

आखिर हम मौत से इतने डरे हुए क्यों हैं? हम सभी जानते हैं कि एक न एक दिन इस शरीर को हमें छोड़ना पड़ेगा। एक दिन हम सभी अनंत में खो जाने वाले हैं। इस धरा को मृत्युलोक कहा गया है। यहां हम चारों तरफ आंखें दौड़ा कर जिन चीजों को देख पा रहें हैं, वो चीजें एक दिन नहीं रहेगी। ये मृत्युलोक है, यहां हर चीज नष्ट होने वाली है। सवाल है, फिर हम क्यों इतने भयभीत है, हम क्यों डरे हुए हैं ? मौत रुप महबूबा से एक दिन हमारी मुलाकात तय है तो फिर किस बात का डर? एक बूढ़ा आदमी मौत के जितने करीब है, गर्भ में आकार ले रहा एक शिशु भी मृत्यु के उतने ही करीब है। हम ये नहीं कह सकते कि एक बूढ़े की मौत की संभावनाएं ज्यादा है और एक छोटे बच्चे की कम। दरअसल हमारे जन्म के साथ ही मौत का सफर शुरु हो जाता है।

जीवन के बाद आती है मौत 
मौत से डरने की वजह कुछ और ही है। दरअसल जीवन से हम बहुत अपरिचित है, इसलिए मौत हमें डराती है। जीवन से हम इतने अनजान है कि हर पल हमें मृत्यु सामने खड़ी नजर आती है। जिंदगी है वर्तमान और मौत है भविष्य। हम भविष्य को लेकर हमेशा इतने आशंकित रहते हैं कि वर्तमान में जी ही नहीं पाते। जिंदगी को जीना हो तो वर्तमान में हमें रहना पड़ेगा। अभी जो पल हमारे साथ है उतनी ही भर हमारी जिंदगी है और इससे हम चूकते हैं तो हम हर पल जीते हुए भी मरे हुए हैं। मौत से डरने की नहीं, जीवन को स्वीकार करने की जरूरत है। हम जीवन से हर दिन भाग रहे हैं और चाहते हैं कि हमारी मृत्यु भी ना हो।

जन्म-मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे हम समझ सकें तो मृत्यु को लेकर जो डर है उसे हम दूर करने में कामयाब हो सकेंगे, जीवन के साथ खुद को जोड़ पाएंगे। एक बीज का उदाहरण लें। हम बीज को धरती में बोते हैं और वहीं बीज वृक्ष बनता है। एक बीज एक हरे-भरे वृक्ष का रुप ले लेता है- एक नया जीवन चारों तरफ खिल उठता है।
क्या हमें इस बात का ख्याल है कि वृक्ष रूपी इस जीवन के लिए बीज को मरना होता है। बीज के मिट जाने से ही एक नए वृक्ष का जन्म होता है। बीज अगर मिटने को राजी ना हो तो नए का जन्म नहीं होगा। नए के जन्म के लिए बीज की मौत ज़रूरी है।

गीता का उपदेश : अजर-अमर है आत्मा 
हमें ख्याल न हो, लेकिन अगर मौत न हो तो हम जी भी ना सकें। शरीर के अंदर कई तरह की प्रक्रिया हर पल, हर क्षण चलती रहती है। हमारे शरीर की न्यूनतम इकाई कोशिका है। सेल से टिश्यू, टिश्यू से ऑर्गन और इसतरह हमारा ये पूरा शरीर बनता है। हर दिन हजारों सेल मरते हैं और लाखों नए सेल का जन्म हमारे शरीर में होता है। शरीर के भीतर कोशिकाओं के मरने और नए के जन्म लेने की प्रक्रिया रुक जाए तो हमारा ये शरीर काम के लायक नहीं रहेगा। अगर कोशिकाओं की मौत को हम इनकार करेंगे तो हम जीवित नहीं रह पाएंगे। मृत्यु हमारे लिए यहां वरदान है। साइंस का कहना है कि मनुष्य का शरीर कम से कम 7 बार पूरी तरह से नया हो जाता है। हम वो नहीं होते जैसे हम जन्म के वक्त होते हैं, बिल्कुल नए हम होते हैं। अगर आपने अपने बचपन की तस्वीर कभी ना देखी हो और आपको बाद में दिखाई जाए तो आप यकीन ही नहीं करेंगे कि ये तस्वीर आपकी ही है। हर पल हम मिट रहे हैं और हर पल एक नए का जन्म हो रहा है। जिंदगी-मौत के बीच इतना फासला होता है कि हम समझ लेते हैं कि दोनों दो अलग-अलग चीजें हैं।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
     न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२२।।

अर्थात.... जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।

वेद में कहा गया है अमृतस्य पुत्रोहऽम’- यानी हम अमृत के पुत्र हैं। हम अमृत की संतान हैं, इसलिए मौत से डरने की हमें ज़रूरत नहीं। गीता कहती है कि जो शरीर के मिटने के बाद भी नहीं मिटता वहीं हम हैं, जो मिट रहा है वो शरीर है। मौत से भयभीत होने की जगह हमें जिंदगी को गले लगाना होगा। इस पल को आ जी ले जरा- क्योंकि यहीं पल है जिंदगी और इसी पल में है हमारा होना।

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Friday, December 24, 2010

बॉलीवुड : फिर जी उठेगा खलनायक

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मज़बूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। यह साबित करता है कि रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं।
हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षस।
हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी का असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वासग्रस्त लोग थे।
अछूत कन्या’ में प्रेम-कथा का विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसी तरह महबूब खान की ‘नज़मा’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में ‘दुनिया ना माने’ का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है।

50 और 60 के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र ‘साहूकारी पाश’ का सूदखोर महाजन मंटो की लिखी ‘किसान हत्या’ से होते हुए अपनी बुलंदियों पर महबूब खान की ‘औरत’ में पहुंचा और कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर 1956 में ‘मदर इंडिया’ में प्रस्तुत किया।
प्राण : अनोखा खलनायक 
भारत में डाकू की एक छवि रॉबिनहुडनुमा व्यक्ति की भी रही है और समाज में मौजूद अन्याय और शोषण की वजह से मजबूरी में डाकू बनने वाले किरदार लोकप्रिय रहे हैं। सुनील दत्त की सतही ‘मुझे जीने दो’ के बाद यह पात्र दिलीप कुमार की ‘गंगा-जमुना’ में 'क्लासिक डायमेंशनपाता है।


70 और 80 के दशक में तस्कर और व्यापारी विलेन बन गए और अब वे अधिक सुविधा-सम्पन्न और खतरनाक भी हो गए थे। चूंकि स्मगलिंग विदेशों में होती थीइसलिए खलनायक के साथ एक अंग्रेज-सा दिखने वाला किरदार भी परदे पर आने लगाजो दर्शर्कों की सहूलियत के लिए हिन्दी बोलता था।  
यह उस युग की बात है जब अर्थनीति 'सेंटरमें थी और आज जब अर्थनीति की रचना में ‘लेफ्टशामिल है, ‘गुरु’ जैसी फ़िल्म बनती हैं जिसमें पूंजीपति खलनायक होते हुए भी नायक की तरह पेश है और आख़िरी रील में वह स्वयं को महात्मा गाँधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है।
अजीत की मोना ने मचा दी धूम 
पाँचवे और छठे दशक में ही देवआनंद के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमेरिका में पनपे (noir) नोए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायमपेशा अपराधी रहे हैं जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्मे थे।
फिर समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ। सलीम-जावेद ने मेर्लिन ब्रेंडो की ‘वाटर फ्रंट’ के असर और हाजी मस्तान की छवि में ‘दीवार’ के एंटी-नायक को गढ़ा जिसमें उस दौर के ग़ुस्से को भी आवाज़ मिली।
इसी वक्त नायक-खलनायक की छवियों का घालमेल भी शुरु हुआ। श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ और निशांत’ में खलनायक तो जमींदार ही रहे लेकिन अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। इसी क्रम में पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ में आवाज मिली और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के असर को ‘देव’ में पेश किया गया।
अब तक याद गब्बर के डायलाग 
इसी दौरान खलनायक अब पूरे देश पर अपना अधिकार चाहने लगे। सिनेमा ने अजीबोगरीब दिखने वालेराक्षसों-सी हंसी हंसने वालेसिंहासन पर बैठेकाल्पनिक दुनिया के खलनायकों को जन्म दिया। शाकाल, डॉक्टर डैंग और मोगेंबो इन्हीं में से थे।
इसी बीच  1975  में एक ऐसा खलनायक आया जिसके बुरा होने की कोई वजह नहीं थी। वह बस बुरा था। वह गब्बर सिंह थाजिसका नाम सुनकर पचास कोस दूर रोते बच्चे भी सो जाते थे। हिन्दी समझने वाला ऐसा भारतीय मुश्किल ही मिलेगाजिसने ‘अब तेरा क्या होगा बे कालिया’ न सुना हो।
अमजद खान के बाद वैसा खौफ सिर्फ ‘दुश्मन’ और ‘संघर्ष’ के आशुतोष राणा ने ही पैदा किया। इन दोनों फिल्मों का सीरियल किलर 90 के दशक के उत्तरार्ध के उन खलनायकों का प्रतिनिधित्व करता हैजो मानसिक रूप से बीमार थे।
मोगेम्बो खुश हुआ !!!
मानसिक अपंगता के साथ शारीरिक अपंगता भी बॉलीवुड में खलनायकों के गुण की तरह इस्तेमाल की जाती रही है। अपनी क्षतिग्रस्त आंख के कारण ललिता पवार सालों तक दुष्ट सास के रोल करती रहीं। डर’ के हकलाते शाहरुख और  ओमकारा’ का लंगड़ा त्यागी भी इसी कड़ी में हैं।
इसी बीच हीरो-हीरोइन के घर से भागकर शादी करने वाली फिल्मों ने उनके माता-पिता को ही खलनायक बनाना शुरु कर दिया। इसके उलट  बागबान’  और ‘अवतार’ की संतानें अपने माता-पिता की खलनायक ही बन गईं। कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा तो ‘रोजा’ ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के रूप में बॉलीवुड को एक नया दुश्मन दिया। इन्ही दिनों बॉलीवुड के चरित्न वास्तविक जीवन के चरित्नों की तरह आधे भले-आधे बुरे होने लगे। ‘परिंदा’, ‘बाजीगर’, ‘डर’, ‘अंजाम’ और अग्निसाक्षी जैसी फिल्मों ने एक नई परिपाटी शुरु कीजिनके मुख्य चरित्न नकारात्मकता लिए हुए थे।
खलनायक को शाहरुख ने दी नई छवि 
लेकिन पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब कर दिया। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में पिता शुरू में विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगेलेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं। इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता हैलेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज्यादा नहीं है।
आशुतोष राणा  से थर्रा गए दर्शक 
संयोग ऐसा रहा कि तीनों ही फिल्में सफल रहीं। लिहाजा बाकी निर्देशकों को भी लगा कि अब फिल्मों में विलेन की जरूरत नहीं रह गई है। पिछले दस सालों में तनुजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित ही ऐसा विलेन आया हैजिसे देखकर घृणा होती है। फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है।

बहरहाल, सिनेमा अपने एकआयामी चरित्रों और कथानकों के साथ जी रहा है, लेकिन तय है कि खलनायकों की वापसी होगी, क्योंकि खलनायकत्व उत्तेजक है।

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Tuesday, December 21, 2010

आतंकवाद की नई 'कांग्रेसी परिभाषा'

मनोज मुकुल 
(लेखक आईआईएमसी] नई दिल्ली के पूर्व छात्र और स्टार न्यूज़ में एसोसिएट सीनियर प्रोडयूसर हैं)
आतंकवाद को लेकर देश में इस वक्त बहस छिड़ी हुई है। अब तक आतंकवाद को जाति, धर्म, संप्रदाय वगैरह-वगैरह के चश्मे से देखने से देश का प्रबुद्ध समाज बचता रहा था। जानते सब थे लेकिन खुली जुबान से बोलने और लिखने से परहेज करते थे।  आतंक का कोई धर्म नहीं होता  इस जुमले में अब से पहले शायद राजनीति करने वाले हर दल के लोग यकीन करते थे। लेकिन अमेरिका की नाक में दम करने वाली वेबसाइट विकीलीक्स ने बीती 17 दिसंबर को जो खुलासे किए, उसने देश में आतंकवाद के लिए नए शब्द की रचना कर दी । भगवा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद,  मुस्लिम आतंकवाद,  सिख आतंकवाद और जितने भी नाम हो सकते हैं, उन सब नामों को लेकर जो बातें दबी जुबान में ऑफ द रिकॉर्ड होती थीं वो बातें विकीलीक्स के खुलासे के बाद ‘ऑन द रिकॉर्ड’ होने लगीं। न्यूज चैनलों और अखबारों में आतंकवाद को आतंकवाद के नाम से ही लिखा या बोला जाता था लेकिन 17 दिसंबर को देश के सभी न्यूज चैनल से लेकर अगले दिन अखबारों ने मर्यादा को लांघते हुए आतंकवाद शब्द को हिन्दुस्तान के पारंपरिक परिदृश्य से हटाकर दो धड़ों में बांट दिया। साफ-साफ लिखा गया इस्लामिक आतंकवाद

(आपको अगर याद हो तो याद कीजिए मुंबई पर हमले के वक्त किसी ने नहीं कहा कि ये इस्लामिक आतंकवाद है, दिल्ली ब्लास्ट के वक्त किसी ने नहीं कहा कि हमला मुसलमानों ने किया है, क्योंकि तब आतंक को धर्म के चश्मे से देखने की परंपरा शुरू नहीं हुई थी, मीडिया ने शुरूआत भी की और कांग्रेस को और आगे बढ़कर कहने का मंच भी दिया।)

एक सुर में बोल रहे मनमोहन-राहुल-सोनिया 
आगे बढ़िए, बात यहीं तक होती तो काम चल जाता लेकिन मामला देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने से जुड़ा था, लिहाजा इस पर पानी डालने के बजाए कांग्रेस के लोगों ने आक्रमक होने की रणनीति पर अमल करना बेहतर समझा। 19 दिसंबर को कांग्रेस महाधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आतंकवाद को जिन दो शब्दों में बांट कर रखा उसे देश ने इससे पहले न तो सुना था और ना ही किसी किताब में पढ़ा था। सोनिया के मुंह से निकले थे दो शब्द  अल्पसंख्यक आतंकवाद और बहुसंख्यक आतंकवाद। मतलब दूध की तरफ साफ है। अल्पसंख्यक आतंकवाद की जगह वो इस्लामिक आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवाद और बहुसंख्यक आतंकवाद की जगह हिंदू आतंकवाद जैसे शब्द भी बोल सकती थीं। लेकिन सियासत में डर हर किसी को लगता है। लिहाजा अपने पूरे भाषण के दौरान सोनिया ने इन दोनों शब्दों का दोबारा इस्तेमाल तो नहीं ही किया ना ही इसका वर्णन करना उचित समझा। इन दो शब्दों ने कांग्रेस की सियासी आक्रमकता के मतलब तो बताये ही ये भी साफ करने की कोशिश की गई कि राहुल गांधी ने पिछले साल अमेरिकी राजदूत से जो कुछ कहा, उसके लिए सफाई की जगह देश को तेवर दिखाने की ज़रूरत है। सोनिया के बयान को समझने के लिए राहुल के उस बयान को जानना जरूरी है जो उन्होंने अमेरिकी राजदूत को कहा था। पिछले साल यानी 2009 के जुलाई महीने में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत दौरे पर थीं, और पीएम के घर भोज के दौरान अमेरिका के राजदूत टिमोथी रोएमर ने राहुल से सवाल किया कि देश को लश्कर से कितना बड़ा खतरा है। जवाब में राहुल ने कहा कि देश को इस्लामिक आतंकवाद से ज्यादा हिंदू कट्टरपंथियों से खतरा है।"

विकिलीक्स : कई सरकारों की बोलती बंद 
संघ और उससे जुड़े संगठनों के खिलाफ राहुल बोलते रहे हैं, ये उनका अधिकार भी है और विचारधारा के स्तर पर इनके खिलाफ बोलना कर्तव्य भी। लेकिन जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने रोएमर के सामने किया वाकई में देश को इसकी उम्मीद नहीं हो सकती थी। और शायद देश में कभी भी किसी जगह जाकर खुद इस तरह के शब्दों को बोलने की हिम्मत वो नहीं जुटा सकते थे। लेकिन पर्दे के पीछे हुई बातचीत विकीलीक्स के विस्फोट के बाद दुनिया के सामने हैं। डैमेज कंट्रोल के लिए रुख को और ज्यादा आक्रमक बनाया जा रहा है। 19 दिसंबर को दिल्ली के अधिवेशन में सोनिया के साथ ही संघ और उससे जुड़े संगठनों के खिलाफ आक्रामक अंदाज़ में बोलने वाले कोई और था तो वो थे दिग्विजय सिंह। दिग्विजय सिंह ने तो न जाने क्या क्या कहा...लेकिन बारी जब राहुल गांधी की आई तो देश उनके मुंह से विकीलीक्स के दावे की सच्चाई जानना चाहता था पर राहुल विकास, संगठन और भ्रष्टाचार पर बोलकर चलते बने। जिस बहस की शुरुआत उन्होंने की उसको छूने तक की जरूरत या यूं कहिए हिम्मत नहीं जुटा पाए।
क्या नेता बताएँगे आतंकवाद का धर्म 

एक बात जो समझ से परे नहीं है वो ये कि अगर विकीलीक्स का खुलासा नहीं होता तो शायद इस वक्त कमजोर हो चुके विपक्ष पर एक साथ कांग्रेस का पूरा कुनबा वार नहीं करता और देश में आतंकवाद की परिभाषा को लेकर बहस नहीं शुरू हुई होती। बहस की शुरुआत इसलिए ही हुई कि कांग्रेस के युवराज ने दुनिया के मंच पर देश के बहुसंख्यक समुदाय की छवि को आतंक से सीधे सीधे जोड़ दिया। संघ का आतंक से रिश्ता है या नहीं, ये मामला सियासत के लिए सही हो सकता है। लेकिन हिन्दुस्तान को लश्कर, जैश, हूजी, आईएम की जगह हिंदू कट्टरपंथ से ज्यादा खतरा है ये कहना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को दुनिया के मंच पर कमजोर करने की दिशा में दिया गया बयान ही माना जाएगा। क्योंकि देश क्योंकि देश 26/11 के कसाब से लेकर मुंबई सीरियल ट्रेन ब्लास्ट, दिल्ली सीरियल ब्लास्ट, जयपुर ब्लास्ट, अहमदाबाद ब्लास्ट, संसद हमला, लाल किला हमला और न जाने कितने हमलों की तारीख भले ही भूल गया है लेकिन दर्द को नहीं भूला पाया है। और विकीलीक्स का दावा इसी दर्द पर मरहम नहीं नमक के समान है।


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