Monday, February 14, 2011

मुखौटा पहने घूमती दुनिया !

धीरज वशिष्ठ 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र, योग इंस्ट्रक्टर और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
एक दोस्त के यहां पिछले दिनों गया। रास्ते से गुजर रहा था तो सोचा मिलता चलूं। घर पहुंचा तो भाईसाहब पूरी तरह फिट-फाट होकर कहीं जाने की तैयारी में दिखे। मैंने पूछा कि लगता है ग़लत वक़्त पर आ गया, तुम कहीं निकल रहे हो क्या?  उसने कहा नहीं यार, आओ बैठो। मैंने पूछा फिर कहीं से आ रहे हो? बोला, अबे, नहीं यार, कहीं से नहीं आ रहा। मैंने पूछा तो फिर ये बाबूसाहब बनकर क्यों घर पर बैठे हो?  उसने कहा, इसके पीछे कहानी है। दरअसल अगर घर में कोई ऐसा बंदा आ जाता है जिसके साथ मैं वक़्त बिल्कुल गुजारना नहीं चाहता तो कह देता हूं कि अरे यार तुम ग़लत वक़्त पर आ गए, मैं तो कहीं निकल रहा हूं। दूसरी तरफ तुम्हारी तरह कोई मनपसंद शख़्स आ जाता है तो कहता हूं कि ठीक वक़्त पर आए हो मैं अभी-अभी बाहर से ही आ रहा हूं।

मुझे ये बात सुनकर खुशी कम, हैरानी ज़्यादा हुई। मैं सोचने लगा कि ये भी क्या तरीक़ा है जीने का?  हम मुखौटा पहने क्यों घूमते रहते हैं ? जैसा शख़्स सामने दिखा उसके हिसाब से चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लिया।
न्यूज़ चैनल में काम करते हुए इस तरह के मुखौटा व्यक्तित्वको मैंने खूब देखा। बॉस के दिमाग में कोई आइडिया आया नहीं कि उनके सामने मुखौटों की भीड़ नज़र आने लगती है। वाह सर, क्या स्टोरी आइडिया है, ज़बरदस्त टीआरपी बटोर लेंगे हमलोग। बॉस थोड़ा से हटे नहीं कि फुसफुसाहट शुरू। अबे यार, इस स्टोरी पर कहीं आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का है ?  इससे कचरा तो कुछ नहीं होगा यार..वगैरह..वगैरह। देख लीजिए, मुखौटा अब बदल गया

उखाड फेकना होगा मुखौटा 
आए दिन हमारे-आपके चारों तरफ मुखौटों की ये भीड़ नज़र आती रहती है। स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि हम ख़ुद के चेहरे पर कब कौन-सा मुखौटा चढ़ा लेते हैं ये ख़ुद को भी नहीं पता। हम झूठे चेहरे को लेकर घूम रहे हैं। हम नकली व्यक्तित्व को ढोए चले जा रहे हैं। मुखौटे के ऊपर मुखौटा। नकली चेहरे के ऊपर एक और नकली चेहरा। हम दिनभर में इतने बार मुखौटे बदलते रहते हैं कि किसी कोने से आ रही हमारे ही व्यक्तित्व की सिसकियां ही हमें सुनाई नहीं देती।    

एक खंडित व्यक्तित्व चारों तरफ नज़र आ रहा है। हमने ख़ुद को ही कई टुकड़ों में बांट रखा है। इस मुखौटे ने हमारा क़त्ल कर दिया है। इस मुखौटे ने हमें ख़ुद से अनजान बना दिया है। इस मुखौटे ने हमारे हर एक भरोसे का गला घोंट दिया है। इस मुखौटे ने शक, फ़रेब और धोखे की दीवार खड़ी कर दी है। नहीं, सारे मुखौटों को अब उतारना पड़ेगा। इस झूठे व्यक्तित्व को गिराना होगा। हम जैसे हैं, वैसे नग्न खड़े हो जाएं- कोई मुखौटा नहीं, सिर्फ असली चेहरा।

Recent Posts

Thursday, February 10, 2011

Less Than Life Itself

DHEERAJ KUMAR
( The writer is IIMC alumnus and Senior Associate Producer in CNBC-Awaaz.)
"Zindagi pe tera mera kisi ka na zor hai, hum sochte hain kuchh yeh saali sochti kuchh aur hai..." These lines from the songs of the film may be true for real life but at least these are true for Sudhir Mishra's new film ‘Ye Saali Zindagi’. I feel that what he initially thought to make was much different from the end product which is before us as a film. It happens very rarely that you like the acting in the film but overall the film disappoints you. YSZ is one of those films which looks promising and lively in promos but when you go to theatre, you find your expectations shattered. Sudhir Mishra is counted amongst the sensible and serious film makers whose films are not typical bollywood masala movies. But only having some good actors and let the film loose at all ends cannot make a great movie and this is the case with YSZ. No doubt, the potential of a great movie was there in the story but the narrative is not catchy enough to let you stick with your seats in theatre. 

Yeh Saali Zindagi : looks imprssive in promos
 These days it’s becoming fashionable to use cuss words and raw language in dialogue to give the film a reality touch as we have seen recently in ‘No One Killed Jessica.’ But if you find abuses in every second dialogue without any need, you don't find those saucy but they irritate you. There are some really good dialogues in the movie but I cannot buy the argument that for making a real life drama you need to have dialogues full with GAALIAN. The main protagonist of the film Irrfan loves sexy and charming club singer Chitrangada and due to this love how he makes his life complicated is the main story of the film. The film has many more characters who come across during various events occurred in the movie but the narrative becomes so complex in the beginning that you get a bit confused. Arunodaya and Aditi Rao have shown good acting skills and Saurabh Shukla is fabulous as always. Rest of the artists who are part of the film have done justice with their role and definitely can get a thumbs up for that. But due to the weak script and screenplay their efforts have been in waste, I think.

Sudhir tried to maintain the pace of the film but it seems that many a times things go out of his hands. Though never in the film, none of the characters of the film preach you about morality and ethics which brings the film near to the realities of life, but during your stay in the theatre, you hardly identify with any of the characters and this is the biggest weakness of YSZ. There are some comical moments and sometimes you think that Sudhir has tried to make a dark comedy. But when the film ends, you feel as if you have come off a roller coaster ride! (Was there a need for this, I don't know). The music as well as the background score is better than average, cinematography and editing is ok but overall the film does not leave indelible mark on your mind which you expect when you see the promos of the film on your TV sets. So, what more to say, if you miss it, believe me you are not in a loss. :)
Recent Posts :





Thursday, February 3, 2011

देसी सिनेमा : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं कामयाब

मंजीत ठाकुर 
(लेखक आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व छात्र और डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ संवाददाता हैं)
भारत में सिनेमा एक जुनून है और भारतीय सिने-उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा भी है। तकरीबन एक हजार फिल्मे हम हर साल बना डालते हैं। लेकिन इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अच्छे और कामयाब सिनेमा के तौर पर जाने नहीं जाते। 

भारतीय मापदंड के आधार पर तो हिंदी फ़िल्मों ने काफ़ी तरक्की की हैतकनीक के मामले में  हम आगे आए हैं और बाजार पहले से ज्यादा स्थिर हो गया है। लोकप्रियता और पहुंच के मामले में भी हम तकरीबन ग्लोबल हो गए हैं। भारत के अलावा हिंदी फ़िल्में मध्य-पूर्व और मध्य एशियाअफ़्रीका, अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया के कई हिस्सों में अपना एक अलग दर्शक वर्ग बना चुकी हैं। 

राज कपूर की आवारा’  से शाहरुख़ की कभी अलविदा न कहना’ तक विदेशों में हिंदी फ़िल्मों ने अच्छा कारोबार किया। लेकिन सवाल फिर भी बरकरार है कि क्या ये लोकप्रियता और कमाई  बॉलीवुड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन सिनेमा की कतार में खड़ा कर पाई है?

आज़ाद भारत के करीब 60  वर्षों के इतिहास में विदेशी भाषा की श्रेणी में कोई भी हिंदी फ़िल्म ऑस्कर नहीं जीत पाईं है- केवल तीन हिंदी फ़िल्में,  मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान अंतिम पांच में नामांकित हो पाई हैं। जिस स्लमडॉग मिलियनेयर  के आस्कर जीतने पर हम खुशी से झूम उठे,  मालूम हो कि इस फिल्म की महज पृष्ठभूमि और कलाकार ही भारतीय है। 

पथेर पांचाली : अंतरराष्ट्रीय  पहचान  मिली 
दरअसल, अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने की रेस हमने अभी तक शुरू ही नही की है। सच्चाई ये है कि विश्व सिनेमा के पटल पर भारतीय सिनेमा को पहली बार पहचान दिलाने वाली फिल्म सत्यजीत रे की पथेर पांचाली (1955) थी। रे ने यह फिल्म विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के उपन्यास के पहले हिस्से पर बनाई है। 1956 के अन्तरर्राष्ट्रीय कान फिल्म समारोह में  पथेर पांचाली को एक हृदयस्पर्शी ‘मानवीय दस्तावेज़’ कहा गया।  बाद में राय की अपू-त्रयी( अपू-ट्रिलजी) पथेर पांचाली (1955),  अपराजितो (1956)  और अपूर संसार (1959)) विश्व सिनेमा को भारतीय सिनेमा की देन मानी गई।

अडूर गोपालकृष्णन 
सत्यजीत रे के ही दौर के ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की कृतियां भी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई हैं। घटक की फिल्मों में भारत विभाजन की त्रासदी कहानी की पृष्ठभूमि के रूप मौजूद रहती है। सत्यजीत रे की फिल्मों की एडिटिंग के तरीक़े में कट्स बेहद क़रीने के थे। मिसाल पथेर पाचाली  और  चारुलता हैं  लेकिन इसके उलट, घटक की फिल्मों के कट्स झटकेदार रहे। चाहे वो मेघे ढाका तारा’,’ सुबर्नरेखा हो या तिसता एकती नदीर नाम हो। जाहिर है कला और शिल्प के स्तर पर प्रयोग हमारी फिल्मों में भी देखे जाने लगे। आज भी बांग्ला के गौतम घोष, अपर्णा सेन और रितुपर्णो घोष जैसे फिल्मकार अपनी स्वतंत्र सोच और कलाशैली के साथ फिल्में बना रहे हैं।
बांग्ला फिल्मों के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भारतीय सिनेमा को इज़्ज़त मिली वह मलयालम की वजह से। 
गिरीश कर्नाड 
अडूर गोपालाकृष्णन ने 1984 में अपनी फिल्म मुखामुखम में एक ऐसा विषय उठाया, जिस पर फिल्म बनाने की बात कोई हिंदी फिल्मकार तो सोच भी नहीं सकता। मुखामुखम कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कलह, बिखराव और संकट की कहानी कहती है। नाल्लू पेनुगल हो या ओरु पेनम रंदानम, अडूर ने अपनी फिल्मों मे भारतीय जीवन के किसी न किसी पहलू को रेखांकित किया है। इसी तरह जी अरविंदन ने 1974 में उत्तरायणम् से फिल्म बनाने की जो गैर-पारंपरिक शैली शुरू की,  वह 1986 में चिदंबरम् आते-आते पूरी तरह परिपक्व हो चुकी थी। जी अरविंदन की कला-शैली मुख्यधारा के लिए अजूबा ही है। मलयालम के ही एक दूसरे फिल्मकार शाजी करुन ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। 

लोकप्रियता और बाजार के लिहाज से क्षेत्रीय सिनेमा के मुक़ाबलेमुंबईया हिन्दी सिनेमा बेशक आगे रहा पर कथानकचरित्र विकास और सिनेमटोग्रफी के नज़रिये से यह कभी भी क्षेत्रीय सिनेमा की गहराई हासिल नहीं कर पाया है।  

मलयालम की ही तरह मराठी सिनेमा भी विषय-वैविध्य के लिए मशहूर है। वी शांताराम की कुंकू (1937) और मानूस (1939) नारी मुक्ति और वेश्याओं के उद्धार की कहानी बेहतरीन सिनेमाई शैली में करती है। मौजूदा दौर में मराठी  सिनेमा में जब्बार पटेल और अमोल पालेकर जैसे फिल्मकारों के अलावा नई पौध भी उग आई है। संदीप सावंत की श्वास मराठी सिनेमा में कला के रेनेसां जैसा माना जा रहा है।

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास और विस्तार के लिहाज से  60 और 70 का दशक  स्वर्ण-काल था। इस दौर में हिंदी में जहां रोमांस का बोलबाला था, और बाद में चाकलेटी हीरो के चरित्र का विस्तार हुआ, क्षेत्रीय सिनेमा खुरदरी ज़मीन पर यथार्थ की तलाश कर रहा था। इन्ही दिनों बंगाल के बाद केरलकर्नाटक,असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में नई धारा का सिनेमा फला-फूला।   

वी. शांताराम 
कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कर्नाडब.व.कारंत और गिरीश कासरावल्ली ने अपनी फ़िल्मों से एक नई सांस्कृतिक क्रांति’ पैदा की। एक नाटककार के रूप में पहले ही मशहूर हो चुके गिरीश कर्नाड ने वंशवृक्षसे एक बेहतर निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनाई। ब व कारंत ने कर्नाड के साथ कई फिल्में की, लेकिन कन्नड़ सिनेमा में गिरीश कासरावल्ली की जगह वही है जो केरल में अडूर गोपालाकृष्णन की है। हाल में गिरीश कासरावल्ली की गुलाबी टॉकीज़ ने एक बार फिर साबित किया कि आखिर क्यों क्षेत्रीय सिनेमा को दिलों और जिंदगी के करीब माना जाता है।
असम के सबसे चर्चित फिल्मकार जाह्नू बरुआ की हलोदया चौराये बाओधन खाय और रखगोरोलोये बोहु दूर जैसी फ़िल्में सामाजिक भ्रष्टाचारउत्पीड़न और राजनीतिक दुष्चक्र में फंसे कमजोर और वंचित तबके के जीवन संघर्ष की कथा कहती हैं। इसी तरह उड़िया में नीरद महापात्रा ने माया मिरगा के जरिए परिवार के टूटने की वजह गरीबी बताई। समाज की कसमसाहट का ऐसा जिक्र हिंदी में कम ही मिलता है।

लब्बोलुआब यह कि एक और जहां हिंदी सिनेमा दर्शकों को सपनीली दुनिया में ले जाता रहा, एक काल्पनिक दुनिया रचता रहा वहीं तमाम उपेक्षाओं के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा न सिर्फ जिंदा है बल्कि नई ज़मीन भी फोड़ रहा है...क्योंकि उसके पास दृष्टि भी है और मकसद भी।

Related Posts : 

Friday, January 28, 2011

Why govt’s defence of CVC does not hold much water

RAJIV KUMAR
(Writer is Associate Producer in Headlines Today)
The Government has come out with a bizarre defence of beleaguered CVC (Chief Vigilance Commissioner) PJ Thomas. In a shocking disclosure, the Govt. told the Supreme Court that it was not aware of charges against Thomas in the Palmolien Oil import scam.
As far as I know, before the appointment of any candidate to the exalted office, the EMPANELMENT COMMITTEE (EC) forwards the name of potential candidates to the Top committee, which includes the PM, Finance Minister and the Leader of Opposition.

The EC, in-turn, before recommending the names, consider three points, which are


1. Who is the senior most candidate?
2. His record from Ministry of Personnel (MoP). (Experience; taint, if any).
3. A check of his antecedents by the Intelligence Bureau. (Crime record; cases, if any)
Only after being satisfied that all the above three parameters are met, the EC recommends the candidate for further perusal to the Top Committee.

Now the questions to be raised are:

Mr. Thomas are you ready to go???

1. Did PJ Thomas’s record with MoP fail to mention the fact that he was involved in the Palmolein oil import scam?

2. How did the IB fail to report that PJ has a taint on his career?

3. Sushma Swaraj is on record saying that she “brought this fact to the notice of Prime Minister and Home Minister in the meeting.”

Why then, did the Govt. override Opposition Leader’s objection? These are many of the few questions the Govt. need to answer to the nation. Its affidavit in the apex court that Thomas is an "outstanding officer of impeccable integrity” does not hold much water in the eyes of the public; let alone the SC, which definitely has more wisdom and prudence. The UPA Govt. must understand the fact that India cannot afford to have a ‘sacrosanct’ head of top surveillance watchdog (CVC) vouching for his integrity in the apex court.


NOTE: TOP COMMITTEE
(a) The Prime Minister - Chairperson;
(b) The Minister of Home Affairs - Member;
(c) The Leader of the Opposition in the House of the People - Member.



Recent Posts

Thursday, January 27, 2011

चीन में देखिये "अंडे का फंडा"

मुकेश कुमार झा 
(लेखक आईआईएमसी नई दिल्ली के पूर्व छात्र और प्रोपर्टी एक्सपर्ट पत्रिका में सीनियर सब एडिटर हैं.)
महंगाई का असर अब ग्लोबल हो चुका है। खान-पान के साथ रहन-सहन पर इसका साफ प्रभाव देखा जा सकता है। महानगरों में खाने से ज्यादा लोग रहने में खर्च करते हैं। कुल मिलाकर, आमदनी अट्ठन्नी, खर्चा रुपया वाली स्थिति हो गई हैं। खासकर, स्टूडेंट्स को इस महंगाई से बुरी तरह जूझना पड़ता है। बढ़ती महंगाई और घटते जॉब के ग्राफ ने काफी कुछ बदल कर रख दिया है। स्थिति ऐसी हो तो मानकर चलिए जिंदगी को रफ्तार में बनाए रखने के लिए कुछ खास तो सोचना ही पड़ता है। इसी सोच का असर अब चीन में भी दिखने लगा है। एक तो महंगाई और ऊपर से जॉब की बेवफाई ने एक संघर्षरत चाइनीज स्टूडेंट को रहने के लिए एक अलग प्रकार के कॉन्सेप्ट का सहारा लेना पड़ा। यह कॉन्सेप्ट कुछ ऐसा है कि आप एक बार देखें और सोचे तो कुछ देर के लिए आश्चर्यचकित हो सकते हैं।
अंडाकार मकान का ऊपरी दृश्य 


हनोई यूनिवर्सिटी के 24 वर्षीय ग्रेजुएट स्टूडेंट दाईं हैफेई ने चलते-फिरते घर के रूप में एक नया कॉन्सेप्ट लाये हैं। यह घर अंडे के आकार में है। यह काफी हद तक घर के सामने वाले कॉटेज की तरह ही है। दाई की कंपनी बीजिंग के हैदियान डिस्ट्रिक्ट के चेंग्फू रोड के  पास बड़े प्रांगण में स्थित है। कंपनी की बड़ी बिल्डिंग के नीचे स्थित लोन पर बना यह चलता-फिरता घर बड़े अंडे के समान दिखाई देता है। 


दो मीटर ऊंचे इस घर का बाहरी भाग गनी बैग से बना हुआ है, जो देखने में खुरदुरा लगता है। इस अनोखे घर का दरवाजा अंडाकार का है। वो भी बिना लॉक का। इस घर में पहिये भी लगाए गए हैं, ताकि जगह बदलने में कोई दिक्कत न हो। 


नज़दीक से देखिये घर की खूबसूरती
घर के अंदर का हिस्सा बांस के टुकड़ों से बना है, जिसे कील के सहारे जोड़ा गया है। इस अनोखे घर में जहां बांस के टुकड़ों से बनी छत की बाहरी भाग बांस की चटाई की परत, थर्मल इन्सुलेशन लेयर, रेनप्रूफ लेयर से लैस है और वहीं उसका बाहरी भाग दूसरे थर्मल इन्सुलेशन लेयर, जो जूट से बने थैले से ढका हुआ है। इस जूट के थैले यानि गनी बैग घास के बीज और जाइमाटिक लकड़ी के बुरादे से भरा हुआ है। यह घास के बीज बसंत ऋतु में जूट के थैले से निकल कर ग्रीन हाउस के कॉन्सेप्ट को असली रूप देते हैं।


इस शरणस्थली का डेकोरेशन काफी साधारण है। इसमें एक मीटर चौड़े बेड के सिरहाने के पास किताबें रखने की सुविधा है। बेड के अंतिम छोर पर पानी की टंकी इस रूप में रखी गयी है कि देखने पर लगता नहीं है कि यहां पर कोई पानी की टंकी भी है। वाटर टैंक में प्रेशर सिस्टम भी लगा हुआ है, जिसका इस्तेमाल चीज़ों को धोने में किया जाता है। घर बनाने वाला दाई के पिता कंस्ट्रक्शन वर्कर हैं और मां ऑफिस क्लीनर। उसके माता-पिता काफी बूढ़े हो चुके हैं और अपने बेटे की शादी के लिए कडा परिश्रम भी कर रहे हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा बचाकर एक अच्छे घर में दाई की शादी भी कर सकें।



घर संवारते दाई हैफेई 
दाई की घर कह स्थिति ऐसी नहीं है कि वह किराया अफोर्ड कर सके। इस घर में रहने के बाद दाई का कहना है कि अब हर महीने पैसे की बचत होने से हमारे जीवन स्तर में भी सुधार आया है। लेकिन इस कॉन्सेप्ट से बने घर की लोकप्रियता काफी बढ़ गई है। इसे स्थानीय मीडिया और लोगों ने खूब सराहा है। इस अनोखे घर को देखने लोगों की भीड़ उमड़ रही है। हालांकि, देखा जाय तो यह कॉन्सेप्ट काफी हद तक चीन की स्थिति की काफी व्याख्या कर रहा है। कुछ जानकारों का अनुमान है कि कहीं इस घर को हटा न दिया जाय। मामला चाहे जो भी लेकिन इस प्रकार का घर भविष्य में उन लोगों के लिए एक नई दिशा प्रदान करेगी, जो महंगाई के इस जमाने में पढ़ाई के साथ महानगरों में एक बेहतर जीवन शैली का हिस्सा बनना चाहते हैं।

Recent Posts :

Tuesday, January 25, 2011

Intricacy of Relationships : Dhobi Ghat

DHEERAJ KUMAR
(The Writer is IIMC alumnus and Senior Associate Producer in CNBC-Awaaz)
These days many film makers are coming forward to produce films with difference, either based on real incidents or showing the intricacies of relationships which they present in innovative style. Kiran Rao's directorial debut Dhobi Ghat is one of those beautiful made films which you can watch more than once. The film presents the layers of relationships through four different protagonists from different backgrounds but the connecting factor amongst them is our very own maximum city Mumbai. Kiran wanted to project the film as the tales of Mumbai and hence she called the movie Mumbai Diaries but according to me the tales of the Dhobi Ghat can be set up in any metro. (one of my closest friends is of the opinion that the film can be set in any small city as well though I differ with him). The beauty of the film lies in the fact that none of the characters in the film bores you and you want to know what next or what now throughout the film. Though the film is not very long but there was no need to stretch it either as the film achieves its purpose clearly.

Kiran Rao presented the tales of Mumbai

Dhobi Ghat is a landmark in the Mumbai city but the name doesn't tell you much about the film. Rather, if the film's name would be anything else, it won't matter. Film revolves around four characters Yasmin, Arun, Sai and Munna, three of whom come across each other to form complicated, intense, sensitive and tender relationships. All of them are from different background, different social status and different areas of the country but choose Mumbai for their respective dreams. Their desires play very important roles in their lives and the interpretation of relationships. The film presents a self claimed loner who doesn't want to go into any serious relationship and is happy changing homes at the interval of every eleven months, hailed from a small town youth washerman whose dream is to become an actor, an investment banker from New York who comes to Mumbai on a sabbatical and in search of the 'fresh air' and last but not the least a newly wed woman from a small town who seek happiness in every aspect of life in a city like Mumbai.
In the movie through Yasmin's hand held video camera and her voice over you know the story of her life, her idea of happiness, her rendition of biography of Mumbai and what she get in the end. She is the character which gives you smiles, touches your heart by her sensitivities and connects with you in every scene where her impression is present. Her story through video tapes acts as a subject for Arun for his new painting and during this period, he tries to live his life through Yasmin's small treasure. Sai likes Arun but he is not ready to move into the relationship and it creates stress between both of them till the end. And finally Munna finds his mentor in Sai, befriends her, starts liking her and in the end reality strikes him to act mature. The climax of the movie compels you not only to think but to see around yourself and you admit the existence of those characters in your know.
Character of Yasmin tells the idea of happiness
The acting of all the new actors are good, they are quite natural and the truth is that Amir looks a little non-convincing before other three actors. Praeik as Munna shows his mettle, Monica Dogra as Sai presents herself with at ease and Kriti Malhotra as Yasmin spellbinds you. Background score by Gustavo Santaolalla never let you feel the absence of songs in the movie. Excellent camera work by Tushar Kanti Ray mesmerizes you and it becomes more important when you know that all the main characters in the film are related with art somewhere. An aspiring actor, a painter, a professional photographer and an amateur videographer characters demand a very skillful camera work which not only can catch but also let the viewers feel the beauty of the art depicted in the movie. Kiran Rao's strong scripting and direction make Dhobi Ghat a movie to watch for. In the last I would like to add that Kiran has portrayed her idea of complexity of relationships aptly through Dhobi Ghat. Simply go for it for having a nice and serious experiences.
Recent Posts :